भारत में आपातकाल, लोकतंत्र पर बदनुमा दाग
डाॅ. श्रीकांत
स्वतंत्र भारत के इतिहास में आपातकाल का कालखंड लोकतंत्र के भाल पर एक विशाल और गहरा काला टीका है। इसमें जनसामान्य की स्वतंत्रता का अचानक ही अपहरण कर लिया गया था। देश का सर्वस्व तानाशाही के हाथों में गिरवी रख दिया गया था। संविधान पर ताला डाल दिया गया था, किसी को कुछ भी इसके विरुद्ध बोलने का अधिकार नहीं था। जो बोलता उसका निवास सीखचों के पीछे कारागार की कालकोठरी में होता। देश में जनमानस भयभीत होकर रह गया था। एक बार तो पूरे देश में सन्नाटा खिंच गया था। आपातकाल लगाने का कारण क्या था और आपातकाल लगाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
सन 1975 की घटना है। इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। उनका चुनाव निर्वाचन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। अपनी कुर्सी बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए आनन-फानन में राष्ट्रपति महोदय से जबरन हस्ताक्षर लेकर देश में आपातकाल लागू कर दिया और शासन के समस्त सूत्र एक तरफा अपने हाथों में ले लिए। आपातकाल 25 व 26 जून 1975 की मध्य रात्रि में लागू किया गया और तत्काल विरोधी दलों के नेता जो भी जहां भी मिले उनको तुरंत उठाकर कारागार में डाल दिया गया। जैसे अटल बिहारी वाजपेई व लालकृष्ण आडवाणी तथा भारतीय जनसंघ के तत्कालीन अनेक बड़े नेता बेंगलुरु बैठक हेतु गए थे, वह वहीं से उठा लिए गए और कारागार में बंद कर दिए गए। 26 जून 1975 को प्रातः काल यह समाचार पढ़कर समस्त देश स्तब्ध रह गया। लोकतंत्र कटघरे में आ गया। काली रात जैसा लगने लगा विरोधी दलों के नेता निराश हो गए थे। उनको लगने लगा कि देश की प्रधानमंत्री तानाशाह है, यह इस काली रात को लगातार बनाए रख सकती है। उनको अनुभव हो रहा था मानो अब इस कारागार से उनका उनका शव ही निकल कर जाएगा। सभी राजनीतिक पार्टियों पर पाबंदी लगा दी गई अर्थात उनकी गतिविधियां रोक दी गईं।
इसके साथ ही सत्ता को सर्वाधिक भय तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से था। संघ पर भी 4 जुलाई 1975 को प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में इंदिरा गाँधी को गलती का अहसास हुआ तो संघ के पास सरकारी दूत भेजे गए। संघ इसमें हस्तक्षेप ना करे तो उसे मुक्त किया जा सकता है। परंतु संघ ने कहा, अब बहुत देर हो चुकी है, कदम इतने आगे बढ़ गए हैं कि उनको पीछे लेना कठिन है। दूत खाली हाथ वापस लौट गया। वैसे भी राष्ट्र को बंदीगृह में छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुक्त होने की कामना कैसे करेगा? असंभव है।
सभी समाचार पत्र सेंसर कर दिए गए थे। इसका कारण था कि सरकार के विरुद्ध और सरकार की इच्छा के विरुद्ध कोई समाचार छापा नहीं जा सकता था। इसलिए क्या चल रहा है इससे देश की जनता अनभिज्ञ थी।
दूसरे पुलिस को कुछ भी मनमानी क्या, किसी के विरुद्ध, किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने की स्वतंत्रता दे दी गई थी। वह जनता पर अत्याचार कर रही थी। उसके विरुद्ध जाने का अर्थ था स्वयं को समाप्त करना। नो अपील नो दलील का युग प्रारंभ हो गया था। अत्याचार और दमन का स्वरूप यह हो गया था कि अंग्रेजी यातनाएं भी स्वयं को लज्जित अनुभव कर रही थीं।
संघ के स्वयंसेवक भूमिगत हो गए थे। बाद में दमन के विरुद्ध उन्होंने सत्याग्रह प्रारंभ किया। कारागार भर दिए गए। लगभग एक लाख से अधिक कार्यकर्ता सत्याग्रह करके कारागृह गए। यह आजादी के आंदोलन से लेकर अब तक का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बन गया। वहां भी घोर यातनाएं दी गईं। कोड़े मारना, प्लास से नाखून खींचकर निकाल लेना। घाव पर नींबू-नमक-मिर्च लगाना। गुप्तांगों पर सिगरेट दागना, मलद्वार में डंडा डालना। हाथों को कुर्सी के पैरों के नीचे दबाकर रखना, उसके ऊपर खड़े होकर कोड़े मारना। इन राजनीतिक बंदियों को अपराधी और व्याधि ग्रस्त गंभीर कैदियों के साथ रखा गया। यह सब महिलाओं के साथ भी हुआ। अनेक महिलाएं भी कारागार में तानाशाही के विरुद्ध निरुद्ध की गई थीं।
भूमिगत कार्यकर्ता जनता के मध्य लोक संघर्ष आदि नामों से समाचार पत्र भी निकालते थे। पता लग जाता था तो रातों रात स्थान भी बदलते थे। अपने घरों में नहीं जाते थे। उनके नाम वारंट थे। घर पर नहीं मिले तो परिजनों को बंद कर दिया गया। घरों की कुर्की की गई। महिलाओं व बच्चों को घरों से निकालकर बाहर कर दिया जाता था। परंतु लोकतंत्र के दीवाने ये स्वयंसेवक उनके हाथ नहीं आए। बाहर कांग्रेस के लोग खुफियागीरी करते थे। अनेक कार्यकर्ता बेटी का कन्यादान करते समय पकड़वा दिए गए थे। लेकिन कार्यकर्ताओं ने न तो क्षमा मांगी और न ही झुकना स्वीकार किया। अंततः सरकार को झुकना पड़ा। चुनाव की घोषणा हुई। कार्यकर्ता पैरोल पर बाहर आए, पर घर नहीं गए। निर्वाचन मैदान में संपर्क किया। चुनाव का परिणाम आया। सरकार की विदाई हुई। नई सरकार का गठन हुआ। लोकतंत्र की विजय हुई। तानाशाही की पराजय हुई। लोकतंत्र बहाल हुआ। देश ने द्वितीय आजादी प्राप्त की। आपातकाल समाप्त हो गया।