डिड नॉट फिनिश से सिल्वर मेडल तक: सफर मीराबाई चानू का

डिड नॉट फिनिश से सिल्वर मेडल तक: सफर मीराबाई चानू का

डिड नॉट फिनिश से सिल्वर मेडल तक: सफर मीराबाई चानू का

मणिपुर की मीराबाई चानू (Mirabai Chanu) ने टोक्यो ओलम्पिक (Tokyo Olympic) के वेट लिफ्टिंग ईवेंट में 49 किलो भार वर्ग में सिल्वर मेडल (silver medal) जीतकर इतिहास रच दिया। उनका यह मेडल अब सोने में बदल सकता है क्योंकि गोल्ड मेडल प्राप्त करने वाली चीन की झिझिहू पर डोपिंग (doping) का शक है। उनका दोबारा डोप टेस्ट होगा।

मीराबाई चानू का यहॉं तक का सफर आसान नहीं रहा। कुछ लोग कहते हैं कि यदि जीवन में सफलता चाहिए तो काम अपनी रुचि और पसंद का करना चाहिए। लेकिन मीराबाई चानू ने अपनी सफलता से यह सिद्ध कर दिया है कि जो भी काम करो, उसी को रुचि के साथ करो तो सफलता स्वयं आपके कदम चूम लेगी। मीराबाई चानू का बचपन में तीरंदाज बनने का सपना था, लेकिन जब अकैडमी में तीरंदाजी क्या प्रशिक्षक नहीं मिला तो भारोत्तोलन (weight lifting) की ओर रुचि जगाकर ऐसी आगे बढ़ीं कि आज ओलंपिक खेलों में सिल्वर मेडल जीतकर देश में भारोत्तोलकों की आदर्श बन गईं।

मीराबाई चानू जब छोटी थीं तो घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वो अपने भाई बहनों के साथ जंगलों से लकड़ियां लाया करती थीं। लकड़ियों के गट्ठर उठाते उठाते कब मीराबाई में एक असामान्य प्रतिभा जाग गई, उन्हें भी पता नहीं चला और मात्र 12 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने जीवन का पहला पदक जीत लिया। सत्य ही है – श्रमेव जयते – परिश्रम की सदा जीत होती है।

मीराबाई के भाई ने एक इंटरव्यू में बताया कि पैसा नहीं होने के कारण मीराबाई को किसी जानकार के ट्रक में बैठाकर ट्रेनिंग सेंटर के लिए भेजा जाता था। मीराबाई इससे कभी निराश नहीं हुईं। देश के लिए एक से बढ़कर एक उपलब्धि अपने नाम करने वाली मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलिंपिक 2020 में 49 किलोग्राम भार वर्ग प्रतियोगिता में सिल्वर मेडल जीतकर 21 वर्षों के इंतजार को खत्म कर दिया। 21    वर्ष पहले कर्णम मल्लेश्वरी ने ब्रॉन्ज जीतकर भारत को यह गौरव प्रदान किया था।

सामान्यतया लोग सफल व्यक्तियों की अनुकूलता को तो देखते हैं। लेकिन उनके संघर्ष के लंबे इतिहास को भूल जाते हैं। रिओ ओलंपिक 2016 में यही मीराबाई एक बार भी सही तरीके से वेट नहीं उठा पाई थीं और तब उनके नाम के आगे – ‘डिड नॉट फिनिश’ लिखा गया था। यही वेट इससे पहले उन्होंने कई बार आसानी से उठाया था। लेकिन वह दिन उनका नहीं था। रातों-रात मीराबाई मेडल नहीं जीतने पर बस एक आम एथलीट रह गईं। इस हार से वे डिप्रैशन में गईं और उन्हें साइकेट्रिस्ट का सहारा लेना पड़ा।

किसी प्लेयर का मेडल की रेस में पिछड़ जाना अलग बात है और क्वालिफाई ही नहीं कर पाना दूसरी। इस घटना ने एक बार तो मीरा का मनोबल तोड़ दिया था, लेकिन ईश्वर पर भरोसे के साथ दुगनी मेहनत से उन्होंने अपना प्रयास पुनः शुरू किया और अगले ही वर्ष 2017 में मीराबाई वर्ल्ड वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय वेटलिफ्टर बन गईं। इसके बाद 2018 कॉमनवेल्थ गेम्स में उन्होंने गोल्ड और अब ओलिंपिक में सिल्वर मेडल जीता है। इससे सिद्ध होता है कि असफलता भी सफलता की ही एक सीढ़ी है।

सफलता के अनेकों सोपान चढ़ने पर भी चानू विनम्र और आस्थावान हैं। 2018 में भारत सरकार द्वारा किये गए सहयोग का स्मरण करते हुए चानू बताती हैं, “उस समय भारत सरकार का पूरा सपोर्ट मिला। इलाज के लिए मुझे अमेरिका भेजा गया। इसके बाद मैंने न केवल फिर से वापसी की, बल्कि अपने करियर का सबसे ज्यादा वजन उठाने में भी सफल हुई।”

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