मजदूरों का पलायनः आपसी समन्वय से रोका जा सकता था?
– मुरारी गुप्ता
लॉकडाउन के संकटकाल में शासन व्यवस्थाएं प्रवासी कामगारों के बीच यह भरोसा स्थापित करने में बुरी तरह विफल रहीं कि लॉकडाउन के दौरान और उसकी समाप्ति के बाद उनकी रोजी-रोटी और आजीविका पर कोई संकट नहीं आएगा। इसका परिणाम अमानवीय पलायन के रुप में सामने आया। इसे आपसी समन्वय से रोका जा सकता था। लेकिन कठिन घड़ी में समाज, स्वयंसेवी संस्थाओं और भामाशाहों के सहयोग ने प्रवासी कामगारों को राहत देने का प्रशंसनीय कार्य किया है।
कोरोना वायरस जब इतिहास में दर्ज हो जाएगा और आने वाली पीढ़ियां कोरोना वायरस के प्रकोप, भारत के इससे लड़ने की क्षमताओं, अपने नागरिकों की जीवन की सुरक्षा आदि के बारे में जब शोध करेंगी, तो इस बात की बहुत ज्यादा संभावना है कि उनके निष्कर्ष का सार यह निकले कि कोरोना वायरस के दौर में मजदूरों और श्रमिकों का पलायन मानवीय त्रासदी का चरम था। क्या हम भविष्य के इतिहास को बदलने की इच्छा शक्ति रखते हैं? श्रमिक और मजदूर किसी भी देश के विकास की रीढ़ होते हैं। उनके पसीने से मशीनों की गिरारियां गति पकड़ती हैं। क्या उन्हें यूं सड़कों पर असहाय परिस्थितियों में छोड़ा जाना चाहिए था? उनकी असहाय और लाचार मानसिक स्थिति ने उन्हें अपने कार्यस्थलों से अपने घरों की ओर जाने को विवश कर दिया। शासन व्यवस्था का भरोसा या तो उनके पास पहुंचा नहीं, और यदि पहुंचा भी तो संभव है वह ऐसा नहीं था कि उस पर विश्वास किया जा सकता था। यही कारण था कि अपने गांव और घरों से सैकड़ों मील दूर ईट भट्टों, फैक्ट्रियों, कारखानों, खेतों में काम करने वाले मजदूर अपने छोटे बच्चों को लेकर मई की तपती दोपहरों में घरों की ओर पैदल ही निकल पड़े। इस काल की, मजदूरों की दर्दभरी कहानियां भारत के सामाजिक, प्रशासनिक और राजनैतिक ताने-बाने के लिए एक गहरा शोक हैं, जिससे उबरना आसान नहीं होगा। आने वाले समय में संभव है बहुत सा साहित्य मजदूरों की कंपकंपाती कहानियों पर रचा जाए। मजदूरों की आने वाली पीढ़ियां शासन व्यवस्था से यह सवाल जरूर करेंगी कि जब हमारे पूर्वज तपती दुपहरियों में भूखे-प्यासे घरों की ओर लौट रहे थे, उस समय आपका भरोसा कहां दम तोड़ रहा था। क्या हम इस संकट काल में कामगारों का विश्वास जीतने में विफल रहे हैं?
इस त्रासद पलायन के पीछे के कारणों को समझने का प्रयास करें, तो ऐसा लगता है कि मजदूरों के पलायन में सरकारों के बीच आपसी समन्वय में कहीं न कहीं अभाव रहा है। क्या ऐसी परिस्थितियों को शासन व्यवस्थाओं के आपसी समन्वय से टाला जा सकता था? राज्य सरकारें अपने-अपने प्रदेशों में काम कर रहे प्रवासी मजदूरों और श्रमिकों के बीच यह भरोसा स्थापित करने में बुरी तरह विफल रहीं कि लॉकडाउन के दौरान और उसकी समाप्ति के बाद उनकी रोजी-रोटी और आजीविका पर कोई संकट नहीं आएगा। यहां तक कि तथाकथित पंजाब, तमिलनाडु और गुजरात जैसे विकसित राज्यों से भी लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरों ने पलायन का ही रास्ता चुना।
एक साथ लाखों मजदूरों के पलायन से निपटने में शुरुआत में सरकारों के पास कोई ठोस योजना या राहत कार्य दिखाई नहीं दिए। हालांकि बाद में केंद्र के निर्देशों के बाद उनकी व्यवस्थाएं की गईं, लेकिन तब तक लाखों मजदूर ‘जैसे हैं- जिस हालत में हैं’- पैदल ही अपने घरों की चल पड़े थे। इस संकट काल में समाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अनेक दूसरे संगठनों ने आगे बढ़कर उनकी पीड़ा कम करने का भरसक प्रयास किया।
अपने स्तर पर उनके लिए भोजन, पानी, दवाई, पदवेश और अस्थायी विश्राम की व्यवस्थाएं कीं। भामाशाहों और समाज सेवियों की सेवा के बल पर ही उनके कदम आगे बढ़ते रहे। मजदूरों का पलायन जब चरम की सीमा पर पहुंच गया, उस समय रेल और बस सेवाएं शुरू हुईं।
कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा पीड़ित वे कामगार रहे हैं जो या तो स्वरोजगार में कार्यरत थे या फिर किसी असंगठित क्षेत्र से जुड़े थे।
ऐसे लोगों का सही सही आंकड़ा प्रशासन के पास आमतौर पर नहीं होता है। न कभी प्रशासन यह प्रयास करता है कि उनके क्षेत्र में कितने मजदूर या श्रमिक अंसगठित क्षेत्रों में या स्वरोजगार में जुटे हैं। उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति क्या है। इसलिए जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई इन लोगों के सामने अपनी आजीविका और परिवार का भरण-पोषण का संकट खड़ा हो गया। उस पर कोरोना वायरस के डर ने उनकी इस मानसिकता को और मजबूत कर दिया कि कोरोना से अगर उन्हें कुछ हो भी गया तो उनके घर और गांव में उनकी अच्छे से देखभाल हो सकेगी।
श्रमिकों और मजदूरों की वित्तीय सुरक्षा की जिम्मेदारी नियोक्ताओं के साथ लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के नाते निश्चित रूप से राज्यों की भी होती है। श्रमिकों और मजदूरों के नियोक्ताओं को लॉकडाउन से पहले वेतन न काटने या कम से कम आधा वेतन देने के लिए पक्के निर्देश जारी करने की आवश्यकता थी। साथ ही यह आश्वासन भी कि इस वेतन के कम से कम आधे हिस्से का पुनर्भुगतान राज्य के स्तर पर किया जाएगा। इससे श्रमिकों को पलायन तो निश्चित ही रुकता, साथ ही नियोक्ताओं के बीच भी भरोसा पैदा होता। नियोक्ताओं को श्रमिकों, मजदूरों के भोजन, दवाई, आवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी पाबंद किया जाता, तो संभव है मजदूरों के इस अमानवीय पलायन को रोका जा सकता था।
सबसे मुश्किल परिस्थितियों का सामना प्लम्बर, मैकेनिक, रेहड़ी चलाने वाले, फल-सब्जी विक्रेता, नाई, धोबी, रिक्शा चलाने वाले, दिहाड़ी मजदूरों ने किया।
ये ऐसे काम धंधे हैं, जहां लगभग रोज कुआं खोदकर पानी पिया जाता है। श्रम बाजार के हिसाब से यह लगभग उपेक्षित वर्ग है। हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार असंगठित क्षेत्र में केवल सत्रह प्रतिशत कामगार ऐसे थे जिनके नियोक्ताओं की पहचान की जा सकती है, बाकी 83 प्रतिशत का नियोक्ता कौन है, कोई नहीं जानता। उनकी आजीविका को सुरक्षित रखने के लिए सरकार को विशेष योजना बनाने की आवश्यकता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों और श्रमिकों के लिए इस क्षेत्र में नीतिगत निर्णय लेने की आवश्यकता है।
क्या केंद्र या राज्य स्तर पर संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों और मजदूरों का कोई राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जा सकता है? यद्यपि ताजा घोषणाओं में सर्वे की बात की गई है। उस सर्वे में कितना कुछ निकलकर आएगा और उसके आधार पर उन्हें कितनी सहायता उपलब्ध करवाई जाएगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रशासन सर्वे की कार्यवाही को कितने मन और इच्छा शक्ति से करता है। एक समाधान समझ में आता है- क्या इस सर्वे के माध्यम से हम एक ऐसा स्थाई रजिस्टर बना सकते हैं जिसमें श्रमिकों की पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं की जानकारी बारीकी से अंकित हो? मजदूरों के एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास के समय इस रजिस्टर के आधार पर राज्य और केंद्र इन श्रमिकों की जानकारियों को साझा कर सकें। इससे उन्हें केंद्र और राज्य सरकारों की श्रमिक कल्याण से जुड़ी योजनाओं में जोड़ा जा सकता है। इस सर्वे के आधार पर असंगठित क्षेत्र के कामगारों को किसी न किसी ढांचे में संगठित करके उनके कल्याण के लिए कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं। कोरोना काल प्रवासी मजदूरों की जिंदगियों में एक सकारात्मक बदलाव लाने का बड़ा अवसर कैसे सिद्ध हो सकता है? देश के आर्थिक विशेषज्ञों को इस पर शोध करने की आवश्यकता है।