लघुकथा – राक्षस

वह पोछा लगा रही थी… उसकी पीठ पर आज फिर चोट के निशान थे। मैंने पूछा क्यों लक्ष्मी! आज तेरे पति ने फिर तुझे पीटा वह फफक पड़ी, हां बीबी जी कल दारू ज्यादा हो गई थी ..बहुत दिनों बाद जो मिली। मैं बीच में ही बोल पड़ी “तू ऐसे ही मार खाती रहेगी, तू उस राक्षस को छोड़ क्यों नहीं देती? छोड़ दूं तो लड़कियों को लेकर कहां जाऊंगी? वह बोली “क्यों तू कमाती है ….इतना तो कर ही लेगी “मैंने प्रस्ताव रखा। वो हँसने लगी….मुझे एकाएक उसका यूँ हंसना बुरा लगा। मैंने कहा “लक्ष्मी इसमें हंसने वाली क्या बात है? वह बोली यहां तो एक राक्षस नोचता…खसोटता.. मारता …है, लेकिन मैं और मेरी बेटियां सुरक्षित तो हैं बाहर के राक्षसों से..……। मैंने देखा यह कहते-कहते उसका चेहरा सख्त हो आया था। मैंने फिर कभी उसकी’ चोट’ के विषय में नहीं पूछा, लेकिन क्या शराब हमेशा के लिए बंद नहीं की जा सकती? लॉकडाउन में जब सब बंद हो गया तो शराब की दुकानें क्यों खुली हैं?

मीनू गेरा भसीन

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3 thoughts on “लघुकथा – राक्षस

  1. इंसान, इंसान कम राक्षस ज़्यादा हो गया है, शुरू दिखावे से करता है, फिर वही दिखावा उसके पतन का कारण बन जाता है

  2. Bhut sundar lekh…….?? Ma bolti thi dakshin(south) ki taraf per mt krke sona vo rakshash ki disha h ….ab kon btaye k aj to har disha me hi rakshash rhta h

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