मानव
चंदन शर्मा
क्या सतयुग क्या कलयुग की तुम बातें मानव करते हो
सत्य अहिंसा मानवता पर चलने से तुम डरते हो।
जिस पौरुष पर गर्व है तुमको क्या वो है अब बीत चुका
जिस साहस पर दंभ है तुमको क्या वो है अब टूट चुका?
संकट छाया मानवता पर और तुम पाहन बनते हो
क्या सतयुग क्या कलयुग की तुम बातें मानव करते हो।
दावानल की भांति फैल रही बुराई संसार में
अत्याचारी विजय हो रहे और तुम दर्शक बनते हो।
क्या सतयुग क्या कलयुग की तुम बातें मानव करते हो।
कितनी नैतिकता रह गई है इस निर्दयी संसार में
दया धर्म विलुप्त हो रहे पाखंडों के जाल में।
मर्यादायें सारी टूटी पर तुम शर्म न करते हो
क्या सतयुग क्या कलयुग की तुम बातें मानव करते हो।
समय व्यर्थ हो रहा तुम्हारा उद्यम तुम ना करते हो
प्रयासों को करने से पहले परिणामों से डरते हो।
समय बदलता अपनी गति से पर तुम ना बदलते हो
क्या सतयुग क्या कलयुग की तुम बातें मानव करते हो।