मुस्लिमों का तुष्टीकरण तो सेक्युलरिज्म लेकिन हिन्दुओं की बात करना भी साम्प्रदायिकता
मीनाक्षी आचार्य
तुष्टीकरण की राजनीति से आज देश का वातावरण बद से बदतर होता जा रहा है। आगजनी, लूटपाट, हत्या व बलात्कार का सिलसिला भयानक मोड़ ले रहा है। आज बंगाल में चीखते चिल्लाते अपने प्राणों की भिक्षा मांगते हिन्दू देखे जा सकते हैं, लेकिन जैसे ही इन लोगों की पीड़ा बताने के लिए कलम चलती है तो दूर-दूर से एक ही आवाज सुनाई देती है गोदी मीडिया गोदी मीडिया। न जाने क्यों जब लेखनी सिर्फ और सिर्फ ऐसे लोगों का दुख दर्द बयां करना चाहती है तो धिक्कार भरे शब्दों से आम जनता भी सोशल मीडिया में हमारा मजाक बनाती है और मारपीट, हिंसा, आगजनी, लूटपाट और दुष्कर्म भी गोदी मीडिया जैसे शब्दों के नीचे दबकर रह जाते हैं। आखिर क्यों? यदि हम हिंदू पर अत्याचार की व्याख्या करते हैं तो गोदी मीडिया, लेकिन हम जब मुस्लिम पीड़िता के बारे में लिखते हैं तो हम मसीहा बन जाते हैं। हमें अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक नाम, शोहरत, पैसा व पुरस्कार सभी कुछ मिलता है और साथ ही साथ हम रातों रात स्टार लेखक बन जाते हैं। हम धर्मनिरपेक्ष पत्रकार कहलाते हैं क्योंकि हम कथित अल्पसंख्यकों के हितैषी बन जाते हैं। लेकिन यदि हम मानवता के नाम पर हिंदू पीड़िता की बातें करते हैं तो हमें तिरस्कृत किया जाता है। सरकारें भी तुष्टीकरण की राजनीति के लिए एक दूसरे पर आरोप लगाती रहती हैं।
आज एक अजीब सा माहौल है। हिंदू धर्म की बात करने वाला पत्रकार, कार्यकर्ता व समर्थक भय का अनुभव करता है। जब एक पत्रकार हिंदू विचार के लिए, हिंदू पक्ष के लिए कुछ खुलकर लिखना चाहता है तो उसे जान से मारने की धमकियां मिलती हैं और उस विचार का शासन संरक्षण देने के बजाय चुप्पी साधे रहता है। आज राष्ट्रीयता के विचार के पत्रकारों, धार्मिक जगत के नेतृत्व, राष्ट्र के ओजस्वी विचारकों को केवल और केवल भय का परिवेश मिल रहा है, जबकि झूठी धर्मनिरपेक्षता का भोंपू बजाने वाली पार्टियां तुरंत ही टुकड़े टुकड़े गैंग के पत्रकारों और विचारकों को ना केवल पद प्रतिष्ठा व पुरस्कार से सम्मानित करती हैं अपितु संकट की घड़ी में न्याय दिलाने के लिए सेक्युलर छाप वकीलों की लाइन तक लगा देती हैं। आज पारम्परिक मीडिया के पत्रकारों, विचारकों, कार्यकर्ताओं को न केवल लोगों के आरोप झेलने पड़ते हैं, अपमान भी सहना पड़ता है। कभी कभी तो जान से मारने की धमकियां भी मिलती हैं। कथित गोदी मीडिया के विरुद्ध फतवे निकाले जाते हैं। आज एक हिंदू कार्यकर्ता अपनी जान पर खेलकर भारत के हित की बात करता है, समर्थन की बात करता है, लेकिन साथ में कार्यकर्ता अपनी जान की सुरक्षा व जान चली जाए तो पीछे परिवार की व्यवस्था चाहता है। धार्मिक विधि विधान सम्पन्न करवाने वाला व्यक्ति भी शासन से मानधन की अपेक्षा करता है। कोविड-19 काल में मंदिरों के पुजारियों का जीवन दिन प्रतिदिन कष्टमय होता जा रहा है, लेकिन अपने आप को हिंदू समाज का हितैषी बताने वाली पार्टी आज तक पुजारियों के पक्ष में नहीं खड़ी हुई है। किसी ने पुजारियों की जीविका के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं क्योंकि उन्हें डर है कि उन्हें हिंदुओं का हितैषी मान लिया जाएगा। लेकिन जब राज्य सरकारें मौलवियों की तनख्वाह बांध सकती हैं तो पुजारियों को इससे वंचित क्यों रखा गया है? क्या भाजपा पर इसके लिए दबाव नहीं डालना चाहिए? क्या हमें सिर्फ दूसरी पार्टियों द्वारा किए जा रहे तुष्टीकरण की आलोचना ही करते रहना चाहिए? हम कब तक उनकी बुराई करते रहेंगे? अब समय आ गया है कि गोदी मीडिया का तमगा मिलने पर भाजपा को गोदी में आने वाले पत्रकारों और कार्यकर्ताओं का निस्संकोच, तन मन धन और न्यायिक प्रक्रिया से साथ देना चाहिए। हिंदू पुजारियों को भी जीविका के लिए सम्मान स्वरूप एक धनराशि निर्धारित की जानी चाहिए। मंदिरों के पुजारियों की सहायता करना पक्षपात की राजनीति नहीं है। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास में यह भी शामिल है।