क्या रिजवी को पूजा-पद्धति चुनने का अधिकार नहीं?

क्या रिजवी को पूजा-पद्धति चुनने का अधिकार नहीं?

बलबीर पुंज

 

क्या रिजवी को पूजा-पद्धति चुनने का अधिकार नहीं?

हाल ही में उत्तरप्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष वसीम रिजवी हवन-पूजा, अनुष्ठान और जलाभिषेक पश्चात जितेंद्र नारायण त्यागी हो गए। जैसे ही 6 दिसंबर को यह हुआ, मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने रिजवी को अपशब्द कहना और उनकी मौत की दुआ मांगना प्रारंभ कर दिया। सोशल मीडिया पर धमकी भरे वीडियो वायरल हो गए, जिसमें 2019 के लोकसभा चुनाव में हैदराबाद क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी रहे मोहम्मद फिरोज खान और तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस समिति के सचिव राशिद खान- रिजवी का गला काटने वाले को क्रमश: 50 लाख और 25 लाख रुपये देने की घोषणा कर रहे हैं। अक्सर, भारत में जो लोग सेकुलरवाद के नाम पर ‘पूजा-पद्धति’, ‘अंतर-मजहबी प्रेम-विवाह’, ‘मतांतरण’ और ‘खाने के अधिकार’ इत्यादि को ‘व्यक्तिगत पसंद’ के नाम पर आंदोलित रहते हैं, वे वसीम रिजवी (जितेंद्र नारायण) को मिल रही धमकियों पर चुप क्यों हैं?

मीडिया के एक वर्ग द्वारा वसीम रिजवी के जितेंद्र नारायण बनने को मतांतरण की संज्ञा दे रहा है। वास्तव में, यह ‘घर-वापसी’ है। अकाट्य सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप में 99 प्रतिशत लोग या तो हिंदू हैं या फिर पूर्व हिंदू-बौद्ध-जैन-सिख हैं। क्या वसीम रिजवी ऐसे पहले मुसलमान हैं, जिनकी ‘घर-वापसी’ हुई है? इसकी एक सदियों पुरानी लंबी श्रृंखला है। 14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के शासक खुसरो खान, जिसे क्रूर इस्लामी अलाउद्दीन खिलजी ने गुलाम बनाकर इस्लाम में मतांतरित किया था- उसने खिलजी वंश को उखाड़ फेंकने और सुल्तान बनने के बाद अपनी मूल हिंदू पूजा-पद्धति में वापसी की थी। उसी कालखंड में विजयनगर साम्राज्य के शासक बुक्क राय-1 और उसके भाई हरिहर राय-1, जिसे तलवार के बल जबरन इस्लाम अंगीकार कराया गया था, वे भी बाद में फिर से हिंदू बन गए थे। ऐसे मामलों की एक बड़ी सूची है, जिसमें हिंदू पुरुष से विवाह उपरांत मुस्लिम महिलाओं के मतांतरण के मामले शामिल हैं।

क्या देश में मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग द्वारा रिजवी के खिलाफ ‘घृणा’ का कारण उनके मुखर विचार, मोहम्मद साहब पर पुस्तक लिखना, कुरान से 26 आयतों को निकालने की मांग करना, राम मंदिर के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय का समर्थन करना और उनकी हालिया ‘घर-वापसी’ है? क्या एक बहुलतावादी समाज में इस्लाम पर विवेचना करना अपराध है? 6 दिसंबर से पहले रिजवी की पहचान शिया मुसलमान के रूप में थी। शिया, सुन्नी के बाद इस्लाम का दूसरा सबसे बड़ा सम्प्रदाय है, जिनकी वैश्विक मुस्लिम आबादी (190 करोड़ से अधिक) में 15-20 प्रतिशत भागीदारी है। दुनिया में घोषित इस्लामी देशों की संख्या 55 से अधिक है, जिसमें ईरान, इराक, बहरीन और अज़रबैजान शिया बहुल हैं, जबकि शेष सुन्नी प्रभुत्व इस्लामी राष्ट्र। इन दोनों संप्रदायों का दावा है कि केवल उनका इस्लाम ही सच्चा है और दूसरे का झूठा। इसी कारण शिया-सुन्नी सदियों से ‘काफिरों’ के साथ एक-दूसरे के भी खून के प्यासे बने हुए हैं।

शिया-सुन्नी विवाद का कारण मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी को लेकर है। शिया मुसलमानों का मानना है कि मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के पति अली इब्न अबी तालिब पहले खलीफा होने चाहिए थे। किंतु उन्हें तीन अन्य लोगों के बाद ख़लीफ़ा बनाया गया। सुन्नी मत के अनुयायी अली को राशिदुन में चौथा और अंतिम खलीफा मानते हैं, जिसमें उनसे पहले अबु बक़र, उमर इब्न अल-ख़त्ताब, उस्मान बिन अफ़्फ़ान खलीफा थे। किंतु शिया मुसलमान प्रारंभिक तीनों राशिदुन खलीफाओं की अवहेलना करके अली से अपने इमामों की गिनती आरंभ करते हैं। इसी विवाद के बीच सन् 661 में अली की हत्या कर दी गई, तो बाद में उनके पुत्र और तीसरे शिया इमाम हुसैन आदि को तीन दिन भूखा-प्यासा रखने के बाद मार दिया गया। यह हत्यारे भी अपने आप को इस्लाम का सच्चा अनुयायी मानते थे और इनकी रक्तरंजित हिंसा का शिकार पैगंबर मोहम्मद के नवासे थे। शायद, यह इस्लाम के नाम पर हुई पहली प्रताड़ित करने के बाद हत्या थी। इस दिन को शिया मुहर्रम के रूप में मनाते हैं और स्वयं को कष्ट देते हुए जुलूस निकालते हैं।

कई मध्यकालीन सुन्नी मुस्लिम मौलवी (अहमद सरहिंदी सहित) सच्चे इस्लाम की स्थापना हेतु शिया मुसलमानों की हत्या, उनके भवनों को नष्ट और उनकी संपत्ति को जब्त करने को न्यायोचित ठहराते हैं। इसी कारण भारतीय उपमहाद्वीप में भी सुन्नी मुस्लिम आक्रांताओं- विशेषकर क्रूर औरंगजेब के कालखंड में शियाओं पर मजहबी हमले बढ़ गए। तत्कालीन कश्मीर क्षेत्र में उन्हें चुन-चुनकर निशाना बनाया गया। सदियों बाद भी घाटी में यह चिंतन अपरिवर्तित है। यहां आज भी शिया मुसलमानों को आशूरा के दिन शोक मनाने की अनुमति नहीं है।

इस्लामी पाकिस्तान में शियाओं की स्थिति हिंदू, सिख, ईसाई आदि ‘काफिरों’ की भांति नारकीय है। एक आंकड़े के अनुसार, 1963-2015 के बीच शिया समुदाय के खिलाफ हिंसा की 1,436 घटनाएं सामने आईं, जिनमें उनकी मस्जिदों पर हमले, लक्षित हत्याएं, अपहरण, ईशनिंदा, भीड़ द्वारा हिंसा, बम धमाके आदि मामले शामिल रहे। अकेले 2012-15 के बीच 1,900 से अधिक शियाओं (हाजरा और इस्लाइली सहित) को मौत के घाट उतारा जा चुका है। इन हमलों की जिम्मेदारी अक्सर सिपाह-ए-सहाबा और लश्कर-ए-जांघवी इस्लामी आतंकी संगठन लेते हैं, जिनका उद्देश्य पाकिस्तान को शिया-विहीन भी करना है। गत वर्ष करांची में हजारों सुन्नी मुस्लिम कट्टरपंथियों ने शिया विरोधी प्रदर्शन करते हुए “शिया काफिर हैं” नारे लगाकर उनकी मौत की दुआ मांगी थी। अफगानिस्तान में इसी वर्ष अक्टूबर में शिया मस्जिद पर आत्मघाती आतंकी हमला करके 50 से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। हमले की जिम्मेदारी खूंखार आतंकी संगठन इस्लामी स्टेट ने लेते हुए कहा था कि वे शियाओं को ढूंढ-ढूंढकर मारेंगे।

सुन्नी बहुल देशों में शियाओं के प्रति या तो उग्र और हिंसक अभियान चल रहा है या फिर उन पर सऊदी अरब और मलेशिया जैसे देशों में कई प्रतिबंध लगाए गए हैं। शिया बहुल ईरान पर उन इस्लामी आतंकी संगठनों के वित्तपोषण का आरोप लगता है, जो अक्सर सुन्नी मुसलमानों को निशाना बनाकर हमले करते हैं। यह अलग बात है कि शिया-सुन्नी और अन्य इस्लामी संप्रदाय उस समय संगठित नजर आते हैं, जब बात केवल इस्लाम की सर्वोच्चता की होती है। परतंत्रता के समय भारत में ‘शिया’ मोहम्मद अली जिन्नाह को सुन्नी बहुल भारतीय मुसमलानों द्वारा अपना शीर्ष नेता मानना- इसका प्रमाण है।

इस पृष्ठभूमि में वसीम रिज़वी को मिल रही धमकियों पर वामपंथियों, स्वयंभू उदारवादियों और सेकुलरवादियों का जमात मौन है या खुलकर प्रतिक्रिया देने से बच रहा है, जिन्होंने उस हास्य-कलाकार मुनव्वर फारुकी के खिलाफ हिंदू संगठनों के विरोध को एकाएक सांप्रदायिक-असहिष्णुता बता दिया था, जिसने अपने कार्यक्रमों में करोड़ों हिंदुओं के लिए आराध्य श्रीराम-सीता पर अभद्र और 2002 के गोधरा कांड में जीवित जलाए गए 59 रामभक्त कारसेवकों पर ओछी टिप्पणी की थी। यह कुनबा उन एकतरफा प्रेम-विवाहों को ही ‘समरसता’, ‘जीवनसाथी चुनने के अधिकार’, ‘उदारवाद’ और ‘प्रगतिशीलता’ का प्रतीक बताने से नहीं चूकता, जिसमें मुस्लिम पुरुष ही किसी गैर-मुस्लिम महिला से मतांतरण के बाद निकाह करता है। ऐसे अधिकांश मामले ‘लव-जिहाद’ को बढ़ावा देते हैं।

क्या यह सत्य नहीं कि विकृत समूह वसीम रिजवी का इसलिए बचाव नहीं कर रहा है, क्योंकि वे शिया होने के साथ हिंदू हितैषी और भारतपरस्त होने के भी ‘गंभीर अपराधी’ हैं- जो उनके द्वारा बनाए गए नैरेटिव के अनुकूल नहीं है?

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