भारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोण

भारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोण

लोकेन्द्र सिंह

भारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोणभारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोण

तुर्की जब स्वतंत्र हुआ, तब आधुनिक तुर्की के संस्थापक कमालपाशा ने जिन बातों पर गंभीरता से ध्यान दिया, उनमें से एक भाषा भी थी। कमालपाशा ने विरोध के बाद भी बिना समय गंवाए शिक्षा से विदेशी भाषा को हटा कर तुर्की को अनिवार्य कर दिया क्योंकि, वह तुर्की के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार करना चाहते थे, इसके लिए उन्हें अपनी भाषा की आवश्यकता थी। उस समय तुर्की अरबी लिपि में लिखी जाती थी, इसलिए उन्होंने एक घोषणा और की, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे लोग सरकारी नौकरी से वंचित कर दिए जाएंगे, जिन्हें लैटिन लिपि का ज्ञान नहीं होगा।

इसी प्रकार दुनिया भर में बिखरे यहूदियों को जब उनकी भूमि प्राप्त हुई, तो उन्होंने भी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ को ही अपनाया। सोचिए, भूमिहीन यहूदियों की भाषा कहीं लिखत-पढ़त के व्यवहार में नहीं थी। इसके बाद भी जब यहूदियों ने इजराइल का नवनिर्माण किया तो राख के ढेर में दबी अपनी भाषा हिब्रू को जिंदा किया।

आज जिस अंग्रेजी की अनिवार्यता भारत में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, उसके स्वयं के देश ब्रिटेन में वह एक जमाने में फ्रेंच की दासी थी। बाद में ब्रिटेन के लोगों ने आंदोलन कर अपनी भाषा ‘अंग्रेजी’ को उसका स्थान दिलाया। अपनी भाषा में समस्त व्यवहार करने वाले यह देश आज अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं। अपनी भाषा में शिक्षा-दीक्षा के कारण ही यहाँ के नागरिक अपने देश की उन्नति में अधिक योगदान दे सके। अपनी भाषा का महत्व दुनिया के लगभग सभी देश समझते हैं। इसलिए उनकी आधिकारिक भाषा उनकी अपनी मातृभाषा है। किंतु, हम अभागे लोग स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी मानसिक दासिता से मुक्ति नहीं पा सके।

भारत में जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा अकसर हिन्दू संगठन या फिर राजनीतिक संदर्भ में होती है, वह संगठन सदैव अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए उपाय करता रहता है। किंतु, इस नाते उसका उल्लेख कम ही हो पाता है। अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करने के प्रयत्नों में संघ ‘मातृभाषा’ के महत्व को भी रेखांकित करता है। दरअसल, संघ मानता है कि “भाषा किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण घटक तथा उसकी संस्कृति की सजीव संवाहिका होती है। देश में प्रचलित विविध भाषाएँ एवं बोलियाँ हमारी संस्कृति, उदात्त परंपराओं, उत्कृष्ट ज्ञान एवं विपुल साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के साथ ही वैचारिक नवसृजन हेतु भी परम आवश्यक हैं।”

अंग्रेजी के प्रभाव में जिस तरह भारतीय भाषाओं को नुकसान हो रहा है, यहाँ तक कि भारतीय भाषाओं के बहुत से शब्द विलुप्त हो गए हैं, उनमें अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं के शब्दों की भरमार हो गई है। इस अनाधिकृत घुसपैठ से कई बोलियाँ और भाषाएँ या तो पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं या फिर विलुप्त होने की कगार पर हैं। भारतीय भाषाओं की इस स्थिति को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहल करते हुए 2015 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में ‘भारतीय भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन की आवश्यकता’ शीर्षक से प्रस्ताव पारित कर महत्वपूर्ण कदम उठाया। हालांकि, संघ अपने प्रारंभ से ही भारतीय भाषाओं के संवर्द्धन के लिए प्रयासरत है। किंतु, आज की स्थिति में भारतीय भाषाओं पर आसन्न विकट संकट को देखकर संघ ने सभी सरकारों, अन्य नीति निर्धारकों और स्वैच्छिक संगठनों सहित समस्त समाज से आग्रह किया कि वह अपनी भाषाओं को बचाने के लिए आगे आएं। इसके लिए संघ ने अपने प्रस्ताव में कुछ करणीय कार्यों एवं उपायों का उल्लेख किया है।

भारत के राजनेताओं की स्वार्थपरक नीतियों एवं संकीर्ण सोच के कारण देश का बहुत अहित हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भी हिन्दी उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक संपर्क की भाषा थी। हम चाहते तो उस समय हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान दे सकते थे। उसे राजकाज की भाषा बना सकते थे और अन्य भारतीय भाषाओं को भी यथोचित सम्मान दे सकते थे। राज्यों में उनकी भाषा और देश स्तर पर हिन्दी के प्रचलन को बढ़ा सकते थे। किंतु, हमारे औपनिवेशिक दिमागों ने यह स्वीकार नहीं किया और अंग्रेजी को ही राज-काज की भाषा बनाए रखा। भाषाओं का ऐसा झगड़ा प्रारंभ किया कि भारतीय भाषाएं अपने ही घर में आपस में एक-दूसरे के विरुद्ध हो गईं और अंग्रेजी उन सबके ऊपर हो गई। पिछले 70 वर्षों में इस भाषा नीति का परिणाम यह हुआ कि आज हमें अपनी भाषाओं को बचाने के लिए अभियान और आह्वान लेकर निकलना पड़ रहा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज भारतीय भाषाओं की चिंता नहीं कर रहा है, बल्कि उसने स्वतंत्रता के तीन वर्ष पश्चात ही हिन्दी को न केवल राष्ट्रभाषा अपितु विश्वभाषा बनाने का आह्वान किया था। दो मार्च, 1950 को रोहतक में हरियाणा प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ था। इस अवसर पर संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्रीगुरुजी’ ने जो उद्बोधन दिया था, उसका शीर्षक ही था – ‘हिन्दी को विश्वभाषा बनाना है’। अपने उद्बोधन में सर्वप्रथम उन्होंने स्पष्ट किया कि भारतीय भाषाओं का आपस में कोई कलह नहीं है। इस देश की सभी भाषाएं हमारी ही हैं, हमारे राष्ट्र की हैं। सभी समान प्रेम और आदर की पात्र हैं। उनमें छोटे-बड़ेपन का सवाल ही पैदा नहीं होता। उन्होंने यह भी स्मरण दिलाया कि परकीय आक्रमण से पूर्व हम अपनी ही भाषा में संवाद करते थे। पूर्वकाल में सब प्रकार के व्यवहार की भाषा संस्कृत थी, उसके बाद धीरे-धीरे यह स्थान प्राकृत ने लिया और इसी समय संस्कृत से विभिन्न प्रांतीय भाषाओं का जन्म हुआ। अब जब हम स्वाधीन हो गए हैं, तब स्वत: ही हमें पुन: अपनी भाषा को व्यवहार में लाना चाहिए। वर्तमान परिस्थिति में भारत के सभी प्रांतों के मध्य व्यवहार की भाषा स्वाभाविक रूप से हिन्दी हो सकती है। हिन्दी की पताका वैश्विक पटल पर फहराने के लिए इस साहित्य सम्मेलन में उपस्थित साहित्यकारों से उन्होंने आग्रह किया कि “हिन्दी विषयक प्रस्ताव पारित कर घर बैठे तो कुछ नहीं होने वाला। हमें हिन्दी को सच्चे अर्थ में सम्पन्न भाषा बनाना है। हिन्दी के विषय में प्रखर स्वाभिमान की भावना जाग्रत करनी चाहिए। अपने कर्तव्य से जगत् की सर्वश्रेष्ठ भाषाओं में उसे सन्मान्य स्थान प्राप्त करा देंगे, ऐसा विश्वास जगाना पड़ेगा… हिन्दी को उस स्थान पर पहुँचाने के लिए प्रचंड कार्यशक्ति आवश्यक है। यह कार्य सबकी एकत्रित और संगठित शक्ति से ही संभव है। इस दृष्टि से अपनी सब शक्ति इस कार्य में लगाकर हिन्दी को उसका योग्य स्थान शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करा देंगे।” हिन्दी को लेकर यह भाव हम सबके मन में होने चाहिए।

साम्यवादियों द्वारा देश में भाषा के आधार पर अलगाव के बीज बोने के जब प्रयत्न हुए तब श्रीगुरुजी ने हिन्दी विरोधी आंदोलन पर प्रश्न उठाए और एक सम्यक दृष्टिकोण समाज के सामने रखा। हिन्दी विरोध को अनावश्यक बताते हुए फरवरी 1965 में दिल्ली में उन्होंने कहा – “हिन्दी विरोधी आंदोलनकारी एवं चेन्नई के उपद्रवकारी यह नहीं सोचते कि जब अंग्रेजों ने हमें जीतकर हमारे ऊपर अपना शासन लादा, उस समय उन्होंने हम पर अपनी भाषा अंग्रेजी भी थोपी थी। आज उस थोपी हुई चीज को बनाए रखना ही थोपना है। हमें तो इस बोझ को हटाना ही होगा। अंग्रेजों के साथ ही अंग्रेजी को भी चले जाना चाहिए था।” यहाँ श्रीगुरुजी ने स्पष्ट किया कि अपनी भाषा को व्यवहार में लाना, उसे थोपना नहीं है। अपितु अंग्रेजों की थोपी हुई भाषा को बनाए रखना ही वास्तविक अर्थों में थोपना है। अपने इस भाषण में उन्होंने अंग्रेजी के कारण हो रहे नुकसान को भी बताया। स्मरण रहे कि श्रीगुरुजी की मातृभाषा हिन्दी नहीं, अपितु मराठी थी। परंतु राष्ट्र को एकसूत्र में जोड़े रखने और अपनी संस्कृति को अक्षुण्य रखने के लिए वे सबसे आग्रह कर रहे थे कि खुले हृदय से हम हिन्दी को स्वीकार करें। वे कहते हैं – “हिन्दी को स्वीकार करने में कौन-सी कठिनाई है। मैं तो मराठी भाषी हूँ, पर मुझे हिन्दी परायी भाषा नहीं लगती। हिन्दी मेरे अंत:करण में उसी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का स्पंदन उत्पन्न करती है, जिसका मेरी मातृभाषा मराठी के द्वारा होता है।”

अपने इसी भाषण में भारत की एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए श्रीगुरुजी कहते हैं – “हिन्दी का अध्ययन अपने धर्म और संस्कृति की परंपरा का ही अध्ययन है। हिन्दी का विस्तार अपने जीवन का ही विस्तार है। अत: हिन्दी को संपूर्ण भारत के जीवन की कड़ी के रूप में स्वीकार करना और उसका इस दृष्टि से विकास करना, अपने राष्ट्रीय जीवन की एकता की स्वीकृति और उसका विकास ही है। देश की भाषाओं में सर्वाधिक प्रचलित हिन्दी को यदि हम ग्रहण करके नहीं चले, तो थोड़े ही दिनों में भाषाओं के आधार पर देश के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। संविधान केवल कानून के बल पर सबको जोड़कर रखने में समर्थ नहीं होगा। अत: किसी के मन में किंचित मात्र भी देश-प्रेम है, भारतीयता की लगन है, राष्ट्रीय अस्मिता को बनाए रखने की चाह है, तो हमें परकीय भाषा का अभिमान छोड़कर, अंतर प्रांतीय व्यवहार के लिए तथा समग्र देश को एक कड़ी में बांधनेवाली भाषा के नाते हिन्दी को ग्रहण करना चाहिए।”

संघ जिस राष्ट्रीयता, भारतीयता, संस्कृति की ध्वज पताका थामकर चल रहा है, उसका महत्वपूर्ण घटक भाषा है। यह केवल हिन्दी नहीं है। हिन्दी तो समूचे हिंदुस्थान की प्रतीक है। किंतु, हिंदुस्थान की पहचान उसकी विविधता है। यह विविधता भाषाओं में भी है, बोलियों में भी। संघ उसी विविधता में एकात्म संस्कृति का प्रचारक है, इसलिए वह सभी भारतीय भाषाओं एवं बोलियों को लेकर सजग है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता और प्रचारकों ने भारतीय भाषाओं के मध्य जो स्वाभाविक संबंध विकसित किए हैं, वह सबके सामने हैं। राष्ट्रीय विचार से अनुप्राणित सभी कार्यकर्ता अपनी मातृभाषा का अभिमान रखते हुए राष्ट्रीय एकता, अखण्डता एवं विकास के लिए हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए यथासंभव प्रयास करते हैं।

भारतीय भाषाओं की वर्तमान स्थिति, उसमें बेहतरी और समस्त भारतीय भाषाओं को नजदीक लाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से वर्ष 2015 में ‘भारतीय भाषा मंच’ मंच की स्थापना भी की गई है। भारतीय भाषा मंच ने अपने उद्देश्य में 18 बिन्दु शामिल किए हैं। प्रतिनिधि सभा ने जिन आग्रहों का उल्लेख अपने प्रस्ताव में किया है, वह सब भारतीय भाषा मंच के उद्देश्यों में शामिल हैं। मंच के प्रयासों का प्रतिफल भी आ रहा है। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि प्रतिनिधि सभा ने वर्ष 2015 में भी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हेतु एक प्रस्ताव पारित किया है। उस प्रस्ताव में संघ ने जोर देकर कहा था कि प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में करने पर जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों से कटता है। वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ रहकर अपनी पहचान खो देता है। भारत को अपनी पहचान न केवल बचानी है, बल्कि जिस गुरुतर भूमिका के निर्वाहन की ओर वह बढ़ रहा है, उसके लिए भी उसे अपनी भाषाओं का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना ही होगा। संभव है कि अपनी भाषा के बिना भी वह विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दे, लेकिन वह उपस्थिति बहुत कमजोर होगी। अपनी संस्कृति को खोकर कोई भी राष्ट्र टिक नहीं सकता है। ‘एक भारत – श्रेष्ठ भारत’ और ‘नये भारत’ के निर्माण के लिए भी अपनी सांस्कृतिक तत्वों को सहेजना और उनको व्यवहार में लाना आवश्यक है।

नागपुर में आयोजित प्रतिनिधि सभा में भारतीय भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए जो आग्रह किए गए हैं, वह इस प्रकार हैं –

  1. देशभर में प्राथमिक शिक्षण मातृभाषा या अन्य किसी भारतीय भाषा में ही होना चाहिए। इस हेतु अभिभावक अपना मानस बनाएं तथा सरकारें इस दिशा में उचित नीतियों का निर्माण कर आवश्यक प्रावधान करें।
  2. तकनीकी और आयुर्विज्ञान सहित उच्च शिक्षा के स्तर पर सभी संकायों में शिक्षण, पाठ्य सामग्री तथा परीक्षा का विकल्प भारतीय भाषाओं में भी सुलभ कराया जाना आवश्यक है।
  3. राष्ट्रीय पात्रता व प्रवेश परीक्षा (नीट) एवं संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाएं भारतीय भाषाओं में भी लेनी प्रारम्भ की गयी हैं, यह पहल स्वागत योग्य है। इसके साथ ही अन्य प्रवेश एवं प्रतियोगी परीक्षाएँ, जो अभी भारतीय भाषाओं में आयोजित नहीं की जा रही हैं, उनमें भी यह विकल्प सुलभ कराया जाना चाहिए।
  4. सभी शासकीय तथा न्यायिक कार्यों में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके साथ ही शासकीय एवं निजी क्षेत्रों में नियुक्तियों, पदोन्नतियों तथा सभी प्रकार के कामकाज में अंग्रेजी भाषा की प्राथमिकता न रखते हुए भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  5. स्वयंसेवकों सहित समस्त समाज को अपने पारिवारिक जीवन में वार्तालाप तथा दैनन्दिन व्यवहार में मातृभाषा को प्राथमिकता देनी चाहिए। इन भाषाओं तथा बोलियों के साहित्य-संग्रह व पठन-पाठन की परम्परा का विकास होना चाहिए। साथ ही इनके नाटकों, संगीत, लोककलाओं आदि को भी प्रोत्साहन देना चाहिए।
  6. पारंपरिक रूप से भारत में भाषाएँ समाज को जोडऩे का साधन रही हैं। अत: सभी को अपनी मातृभाषा का स्वाभिमान रखते हुए अन्य सभी भाषाओं के प्रति सम्मान का भाव रखना चाहिए।
  7. केन्द्र व राज्य सरकारों को सभी भारतीय भाषाओं, बोलियों तथा लिपियों के संरक्षण और संवर्द्धन हेतु प्रभावी प्रयास करने चाहिए।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं)

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