मीसा की कलुष स्मृतियाँ

मीसा की कलुष स्मृतियाँ

डॉ. विकास दवे

मीसा की कलुष स्मृतियाँमीसा की कलुष स्मृतियाँ

25 जून का दिवस प्रतिवर्ष हमें स्मरण कराता है भारतीय राजनीतिक इतिहास के एक ऐसे काले अध्याय का, जब पूरे भारत में संविधान को ताक में रखकर इस देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने अहंकार की तुष्टि के लिए आपातकाल लगा दिया था। जी हां हम चर्चा कर रहे हैं आपातकाल यानी इमरजेंसी की, इमरजेंसी अर्थात मीसा की और मीसा यानि मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट अर्थात आंतरिक सुरक्षा अधिनियम की।

25 जून 1975 से लेकर 21 मार्च 1977 यानि पूरे 21 माह तक पूरा भारत एक महिला की जिद और अहंकार की भेंट चढ़ कर रह गया था। इस दौरान आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत संपूर्ण भारत में 34986 राष्ट्रभक्त कार्यकर्ताओं को नजरबंद कर दिया गया था। मध्य प्रदेश में ही नजरबंद किए गए लोगों की संख्या 5620 थी। इतना ही नहीं, इस कानून के अंतर्गत देशद्रोह का आरोप लगाकर पूरे भारत में 75,818 और मध्य प्रदेश में 2,521 राष्ट्रभक्त नागरिकों को जेल में ठूंस दिया गया था।

मेरे साथ भी इस विषयक अनेक स्मृतियां हैं, जो विचलित करती हैं। परंतु मुझे उन घटनाओं की गंभीरता तब इसलिए अधिक पता नहीं चली क्योंकि वह मेरा बचपन का समय था। हालांकि तब की कुछ कठोर स्मृतियां मुझे आज तक सिहरा देती हैं।किंतु इस समय मैं बात कर रहा हूं, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून अर्थात देशद्रोह में बंदी बनाए गए व्यक्तियों की। विगत दिनों मध्यप्रदेश के नीमच में एक विधि महाविद्यालय की अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में सहभागिता के लिए मेरा जाना हुआ। स्वाभाविक रूप से अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में अनेक पूर्व न्यायाधीश वरिष्ठ अधिवक्ता और विधि के विशेषज्ञ सम्मिलित थे। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित नीमच के एक अत्यंत श्रद्धेय सज्जन जब उद्बोधन देने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को खंगालते हुए माइक पर जब यह कहा कि मुझे आपातकाल के समय टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर भारत सरकार की टेलीफोन लाइनें काटने के आरोप में जेल में निरुद्ध किया गया था, तो उनके इस कथन को सुनकर वर्ष 2020 में युवा हो गई पीढ़ी को घोर आश्चर्य हुआ। बाद में अनेक युवाओं ने इतने वरिष्ठ व्यक्ति के इतने घिनौने आरोप में बंदी होने संबंधी अनेक जिज्ञासाएं प्रकट कीं और उन्होंने सब का समाधान भी किया।

वास्तव में आज की पीढ़ी इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती कि उन 21 महीनों में पूरे भारत में खामोशी, श्मशान जैसे सन्नाटे, अत्यधिक निराशा और अज्ञात भय में जी रहे राष्ट्र भक्तों को किस मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ा था। यह तो देश का सौभाग्य था कि भारत में जयप्रकाश नारायण जैसा एक बुजुर्ग राजनेता था, जिसने युवाओं और छात्रों को जगा कर तत्कालीन सरकार के विरुद्ध समग्र क्रांति का नारा देकर खड़ा कर दिया था। उस युग के छात्र आंदोलन की परिणति के रूप में इस देश को अनेक युवा राजनीतिज्ञ प्राप्त हुए। जिनमें चंद्रशेखर, लालू प्रसाद यादव और शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता सम्मिलित हैं।
उसी आंदोलन से राजनीतिक क्षेत्र में प्रकट हुए और ध्रुव नक्षत्र बने अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी और समकालीन अनेक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ बाद में राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बन कर उभरे। आपातकाल को हटाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों का त्याग, पूर्ण सहभाग इस पूरे आंदोलन की एक अनकही कहानी है। उस युग में संघ का प्रत्येक कार्यकर्ता प्राण अर्पित कर देने के भाव से इंदिरा गांधी के द्वारा लादे गए इस काले कानून के विरुद्ध डट कर खड़ा हो गया था। केंद्र में जहां जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोकतंत्र सेनानी को अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता की याद दिलाते हुए लोहे की जंजीरों से जकड़ा गया, रेल के इंजन से बांधा गया, ठीक उसी तर्ज पर पूरे भारत में इस आंदोलन में सहभाग करने वाले मीसा बंदियों के साथ जो क्रूरता पूर्ण व्यवहार हुए उनके विषय में चर्चा करते समय रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

आपातकाल की पूर्व पीठिका को अगर हम देखें तो ध्यान में आता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया गया था। तत्कालीन राजनेता स्वर्गीय राजनारायण ने यह याचिका लगाई थी और न्यायालय ने यह माना कि इंदिरा गांधी ने भ्रष्ट आचरण करके चुनाव जीता है। न्यायालय ने सत्ता के दुरुपयोग के पुख्ता प्रमाण होने पर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद छोड़ने का आदेश दे दिया, किंतु सत्ता के दुरुपयोग के अभ्यस्त नेतृत्व ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आपातकाल लगवा दिया। 25 और 26 जून की उस मध्य रात्रि में गिरफ्तारियों का एक ऐसा भयावह बवंडर चला कि पूरा भारत एक खुली जेल में बदल गया। देशद्रोह के मुक़दमों की बाढ़ सी आ गई। समाचार सेंसर होने लगे। अखबारों पर प्रतिबंध लगने लगा। संवाददाता से लेकर संपादक तक और अखबारों के मालिकों तक हर कोई तत्कालीन प्रधानमंत्री के उस क्रूर कानून का शिकार होने लगा। रेवा प्रकाशन लिमिटेड के ‘स्वदेश’ जैसे समाचार पत्र तो इस कुचक्र के ऐसे शिकार हुए कि भृत्य से लेकर संपादकों तक और प्रबंधन मंडल के एक-एक सदस्य तक को जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर ताले पड़ गए। माणिक चंद वाजपेई के मुख से हमने अनेक बार उस युग के भयावह प्रसंग सुने थे। अपनी अर्धांगिनी से उनका जीवन भर का विछोह इस आंदोलन के प्रसाद स्वरूप ही उन्हें प्राप्त हुआ।

कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर पूरे भारत की पुलिस एक प्रकार से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का ही दायित्व निभा रही थी। विधि के सारे नियम ताक पर रखकर इसी लूट, खसोट, हिंसा, हत्या, क्रूरता, बर्बरता, दमन, आतंक और भय का ऐसा नंगा नाच चला कि उसे देखकर मुगलों की यातनाएं शर्मसार हो गईं, अंग्रेजों के कारागार भी पानी मांग गए। कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत की एक महिला प्रधानमंत्री देशभक्त नागरिकों के साथ इतना क्रूर आचरण कर सकती है। केवल जेल में बंद कर देने मात्र से आज की पीढ़ी अनुमान नहीं लगा सकती कि वह जेल कितनी भयावह रही होगी। आज राजनीतिक कैदियों को जेलों में टीवी, अखबार, सुस्वादु भोजन, बढ़िया आरामदायक बिस्तर और मुंह मांगी सुविधाएं प्राप्त होती हैं, किंतु आपातकाल में इन राजनीतिक कैदियों को हत्या, लूट जैसे जघन्य अपराधों में बंद कैदियों से भी बदतर यातनाएं दी गई थीं।

उफ्फ!! वो अव्यक्त वेदना
उस युग में आपातकाल के मीसा बंदियों के मुख से सुने हुए अनेक प्रसंग आज भी मेरे शरीर में झुरझुरी पैदा कर देते हैं। जेल की नारकीय जिंदगी को संक्षेप में समझाएं तो इन कैदियों को मोटे मोटे सरियों वाली छोटी-छोटी अंधेरी कोठरी में बंद कर रखा जाता था, जिसे 12 ताड़ी गेट की कैद कहा जाता था। छोटी छोटी दुर्गंध मारती खोलियों में प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। रात्रि में यदि लघुशंका या शौच के लिए जाना हो तो उसी बैरक में एक खड्डा नुमा खुले स्थान पर निवृत होना होता था। जो दो कंबल बिछाने और ओढ़ने के लिए दिए जाते थे, वे इतने गंदे होते थे कि उन्हें बिछाना और ओढ़ना कांटों पर सोने से कम नहीं होता था। सैकड़ों खटमल उन निरपराधों का खून रात भर चूसते रहते थे। यदि रात्रि में स्वास्थ्य खराब हो जाए तो उपचार की कोई व्यवस्था नहीं। प्रातःकाल उठकर जिस सार्वजनिक शौचालय में शौच हेतु जाना होता था, उनमें दरवाजे केवल आधी ऊंचाई के होते थे। बाहर हौदी से जिस डिब्बे को पानी भरकर ले जाना होता था, उसमें जानबूझकर छेद कर दिए जाते थे। इस कारण शौचालय में पानी समाप्त होने से पहले ही बाहर निकलना अनिवार्य हो जाया करता था। विद्यार्थियों को पढ़ने की कोई व्यवस्था नहीं दी गयी थी। इसलिए अत्यंत युवावस्था के विद्यार्थी अपनी पढ़ाई से वंचित हो गए और उनकी इस पढ़ाई का छूटना जीवन भर के लिए अभिशाप बन गया। पत्र तक सेंसर होते थे। पहले जेलर हर पत्र को पढ़ता फिर ही वह डाक में जाता था। समाचार इन राजनीतिक बंदियों के सामने ही जब रोटी बनाने के लिए आटा निकाला जाता था तो उसमें बड़ी संख्या में धनेरिये तैरते दिखाई देते थे और जघन्य अपराधों के कैदी इनकी आंखों के सामने ही उस आटे में पानी डालकर रोटियां बनाना शुरु कर देते थे। कच्ची पक्की रोटियों को सेंक कर एक लगभग दुर्गंध मारते सड़े हुए कंबल पर फेंका जाता था, जिससे उस कंबल के बाल रोटियों पर चिपक कर थालियों तक की यात्रा संपन्न कर लेते थे। लेकिन इन सब यातनाओं को हम जेल की बड़ी यातनाएं न समझें क्योंकि जघन्य घटनाओं का विवरण इन छोटी छोटी यातनाओं की तुलना में बहुत अधिक दुखद है। जेल से छूटने के बाद जघन्य यातनाओं के प्रभाव की यदि हम चर्चा करें तो केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा। उत्तर प्रदेश के एक कार्यकर्ता के दोनों पैर मोड़कर और दोनों हाथ जोड़कर कोहनी और घुटनों के बीच से एक मोटा डंडा निकाल कर इस ढंग से फंसा दिया गया था कि यदि वह लुढ़क भी जाए तो पुनः बैठ नहीं सकता था। इस अवस्था में उनको इतने लंबे समय तक रखा गया कि जेल से छूटने के बाद उनके पैरों को सीधा करने के लिए उनके परिवार को उन्हें पलंग पर लिटा कर उनके पैरों में भारी भारी पत्थर बांधकर लटकाने पड़ते थे। हालत यह थी कि जैसे ही वे पत्थर उनके पैरों से खोल दिए जाते थे, उनके पैर फोल्ड हो जाते थे और घुटने ठोड़ी से लग जाते थे। यह तो केवल एक सामान्य सा उदाहरण है। इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकरण ऐसे थे, जिनका विवरण देते समय आत्मा कांप जाती है। राजनीतिक बंदियों को बर्फ पर रात रात भर लिटा कर रखना, उनकी हथेलियों पर कुर्सी के पाए रखकर भारी वजन वाले 2-3 पुलिस कर्मचारियों को बैठाना, गुदाद्वार में मोटे डंडे डाल देना और रक्त स्राव होने पर उसमें नमक और मिर्ची लगा देना, 36 घंटे इन कार्यकर्ताओं को प्यासा रखना और पानी मांगने पर उनके मुंह में थानेदार द्वारा मूत्र विसर्जन कर देना इस तरह के घटनाक्रम 10-20 और सैकड़ों की संख्या में नहीं थे अपितु हजारों में थे। अनेक प्रसंग तो कार्यकर्ता गण ठहाकों के साथ सुनाते थे, किंतु उन से पैदा हुए कष्ट की कल्पना हम आज नहीं कर सकते। ऐसे भयावह हादसों के कारण अनेक कार्यकर्ताओं के परिजन बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो गए। कहीं कॉंग्रेस के लोगों ने संघ और राष्ट्रभक्त कार्यकर्ताओं को सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित करते हुए उनके बाल मुंडवाकर गंजा कर दिया। कहीं संघ के स्वयंसेवकों के नाम पते पूछने के लिए परिवार के लोगों के हाथ पैर तोड़ दिए गए तो किसी की दाढ़ी मूछें मुंडा दी गईं।

समाज का प्रतिरोध प्रत्येक स्तर पर इस ढंग से चल रहा था कि आपातकाल का विरोध करने के लिए लोग किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। ग्वालियर का एक प्रसंग तो इस साहस को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। हम सब जानते हैं कि ग्वालियर का तानसेन समारोह संगीत का विश्व प्रसिद्ध कार्यक्रम होता है। आपातकाल के दौर में तत्कालीन नेतृत्व के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करने के लिए चलते तानसेन समारोह के मंच पर ग्वालियर के एक युवा कार्यकर्ता सुभाष गोयल मंच पर चढ़ गए और आपातकाल मुर्दाबाद, इंदिरा गांधी मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे। पुलिस ने उन्हें पकड़कर इतना पीटा कि उस नौजवान की मृत्यु हो गई।
उस संघर्ष ने कार्यकर्ताओं का साहित्यबोध भी जागृत कर दिया था। मुझे स्मरण आता है स्वर्गीय हरिभाऊ जोशी ने उस युग में एक कविता लिखी थी-
मैं समर्पण के लिए उत्सुक
यहां पर मांग लो कितना लहू तुम मांगते हो
आज सत्ता के नशे में चूर हो
तुम बुद्धि से हर तरफ से ही दूर हो तुम
न्याय की तुमने उड़ाई धज्जियां
दंभ से अन्याय से भरपूर हो तुम
यह न समझो सत्य आवाज मेरी
झूठ के आक्रोश में तुम दाब दोगे
और कारागार में बंदी बनाकर
क्रांति के बढ़ते चरण तुम बांध दोगे
मत समझना यह समर्पण हार है
तोल लूं कितना करारा वार है
विश्व देखेगा समय के पृष्ठ पर
स्वाभिमानी रक्त की यह धार है
भूलना मत यह नशा महंगा पड़ेगा
दंभ का मस्तक यहां गहरा पड़ेगा।

मुझे इस बात का आश्चर्य होता है कि ये जो कार्यकर्ता उस युग में इतने ओजयुक्त गीत और कविताएं लिख रहे थे, उनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। फिर भी उनकी कविताओं के स्वर मुझे स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के स्वर से मिलते जुलते प्रतीत होते हैं। वास्तव में इसी घनीभूत पीड़ा को लोकतंत्र सेनानियों ने अपनी पंक्तियों में प्रकट किया था। ये गीत और कविताएं स्वयंसेवकों को अपना सर्वस्व समर्पण कर देने की प्रेरणा दे रहे थे। अनेक सेनानियों की स्मृतियां आज भी आंखें भिगो देती हैं। इन देशभक्तों के बलिदान की संख्या पूरे भारत में बहुत बड़ी है। उत्तर प्रदेश में 26, मध्य प्रदेश में 16, बिहार में 15, महाराष्ट्र में 14, पश्चिम बंगाल में 11, कर्नाटक में 8, केरल में 6, पंजाब में 6, दिल्ली में 4, असम में 2, गुजरात में 2, हिमाचल में 2, जम्मू कश्मीर में 2, राजस्थान में 2, चंडीगढ़ में 1, और तमिलनाडु में 1 कार्यकर्ता के हुतात्मा होने के समाचार उन दिनों प्राप्त हुए थे। दुर्भाग्य यह कि इतने बड़े प्रत्यक्ष नरसंहार की दोषी को कभी इसका दंड नहीं मिला।

आज की पीढ़ी के लोगों को यह लग सकता है कि कारावास से बाहर आने के बाद आखिरकार इन कार्यकर्ताओं की मृत्यु क्यों हुई होगी? इस प्रश्न के समाधान के लिए हम सबको आपातकाल का काला इतिहास विस्तार से पढ़ना चाहिए। जेल के अंदर किसी कार्यकर्ता को सीधे बिजली के झटके दिए गए तो किसी कार्यकर्ता के मूत्र विसर्जन के स्थान पर 10-10 किलो के पत्थर लटका दिए गए। भयावह पिटाई के दृश्यों का विवरण बताता है कि एक साथ 15 -15/ 20 – 20 संतरी कार्यकर्ताओं को लगातार बेंतों और लाठियों से पीटा करते थे। खून से लथपथ हो जाने और बेहोश हो जाने का भी उन पर कोई असर नहीं होता था। किसी के दांत टूटते थे तो किसी का सिर फट जाता था। 16- 16 और 18-18 टांके आना सामान्य बात हुआ करती थी।

आपातकाल को हटाने के लिए जेल में बंदी बने स्वयंसेवकों के अतिरिक्त बाहर भूमिगत रहकर उस संघर्ष को परवान चढ़ाने वाले कार्यकर्ताओं का योगदान भी अपने आप में अद्भुत रहा। सरकार के विरुद्ध भूमिगत रहकर संघर्ष करने वाले अनेक कार्यकर्ताओं के स्मृति प्रसंग आज भी मुझे रोमांच से भर देते हैं। मैं रतलाम जिले के एक छोटे से स्थान आलोट का निवासी हूं। मुझे आज भी स्मरण आता है कि उस समय आलोट के अनेक कार्यकर्ता व मेरे पिताजी भूमिगत रहकर इस पूरे आंदोलन को सक्रिय रखने के दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। पिताजी क्षिप्रा नदी के किनारे ग्रामों और जंगलों में भटककर कार्यकर्ताओं से देर रात अंधेरे में मिलते थे। मेरी अत्यंत बाल्यकाल की भयावह स्मृतियों में आज भी वे दृश्य दौड़ने लगते हैं, जिनमें लावरे सरनेम वाले एक थानेदार का आगमन हमारे घर में बगैर समय देखे होता था। पिताजी को गिरफ्तार करने के लिए वह थानेदार केवल दिन में ही नहीं बल्कि कई बार मध्य रात्रि में भी अचानक आकर पूरे घर का सामान बिखेर दिया करता था। एक-एक कोठी, एक-एक पेटी को वह खोल खोल कर सारा सामान पूरे घर में फैला जाता था। इतना ही नहीं, हम बच्चे जब भोजन कर रहे होते थे तो वह आकर हमारी भोजन की थालियों को लात मारने से भी नहीं हिचकता था। उस भयावह दौर में भूमिगत रहकर सरकार के विरुद्ध पर्चे बांटने और रात्रि के अंधकार में सरकारी कार्यालयों की दीवारों पर पोस्टर चिपकाना तथा साइक्लोस्टाइल से छोटे-छोटे पत्र तैयार करके घर घर में फेंक कर आने जैसे काम ये सारे भूमिगत कार्यकर्ता कर रहे थे।

पीड़ित परिवारों के अनेक प्रसंग तो आज भी हमें द्रवित कर देते हैं। जबलपुर की पूर्व सांसद जयश्री बनर्जी और उनके पति को जब गिरफ्तार किया गया, तब उनका बेटा दीपांकर मात्र 4 वर्ष का था। हम कल्पना कर सकते हैं एक महिला प्रधानमंत्री सहज मातृत्व के उस भाव को भी पहचान नहीं पाई और यातनाओं के कारागार में इन सब कार्यकर्ताओं को डालती रही। कुछ युवाओं को तो विवाह की वेदी पर से दूल्हे के वेश में ही उठाकर कारागार में डाल दिया गया। सुसनेर के गिरिराज शरण शर्मा जो कि अधिवक्ता थे, उनके साथ हुआ यह घटनाक्रम इस बात को सिद्ध करता है कि उस युग की सरकार ने तानाशाही का कोई तरीका छोड़ा नहीं था। भूमिगत आंदोलन के सेनानियों में कुशाभाऊ ठाकरे के साथ प्यारे लाल खंडेलवाल, नारायण प्रसाद गुप्ता, मोरेश्वर रावजी गदरे, कैलाश नारायण सारंग, हरि मोहन मोदी जैसे अनेक कार्यकर्ता लगातार संघर्ष कर रहे थे। नारायण प्रसाद गुप्ता बताते रहे कि वह पायजामा और बनियान पहने 3 दिन तक कार्यकर्ताओं के घरों के दरवाजे खटखटाते रहे किंतु हर घर से बच्चे बाहर निकल कर एक ही बात कहते थे पापा जेल में हैं। परिचय के अभाव में आखिर इन भूमिगत कार्यकर्ताओं को कहाँ ठौर मिलता?

वास्तव में इन संघर्षों की दास्तानें जितनी संख्या में लिखी जानी चाहिए थीं उतनी संख्या में लिखी नहीं गईं, फिर भी साहित्य क्षेत्र में होने के कारण इस अवसर पर मैं साहित्यकारों के साथ उन सभी कार्यकर्ताओं को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने अपनी लेखनी इस आपातकाल के विरुद्ध उठाई थी। नागार्जुन की “जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां लोकतंत्र की” माधव शंकर इंदापुरकर द्वारा लिखित “आपातकाल इतिहास का काला पन्ना” केपी सिंह द्वारा लिखित “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बनाम लोकतंत्र प्रहरी” गुलशन सेठिया का आलेख “आपातकाल एक प्रशिक्षण वर्ग” पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जी द्वारा लिखित “अरे यह तो सत्य की लड़ाई है” शरद यादव द्वारा लिखित “इस देश में कोई हिटलर नहीं बन सकता” से लेकर रामलीला मैदान में सस्वर गाया गया रामधारी सिंह दिनकर का गीत “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” तक का उल्लेख करते हुए ऐसे सभी लेखनीधर्मी कार्यकर्ताओं को इस आलेख के माध्यम से मैं अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूं। वास्तव में आपातकाल के इस अंधेरे युग के प्रसंगों को लिखना बड़ा कठिन कार्य है। इन सबको लिखने के लिए कलम में स्याही के साथ अपने खारे आंसुओं को मिलाना पड़ता है। आपातकाल की स्मृतियों को एक बार पुनः स्मरण कराने का तात्पर्य केवल इतना है कि नई पीढ़ी जान सके कि आज वर्ष 2024 में टीवी चैनलों पर और अखबारों में बड़े-बड़े लेख लिख कर अथवा प्रेस वार्ताओं को आयोजित करके कांग्रेस के जो नेता आज केंद्रीय नेतृत्व पर हिटलर होने का आरोप मढ़ते हैं और बोलने की स्वतंत्रता छीनने का गंदा आरोप लगाते हैं, उन्हें अपना स्वयं का यह घृणित इतिहास पढ़ लेना चाहिए। बोलने की स्वतंत्रता छीनना, प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करना और निरपराध नागरिकों को क्रूर यातनाएं देना क्या होता है, यह जानना है तो कांग्रेसियों को इमरजेंसी की यादें ताजा कर लेनी चाहिए। इन शब्दों की वास्तविक परिभाषाएं उन्हें सहज रूप से समझ आ जाएंगी।

(निदेशक साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश
व प्रख्यात बाल साहित्यकार, मानद् सम्पादक देवपुत्र )

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