लालकिले से प्रधानमंत्री का उद्बोधन : गुरु तेगबहादुर को कृतज्ञ राष्ट्र का धन्यवाद ज्ञापन

लालकिले से प्रधानमंत्री का उद्बोधन : गुरु तेगबहादुर को कृतज्ञ राष्ट्र का धन्यवाद ज्ञापन

बलबीर पुंज

लालकिले से प्रधानमंत्री का उद्बोधन : गुरु तेगबहादुर को कृतज्ञ राष्ट्र का धन्यवाद ज्ञापनलालकिले से प्रधानमंत्री का उद्बोधन : गुरु तेगबहादुर को कृतज्ञ राष्ट्र का धन्यवाद ज्ञापन

“उस समय देश में मजहबी कट्टरता की आंधी आई थी। धर्म को दर्शन, विज्ञान और आत्मशोध का विषय मानने वाले हमारे हिंदुस्तान के सामने ऐसे लोग थे, जिन्होंने मजहब के नाम पर हिंसा और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी हिंद दी चादर बनकर, चट्टान बनकर खड़े हो गए थे”– इन पंक्तियों के माध्यम से गत 21 अप्रैल को ऐतिहासिक लालकिले में श्री गुरु तेग बहादुरजी के 400वें प्रकाश पर्व के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के अस्तित्व को बचाने हेतु संघर्ष, असंख्य बलिदानों और रोमहर्षक इतिहास को समेट दिया। भाई मतिदास, भाई सतिदास और भाई दयाला को निर्ममता से मौत के घाट उतारने के बाद 11 नवंबर 1675 के दिन इस्लामी आततायी औरंगजेब के निर्देश पर पवित्र गुरु तेग बहादुरजी के सिर को धड़ से तलवार के प्रहार से अलग कर दिया गया था, जिसका साक्षी लालकिले के समक्ष विद्यमान गुरुद्वारा शीशगंज साहिब है।

गुरु साहिब का बलिदान धर्म और आस्था की रक्षा हेतु था। जैसे आज कश्मीरी हिंदू इस्लामी आतंकवाद का शिकार हैं, ठीक उसी तरह के संकट में वे लोग गुरु तेग बहादुरजी के कालखंड में भी थे। जब कश्मीर में जिहादी दंश झेल रहे हिंदुओं की फरियाद लेकर गुरु साहिब क्रूर औरंगेजब के पास पहुंचे, तब उन्हें इस्लाम स्वीकार करने या मौत चुनने का विकल्प दिया गया। गुरु तेग साहिब ने अपने तीनों अनुयायियों की नृशंस हत्या के बाद भी दृढ़ होकर अपना शीश कटाना स्वीकार किया, किंतु धर्म नहीं छोड़ा। श्री गुरु गोबिंद सिंहजी ने इस घटना का वर्णन ‘बचित्तर नाटक’ में कुछ इस प्रकार किया था- “तिलक जंजू राखा प्रभ ताका… सीसु दीआ परु सी न उचरी॥ धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥” अर्थात- हिंदुओं के तिलक और जनेऊ की रक्षा हेतु गुरु तेग बहादुरजी ने अपने शीश का परित्याग कर दिया, किंतु धर्म का त्याग नहीं किया।

निसंदेह, गुरु तेग बहादुरजी सिखों के नौंवे गुरु थे। परंतु उन्होंने जीवनभर जिस परंपरा का अनुसरण किया, वह किसी एक क्षेत्र या समुदाय के लिए समर्पित नहीं था। जिनकी रक्षा करते हुए गुरु साहिब ने सर्वोत्तम बलिदान दिया, वह पंजाब के नहीं, कश्मीर के थे, हिंदू थे। इस व्यापक दृष्टि की प्रेरणा गुरु साहिब तेग बहादुरजी को सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक देव साहिब जी की इन पंक्तियों में मिलती है, “…खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया।। आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।। एती मार पई करलाणे त्है की दरदु न आइया…।।” वर्ष 1526 में भारत आने के बाद जब इस्लामी आतातायी बाबर यहां की सनातन और बहुलतावादी संस्कृति को रौंद रहा था, तब यह देखकर बाबा नानक का कोमल मन बहुत आहत हुआ। उनके उपरोक्त शब्द केवल पंजाब के नहीं, अपितु पूरे हिंदुस्तान के रक्तरंजित दास्तां कहते है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में, विशेषकर उत्तर भारत में यदि यहां मूल सनातन संस्कृति हिंदुओं और सिखों के रूप में जीवंत है, तो उसका एक बड़ा श्रेय गुरु परंपरा को जाता है। वास्तव में, पंजाब में हिंदू-सिख शब्दावली कम, सिख-मोना का उपयोग अधिक अधिक होता था, क्योंकि पंजाब में लगभग सभी गैर-मुस्लिम सदियों से अपने आप को सिख ही मानते आए है। हिंदू-सिख संबंध नाखून और मांस जैसे थे, जिसमें एक की दूसरे के बिना कल्पना नहीं जा सकती थी। इस परिवार में सेंध लगाने के लिए भारतीय संस्कृति के शत्रु दशकों से सक्रिय है, जिसकी नींव अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाने हेतु ब्रितानियों ने डाली थी।

तब हिंदू और सिखों के बीच नैसर्गिक संबंधों में दरार डालने के लिए अंग्रेजों ने आयरलैंड में जन्मे और इंपीरियल सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलीफ का चुनाव किया। मैकॉलीफ को योजना के अनुरूप, पहले पंजाब में नियुक्त किया, जहां उन्होंने सिख पंथ को अपनाया और पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ का अंग्रेजी में विकृत अनुवाद करना प्रारंभ किया। फिर कालांतर में उनकी छह खंडों में ‘द सिख रिलीजन-इट्स गुरु, स्केयर्ड राइटिंग्स और ऑथर’ पुस्तक भी आई। अंग्रेज कितने कुटिल थे, इसका उल्लेख इतिहासकार और लेखक दिवंगत खुशवंत सिंह ने मैकॉलीफ की पुस्तक के 1989 संस्करण की प्रस्तावना में किया था। उनके अनुसार “…मैक्स आर्थर मैकॉलीफ को एक कठिन कार्य के लिए राजी किया गया था। उन्होंने सिविल सेवा से इस्तीफा देकर सिखों के दस गुरुओं के जीवन का विवरण संकलित और गुरुबानी के चयनित ग्रंथों का अनुवाद करने में 15 वर्ष लगाए… इस कार्य के पीछे ब्रिटिश सरकार का भयावह उद्देश्य था…।”

जैसे 1857 के कालखंड में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को तोड़ने के लिए ब्रितानी एजेंट सर सैयद अहमद खां ने अपने भाषणों और लेखकार्यों में बार-बार अंग्रेजों को मुसलमानों का सच्चा सहयोगी और ‘पीपल ऑफ द बुक’ कहना शुरू किया था, ठीक उसी तरह का प्रयास मैक्स आर्थर मैकॉलीफ ने भी अपने कालखंड में निरंतर किया। यह उनके द्वारा लिखित उपरोक्त पुस्तक की इन पंक्तियों से भी स्पष्ट है, जिसमें वे कहते थे, “…एक दिन गुरु तेग बहादुर अपनी जेल की ऊपरी हिस्से पर थे। तब औरंगजेब को लगा कि वे (गुरु) दक्षिण दिशा स्थित शाही ज़नाना (महिलाओं के कक्ष) की ओर देख रहे है। औरंगजेब ने उन्हें बुलाया और उनपर शिष्टाचार का उल्लंघन करने का आरोप लगा दिया। तब गुरु ने कहा- सम्राट औरंगजेब, मैं तुम्हारे निजी कक्ष या फिर तुम्हारी रानियों की ओर नहीं देख रहा था। मैं तो उन यूरोपवासियों की ओर देख रहा था, जो समुद्र पार करके तुम्हारे साम्राज्य को नष्ट करने के लिए यहां आ रहे हैं।”

अंग्रेजों ने अपने दौर में जो कुछ किया, वह उनकी स्थापित साम्राज्यवादी नीतियों के अंतर्गत था। शायद ही हम में से कुछ लोगों ने वर्ष 1962 में आई और ब्रितानी फिल्मकार डेविड लीन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ देखी होगी, जो अंग्रेज सैन्याधिकारी थॉमस एडवर्ड लॉरेंस के जीवन और सच्ची घटना पर आधारित थी। लॉरेंस ने प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) में ब्रितानी हितों की रक्षा में इस्लामी तुर्क ओटोमन साम्राज्य, जिसका तत्कालीन शासक खलीफा भी था- उसे परास्त करने हेतु इस्लामी अरब जगत को दो फाड़ कर दिया था। यहां लॉरेंस अरब बनकर ब्रितानी योजना को मूर्त दे रहे थे और काम निपटाकर इंग्लैंड चले गए। ठीक इसी तरह सिख बने मैकॉलीफ भी हिंदू-सिखों में मनमुटाव के बीज बोकर लंदन लौट आए।

लालकिले में गुरु तेग बहादुर जी के 400वें प्रकाश पर्व पर भव्य समारोह का आयोजन वास्तव में, मोदी सरकार की भारतीय संस्कृति के बिखरे तिनकों को सच्ची नीयत से सहेजने और जन-जन को उससे जोड़ने की परंपरा का हिस्सा है, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी ने प्रत्येकवर्ष से 26 दिसबंर को छोटे साहिबजादों के बलिदान दिवस को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी। हर भारतीय का कर्तव्य है कि वह सभी सिख गुरुओं के जीवन को जाने, समझें और उनके द्वारा स्थापित जीवनमूल्यों को अंगीकार करने का प्रयास करें। हम सभी को स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या हम सिख गुरुओं द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चल रहे है या फिर उस विभाजनकारी औपनिवेशिक चिंतन का हिस्सा बन गए है, जिसे अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य को अक्षत रखने हेतु स्थापित किया था? इसी प्रश्न के उत्तर में सुखी और समृद्ध भारत की कल्पना निहित है।

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