मेवाड़ के सपूत वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप
महाराणा प्रताप जयंती/ज्येष्ठ शुक्ल तृतीय / 2 जून
अजय दिवाकर
मेवाड़ के सपूत वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप
स्वतन्त्रता भारतीय राष्ट्र का अनन्तकाल से चरम आदर्श रहा है और इस स्वतन्त्रता के लिए भारत और यहां की संतानों ने बड़े से बड़ा मूल्य चुकाने में कभी संकोच नहीं किया। कह सकते हैं स्वतन्त्रता भारतीय राष्ट्र जीवन की मूल प्रेरणा में रचा-बसा शाश्वत और सनातन तत्व है। जिसकी रक्षार्थ भारत की संतानों ने संघर्ष व युद्ध को सहस्राब्दियों तक अनवरत जारी रखा। भारत के ज्ञात इतिहास में इसका सबसे प्रखर अनुभव आक्रमणकारी और कथित विश्व-विजेता सिकन्दर का है। वह भारत की सीमा को छूते-छूते सिंधु तट पर आया था और वह अनुभव इतना तीखा व तीव्र था कि कथित विश्व विजेता का सम्पूर्ण पृथ्वी पर अधिकार का स्वप्न ना केवल भंग हुआ बल्कि भारतीय वीरों के तीरों से छलनी हुए उसके शरीर का भी शीघ्र ही अंत हुआ और मैदान छोड़ भागते हुए उसकी विशाल सेना को पहली बार विश्व ने देखा।
स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष की भारत की उसी सनातन, पुरातन और गौरवशाली परम्परा में राणा प्रताप के जनयुद्ध का इतिहास स्वर्णाक्षरों से मण्डित हुआ है। राणा प्रताप के नेतृत्व में लड़े गए इस महान युद्ध के पग पग पर भारतीय जीवन-मूल्यों का दर्शन हमें होता जाता है और इस प्रकार मेवाड़ का यह संघर्ष विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध राष्ट्रीय महायुद्ध का स्थान सायास प्राप्त कर लेता है।
राणा प्रताप के नेतृत्व में अकबर जैसे क्रूर और बलवान विदेशी आक्रमणकारी से लड़े गए मेवाड़ के इस युद्ध की प्रेरणा राष्ट्रीय थी और सत्य, न्याय व ईश्वर के साक्ष्य में यह युद्ध लड़ा गया था। मेवाड़ का एक-एक बच्चा इस युद्ध का सैनिक था और नारी शक्ति भी इस युद्ध में स्वयं जगदम्बा रूप में खड्ग धारण कर शत्रुओं पर काल बनकर टूट पड़ी थी। जहां इस युद्ध से उठी जौहर की पवित्र लपटों ने अखिल विश्व को चारित्रिक उज्ज्वलता के प्रकाश से सरोबार कर दिया था तो राष्ट्रहित में सर्वस्व अर्पण कर देने वाले भामाशाह के त्याग ने मानवजाति को अनन्तकाल के लिए देवत्व की पदवी से विभूषित किया था।
यह संघर्ष कितना महान और विलक्षण था, इसका साक्ष्य इस संघर्ष के नायकों और सामान्यजन के विराट चरित्र में प्रकट हुआ। मातृभूमि की स्वतन्त्रता तक महलों और स्वर्ण पात्रों का त्याग करने की राणा प्रताप की प्रतिज्ञा उनके साथियों व अनुयायियों के लिए बलिदान और कष्ट पालन की आज्ञा बनी थी और उस प्रतिज्ञा की छाया भी कितनी दूर तक पड़ी कि अभी तक स्वतन्त्र भारत की सरकारों और सज्जन समूहों को मेवाड़ की पूर्ण स्वाधीनता की स्मृति कराकर घर बसाकर रहने हेतु उन्हें अनुनय-विनय करना पड़ा। राष्ट्रीय स्वाधीनता का कैसा महान रण-रंग चढ़ा होगा उन मतवालों पर, जो युद्ध के पांच सौ वर्ष उपरांत भी उतरना तो दूर, फीका तक नहीं हुआ।
यूँ तो हम महान पुरुषों की जयंती प्रचलित तिथि अनुसार मनाते हैं। परंतु महाराणा प्रताप इस धरा पर तब जन्मे थे, जब भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव भी नहीं पड़ी थी। क्या हम ऐसा संकल्प ले सकते हैं कि अपने महापुरुषों की जयंती या बलिदान दिवस भारतीय तिथि अनुसार आयोजित कर सकें। इससे हम भारतीयों को भी अपनी परंपराओं पर गौरव अनुभव होगा।
श्रीमद्भगवद्गीता शौर्य को ईश्वरीय तेज का प्रकटीकरण बताती है और ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को जन्मे महाराणा प्रताप सहित उनके प्रत्येक सैनिक में प्रकट ईश्वरीय तेज की यह अभिव्यक्ति आज भी सम्पूर्ण विश्व को चमत्कृत भी करती है और प्रेरित भी करती है।
(लेखक मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान जयपुर में कार्यरत हैं)