उपासना, कला, साहित्य व समरसता का केन्द्र है असम का माजुली नदी द्वीप व यहॉं की सत्र परम्परा

उपासना, कला, साहित्य व समरसता का केन्द्र है असम का माजुली नदी द्वीप व यहॉं की सत्र परम्परा

रामस्वरूप अग्रवाल

उपासना, कला, साहित्य व समरसता का केन्द्र है असम का माजुली नदी द्वीप व यहॉं की सत्र परम्परा

भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम में सत्र परम्परा तथा इन सत्रों के माध्यम से धार्मिक चेतना के साथ ही समाज में आए बदलाव की जानकारी कम लोगों को ही होगी। ‘सत्र’ यानि मठ जो असम के महान संत और समाज सुधारक श्रीमंत शंकरदेव तथा उनके शिष्यों द्वारा पूरे असम में ईश्‍वर की उपासना तथा वैष्णव मत के प्रचार-प्रसार के लिए स्थापित किए गए। भागवत पुराण में ‘सत्र’ शब्द का प्रयोग ‘भक्तों की सभा’ के लिए किया गया है।

श्रीमंत शंकरदेव ने 12 वर्षों तक सम्पूर्ण भारत के तीर्थों का भ्रमण करते हुए विभिन्न संतों-विद्वानों के साथ सत्संग किया था। असम लौटकर उन्होंने भागवत आधारित भक्ति का प्रचार किया तथा भगवान के नाम-कीर्तन को अधिक महत्व दिया।उनके द्वारा प्रवर्तित मत को ‘नव-वैष्णव धर्म’ की संज्ञा दी गई। लोग शंकरदेव को ‘महापुरुष’ कहने लगे थे, अतः उनके द्वारा प्रवर्तित मत को ‘महापुरुषीय धर्म’ या ‘एकशरणीय धर्म’ भी कहा गया। देवकीनन्दन कृष्ण उनके आराध्य थे।

नामघर

सत्र के साथ ही ईश्‍वर उपासना के लिए एक ‘नामघर’ होता है जहां विष्णु के विभिन्न अवतार, विशेषकर, कृष्ण के विभिन्न नाम तथा गुणों काकीर्तन किया जाता है, इसलिए उस स्थान को ‘नामघर’ कहा गया। वहां मूर्ति के स्थान पर ‘भागवतग्रंथ’ रखा जाता है। सत्र के बिना भी स्थान-स्थान पर नामघर बने हुए हैं। इन नामघरों में कीर्तन के अलावा भगवान की लीला का अभिनय, शंकरदेव द्वारा रचितग्रंथों का पाठ, अध्ययन-अध्यापन, सामाजिक विचार-विमर्श तथा उत्सवों का आयोजन किया जाता है।

सत्रीय नृत्य

सत्र केवल उपासना तथा धार्मिक चेतना के केन्द्र ही नहीं हैं, वे सांस्कृतिक, साहित्यिक, विभिन्न कलाओं तथा पुरातत्व संरक्षण के केन्द्र भी हैं। सत्रों में नृत्य की एक विधा विकसित हुई जिसे ‘सत्रीय नृत्य’ कहा जाता है। श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरु किया गया सत्रीय नृत्य भारत के आठ शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। श्रीमंत शंकरदेव जो कहना चाहते थे वह उन्होंने कला के विभिन्न रूपों यथा नृत्य, संगीत, नाटक, वाद्ययंत्र, चित्रकला, पेंटिंग व साहित्य के माध्यम से कही तथा इन्हीं माध्यमों से कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।

उपासना, कला, साहित्य व समरसता का केन्द्र है असम का माजुली नदी द्वीप व यहॉं की सत्र परम्परा

 

शंकर देव ने छुआछूत, वर्णभेद तथा बहुदेववाद का खंडन किया और कहा कि वैकुण्ठ के द्वार प्रत्येक मनुष्य के लिए खुले हैं। उन्होंने विभिन्न जातियों में बंटे असमिया समाज को एकसूत्र में बांधकर एक समरस ‘भकतिया’ (भक्त) समाज का निर्माण किया। जनता को एक सरल भक्ति मार्ग से परिचित कराया। भक्तिमार्ग के प्रचार के लिए लोकभाषा में साहित्य सृजन किया। असम के सत्र शंकरदेव के इसी समरस समाज के आराधना एवं सांस्कृतिक चेतना के केन्द्र हैं।

बड़े सत्रों के पास विशाल भूमि होती है। इनमें ब्रह्मचारी तथा गैर ब्रह्मचारी भक्त निवास करते हैं। सत्र का मुखिया ‘सत्राधिकार’ (सत्राधिकारी) कहलाता है, जिसके निर्देशन में सत्र की गतिविधियां संचालित होती हैं। इन सत्रों में किशोरवय के बालकों को वैष्णव धर्म, दर्शन व जीवन मूल्यों का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी गुरुकुल पद्धति पर रहती है।

17 वीं सदी के दौरान असम में ‘अहोम’ राजाओं के संरक्षण में बड़ी संख्या में सत्रों की स्थापना हुई। मंगोलिया की ताई जनजाति के लोग अपने मुखिया अहोम सुकपा के नेतृत्व में 1228 ई. में असम आए थे। उन्होंने तत्कालीन शासक को अपदस्थ कर ‘अहोम’ राज्य की स्थापना की। बाद में राजा सहित अधिकांश लोगों ने हिन्दू धर्म अपना लिया। विश्‍व में सम्भवतया ऐसा भारत में ही घटित हुआ जहां विजेता जाति ने विजित जाति के धर्म, दर्शन व जीवन मूल्यों को अपना लिया हो।

माजुली नदी द्वीप

असम के जोरहाट जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर दुनिया के बड़े नदी द्वीपों में से एक माजुली गत पांच शताब्दियों से असम का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र बना हुआ है। इस नदी द्वीप का निर्माण ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य हुआ। यहाँ नव वैष्णव विचारधारा के कई बड़े एवं प्रमुख ‘सत्र’ हैं।

रास महोत्सव

यहां के ‘दक्षिण पाट’ सत्र में कार्तिक पूर्णिमा (नवम्बर माह) को ‘रास महोत्सव’ मनाया जाता है जो सामान्यतया चार दिनों तक चलता है। इस दौरान लाखों की संख्या में श्रद्धालु एवं अन्य पर्यटक माजुली पहुँचते हैं।

रास महोत्सव में भगवान कृष्ण के जन्म से लेकर उनके जीवन के विभिन्न पक्षों को नृत्य नाटिका के माध्यम से दर्शाया जाता है। नृत्य नाटिका में कई प्रकार के वाद्ययंत्र, मुखौटों, पेंटिंग, संगीत व नृत्यों का प्रयोग किया जाता है। इनमें श्रीमंत शंकरदेव द्वारा रचित नृत्य नाटिका के कई रूप यथा बोरगीत, माटियाखारा, सूत्रधार, अप्सरा, दशावतार, सत्रीयकृष्ण आदि प्रमुख हैं। रास महोत्सव को असम के ‘राज्य उत्सव’ का दर्जा दिया गया है।

उपासना, कला, साहित्य व समरसता का केन्द्र है असम का माजुली नदी द्वीप व यहॉं की सत्र परम्परा

माजुली का दूसरा प्रमुख सत्र ‘समागुरी’ विभिन्न प्रकार के मुखौटों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। इन मुखौटों का प्रयोग रास-उत्सव, भावना (धार्मिक नाटक) व अन्य रंगमंचीय कार्यक्रमों में किया जाता है।

‘गरमूढ़’ सत्र में प्राचीन समय के हथियार, तोप आदि संरक्षित किए गए हैं। इस सत्र में शरद-ॠतु के अंत में पारंपरिक रासलीला समारोह भी आयोजित होता है।

 ‘आउनी आटी’ सत्र अप्सरा तथा पालनाम नृत्यों के आयोजन हेतु जाना जाता है। पुरातत्व महत्व की प्राचीन असमी कलाकृतियाँ, बर्तन, आभूषण व हस्तशिल्प का यहां संकलन किया गया है।

‘बेंगेना आटी’ सत्र का भी सांस्कृतिक महत्व है। यह विभिन्न कला-प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है। अहोम राजा स्वर्गदेव गदाधर सिंह की शुद्ध सोने से बनी पोशाक व स्वर्ण निर्मित शाही छाता यहां संरक्षित है।

‘कमलाबारी’ सत्र कला, संस्कृति, साहित्य और शास्त्रीय अध्ययन का केन्द्र है।

स्पष्ट है कि माजुली के सभी प्रमुख सत्र न केवल नव-वैष्णव धर्म के उपासना स्थल हैं जहां नृत्यनाटिका, नृत्य, संगीत, वाद्ययंत्र आदि के माध्यम से भगवान कृष्ण की आराधना की जाती है, रंगमंचीय कला के इन रूपों के साथ ही पेंटिंग्स, चित्रकला, मुखौटों सहित वैष्णव मत के साहित्य का भी भंडार यहां देखा जा सकता है। पुरातत्व महत्व की अनेक वस्तुएं, कलाकृतियां आदि यहां सुरक्षित रखी गई हैं। शंकरदेव ने अपनी साहित्य रचना वल्कल पट्ट (पेड़ की छाल वाली पट्टि) पर की थी। इन पांडुलिपियों को भी सत्रों में संभाल कर रखा गया है।

भू-कटाव की समस्या

लगभग 80 किमी लम्बे तथा 10 से 15 किमी चौड़े इस माजुली नदी-द्वीप का क्षेत्रफल कभी 1278 वर्ग किमी हुआ करता था जो अब नदी के पानी व बाढ़ से होने वाले भू-कटाव के कारण सिकुड़कर लगभग 350 वर्ग किमी तक हो गया है।भू-कटाव के कारण वैष्णव मत के इस तीर्थ क्षेत्र काअस्तित्व ही खतरे में था, जिसे रोकने की मांग बहुत पुरानी है। वर्तमान केन्द्र सरकार ने इस भू-कटाव को रोकने तथा सड़कों के निर्माण हेतु 2021 के बजट में 1075 करोड़ रुपयों की राशि का प्रावधान किया है, जिससे समस्या का निदान होने की सम्भावना है।

अपने रास महोत्सव सहित रंगमंचीय कला, पुरातत्व संरक्षण, वैष्णव साहित्य तथा वैष्णव उपासना-आराधना के लिए प्रसिद्ध इस माजुली नदी द्वीप का भी अयोध्या की तरह ‘तीर्थ क्षेत्र’ के रूप में विकास किए जाने की महती आवश्यकता है।

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