लूट सके तो लूट….

भारत में अंग्रेजी शासन : लूट सके तो लूट....

प्रशांत पोळ

भारत में अंग्रेजी शासन : लूट सके तो लूट....

भारत से संबंध आने के बाद, अंग्रेजों के शब्दकोष में हिंदी व अन्य भारतीय शब्द प्रवेश करने लगे। अब तो ‘जुगाड़’, ‘दादागिरी’, ‘सूर्य नमस्कार’, ‘अच्छा’, ‘चड्ढी’ आदि शब्द भी ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में अपना स्थान बनाए हुए हैं। किंतु इस ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में शामिल होने वाला पहला हिंदी शब्द कौन सा था?

वह शब्द था… ‘लूट…!’

ऐसा कहते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी पर इंग्लैंड की संसद का नियंत्रण था। यदि यह सच है, तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को जो जी भरकर लूटा है, उसमें इंग्लैंड की संसद अर्थात ब्रिटिश शासन भागीदार था।

अंग्रेज कितने लुटेरे थे, ये उन्होंने भारत के एक हिस्से, बंगाल पर हुकूमत कायम करते ही साथ दिखा दिया। 1757 में प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को परास्त करने के बाद अंग्रेजों ने कोई विवेक नहीं दिखाया, और न ही ‘सोफिस्टिकेशन’। उन्होंने तो ठेठ लुटेरों के जैसे, बंगाल के पूरे खजाने को 100 जहाजों में भरा और गंगा में, नवाब महल से, कलकत्ता के उनके मुख्यालय, ‘फोर्ट विलियम’ में पहुंचाया।

उन दिनों बंगाल देश का संपन्न प्रांत था। बंगाल का खजाना अत्यंत समृद्ध था। ऐसे भरे पूरे खजाने का अंग्रेजों ने क्या किया?

इसका अधिकतम हिस्सा इंग्लैंड पहुंचाया गया, और उन्हीं पैसों के एक बडे हिस्से से, इंग्लैंड के वेल्स प्रांत में स्थित पोविस के किले का जीर्णोद्धार किया गया। इस किले का मालिकाना हक, बाद में रॉबर्ट क्लाईव के परिवार के पास आया।

बंगाल की इस लूट के बाद भी, सत्ता में होने के कारण अंग्रेज, बंगाल को निचोडते रहे, और ज्यादा लूटते रहे। किंतु कुछ ही वर्षों बाद जब बंगाल में महाभयानक सूखा पड़ा, तब इन अंग्रेज शासकों ने क्या किया ?

कुछ नहीं ! कुछ भी नहीं..!!

1769 से 1771 यह तीन वर्ष भयानक सूखे के रहे। लेकिन आज लोकतंत्र का दंभ भरने वाले अंग्रेजों ने क्या किया? लूटे हुए खजाने का एक छोटा हिस्सा भी सूखाग्रस्तों को दिया?

उत्तर नकारात्मक है।

इस महाभयानक सूखे में लगभग एक करोड़ लोगों की जानें गईं, अर्थात एक तिहाई जनसंख्या मारी गई। लेकिन कंपनी, बंगाल का सारा राजस्व इंग्लैंड भेजती रही, और बंगाल में लोग मरते रहे। क्रिस होल्टे लिखते हैं, “The East India Company was devoted to organized theft. Bengal’s wealth rapidly drained into Britain.”

बंगाल में सूखे के कारण हुई मौतें प्राकृतिक आपदा नहीं थीं, यह था नरसंहार!

मेथ्यु व्हाइट प्रख्यात अमेरिकन इतिहासकार हैं। वर्ष २०११ में उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसकी चर्चा सारे विश्व में हो रही है। पुस्तक है – The Great Big Book of Horrible Things. इस पुस्तक में उन्होंने विश्व की 100 सबसे ज्यादा क्रूरतापूर्ण घटनाओं का वर्णन किया है। इस सूची में चौथे क्रमांक पर है, अंग्रेजों की हुकूमत में भारत में पडा अकाल..! इस विपदा में, मेथ्यु व्हाइट के अनुसार 2 करोड़ 66 लाख भारतीयों की मृत्यु हुई थी। इसमें द्वितीय विश्व युद्ध के समय बंगाल के अकाल में मृत 30 से 50 लाख भारतीयों की गिनती नहीं हैं, अर्थात भारत में अंग्रेजी सत्ता के रहते 3 करोड़ से ज्यादा भारतीयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था।

नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी वर्ष 1769 के अकाल में मरने वालों की संख्या 1 करोड़ से ऊपर बताई है। बंगाल उन दिनों अत्यंत उपजाऊ और समृद्ध प्रदेश माना जाता था। ऐसे बंगाल में इतनी ज्यादा संख्या में लोक भुखमरी से मारे गए, यह समझ से बाहर है।

अकाल तो प्राकृतिक आपदा थी। इसमें भला अंग्रेजी हुकूमत का क्या कसूर.? ऐसा प्रश्न सामने आना स्वाभाविक है। किन्तु इस संदर्भ में प्रख्यात इतिहासकार एवं तत्ववेत्ता विल ड्यूरांट लिखते हैं –
“भारत में 1769 में आए महाभयंकर अकाल की जड़ में निर्दयता से किया गया शोषण, संसाधनों का असंतुलन और अकाल के समय में भी अत्यंत क्रूरता से वसूल किए गए महंगे कर थे। अकाल के कारण हो रही भुखमरी से तड़पते किसान कर भरने की स्थिति में नहीं थे, किन्तु ऐसे मरणासन्न किसानों से भी अंग्रेज़ अधिकारियों ने अत्यंत बर्बरतापूर्वक कर वसूली की।”

जिस भ्रष्टाचार के द्वारा अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत में सत्ता हथियाई, उसी भ्रष्टाचार की घुन, कंपनी को बड़ी संख्या में लगी थी। कुछ अनुपात में तो, प्रारंभ से ही कंपनी ने अपने कर्मचारियों को व्यक्तिगत कमाने की छूट दे रखी थी अन्यथा इतने साहसी, कठिन और अनिश्चित अभियान पर कर्मचारी मिलना, कंपनी को कठिन होता जा रहा था।

रॉबर्ट क्लाईव ने सारे छल कपट का प्रयोग कर के बंगाल की सत्ता हथियाई थी। उसके बाद अंग्रेजों ने बंगाल को जी भर के लूटा। इस लूट का एक बडा हिस्सा रॉबर्ट क्लाईव के पास गया। वो जब ब्रिटेन वापस गया, तब उसकी व्यक्तिगत संपत्ति की कीमत आंकी गई थी – 2,34,000 पाउंड। तत्कालीन यूरोप का वह सबसे अमीर व्यक्ति बन गया था। प्लासी की लड़ाई में जीत के बाद, बंगाल के नवाब का जो खजाना, कंपनी के पास पहुंचा, उसकी कीमत आंकी गई थी, 25 लाख पाउंड।

अर्थात आज की दर से निकालें तो प्लासी की लड़ाई के बाद कंपनी को मिले थे 25 करोड पाउंड और रॉबर्ट क्लाईव को मिले थे 2.3 करोड पाउंड !

स्टर्लिंग मीडिया के चेयरमन एवं प्रख्यात पत्रकार मेहनाज मर्चंट ने इस संदर्भ काफी खोजबीन कर के लिखा है, जो देश के अधिकतम बुद्धिजीवियों को स्वीकार्य है। मर्चंट लिखते हैं, “1757 से 1947 इन 190 वर्षों में अंग्रेजों ने भारत की जो लूट की है, वह 2015 के विदेशी मुद्रा विनिमय के आधार पर 3 लाख करोड़ डॉलर होती है। इसकी तुलना में 1738 में नादिरशाह ने दिल्ली लूटी थी, उसकी कीमत, 14,300 करोड़ डॉलर छोटी लगाने लगती है।

1 अक्तूबर 2019 को वॉशिंग्टन डीसी में, ‘अटलांटिक काउंसिल’ विचार समूह (थिंक टैंक) के सदस्यों के सम्मुख बोलते हुए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा, “अंग्रेजों ने भारत को लगभग दो सौ वर्ष न केवल अपमानित और तिरस्कृत किया, वरन भारत को जी भर के लूटा। इस लूट की कीमत आज की दर से 45 ट्रिलियन डॉलर होती है (अर्थात 45 लाख करोड़ डॉलर या रुपयों में 3,35,68,96,50,00,00,000 रुपये)।

यह लूट, पूरे भारत के एक वर्ष के कुल खर्चे से भी ज्यादा है। (सन् 2020 – 21 के भारत सरकार के राष्ट्रीय बजट में कुल खर्चा 34.50 ट्रिलियन डॉलर दिखाया गया है।)

ये अटलांटिक काउंसिल क्या है..?

साठ के दशक में, जब अमेरिका और रशिया के बीच शीतयुद्ध चरम पर था, तब अमेरिका ने 1961 में, अपने हितों की रक्षा के लिए एक विचार समूह (थिंक टैंक) बनाया – ‘अटलांटिक काउंसिल’। मूलतः यह समूह, अमेरिका और यूरोपियन देशों के बीच ज्यादा से ज्यादा सहयोग बढ़े, इसकी चिंता करने के लिए बनाया गया था। बाद में इस विचार समूह का विस्तार होता गया। आज विश्व के दस स्थानों से इस समूह का कार्य चलता है।

इस विचार समूह ने, मंगलवार 1 अक्तूबर 2019 को वॉशिंग्टन डीसी में एक कार्यक्रम रखा था। इस कार्यक्रम में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर को आमंत्रित किया गया था। इस कार्यक्रम में बोलते हुए, एस जयशंकर ने अमेरिका और नाटो के अधिकारियों को खरी – खरी सुनाई थी।

यह 45 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा कहां से आया..?

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्रीमती उत्सा पटनायक ने उपनिवेश के दिनों का गहराई से अध्ययन कर के यह निष्कर्ष निकाला है। अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी ने इस शोध को प्रकाशित भी किया है।

श्रीमती उत्सा पटनायक और उनके पति, प्रभात पटनायक, यह दोनों मार्क्सवादी अर्थशास्त्री के रूप में जाने जाते हैं।

चाहे उत्सा पटनायक का शोध प्रबंध हो, या वर्ष 1901 में दादाभाई नौरोजी द्वारा बताई गई ‘ड्रेन थियरी’ हो, इतिहासकार विल ड्यूरंट का ‘द स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ इस पुस्तक में दिया गया सिद्धांत हो, या प्रोफेसर अंगस मेडिसन के दिये हुए आंकड़े हों…. यह सब एक ही बात की ओर इंगित करते हैं – 190 वर्षों के राज में अंग्रेजों ने भारत को जमकर लूटा। भर – भर के लूटा।  ‘एन इरा ऑफ डार्कनेस’ इस पुस्तक की शुरुआत ही शशि थरूर ने ‘द लूटिंग ऑफ इंडिया’ इस अध्याय से की है।

शशि थरूर ने जॉन सलिवन (John Sullivan) को इस संदर्भ में उद्धृत (quote) किया है। जॉन सलिवन को इतिहास, ऊटी (उटकमंड) इस पर्वतीय पर्यटक स्थल के संस्थापक के रूप में पहचानता है। सन 1840 में इन जॉन सलिवन महोदय ने लिख कर रखा है कि, “छोटे राज्य समाप्त हुए। व्यापार की दुर्दशा हो गई। रियासतों की राजधानियों की रौनक चली गई। लोग गरीब होते चले गए। किन्तु अंग्रेजों की हालत एकदम सुधर गई। अंग्रेज़ एक स्पंज जैसे हो गए हैं। गंगा के पानी में डुबोना, और लंदन के थेम्स नदी में निचोड़ना..!”

बंगाल पर कब्जा करने के बाद, और पूरे देश पर कब्जा करने के बीच, अर्थात वर्ष 1765 से 1818 के बीच, अंग्रेजों ने प्रतिवर्ष 18 करोड़ पाउंड भारत से कमाए। अर्थात कुल 900 करोड़ पाउंड कमाए। उन दिनों, यूरोप के बहुत थोड़े ही अमीर – उमराव या राजे – महाराजे ऐसे थे, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों से भी ज्यादा धनवान थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी के जो अधिकारी बहुत ज्यादा धन कमाकर इंग्लैंड वापस लौटते थे, उन्हे ‘नबोब’ कहा जाता था। भारतीय ‘नवाब’ के जैसा यह शब्द गढ़ा था, एडमंड बर्क ने। कंपनी के अनेक अधिकारी, कंपनी की नौकरी करने के साथ ही निजी व्यापार भी करते थे। यह करना एक प्रकार से जायज माना जाता था। प्लासी की लड़ाई जीत कर, भारत में अंग्रेजी शासन का प्रारंभ करने वाले रॉबर्ट क्लाइव ने तो सारे नियम कायदे ताक पर रख कर खूब संपत्ति बटोरी और इंग्लैंड में आलीशान महल बनवाए। पहली बार जब वह इंग्लैंड गया, तब वह 2 लाख 34 हजार पाउंड (आज के भाव से इसकी कीमत 2 करोड़ 30 लाख पाउंड से भी ज्यादा होगी) लेकर गया। दूसरी बार सन 1765 से 1767 तक वह भारत में रहा और इंग्लैंड वापस जाते समय 4 लाख पाउंड से भी ज्यादा की संपत्ति ले कर गया। इन पैसों से उसने अपने पिता और स्वयं के लिए इंग्लैंड के संसद में स्थान सुनिश्चित किया। उसने खूब सारी जमीन खरीदी और उस जमीन, याने ‘काउंटी क्लेयर इस्टेट’ को ‘प्लासी’ यह नाम दिया।

ये तो आधिकारिक रूप से इंग्लैंड में ले जाई गई संपत्ति के आंकड़े हैं। किन्तु चोरी छिपे कितने हीरे, कितना सोना, कितनी प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां भारत के बाहर गईं, इसकी कोई गिनती ही नहीं है। आज बड़ी संख्या में जो प्राचीन भारतीय मूर्तियां विदेशों के विभिन्न संग्रहालयों में या अनेक धनवानों के निजी संग्रह में दिखती हैं, उन में से अधिकतम, अंग्रेजी शासन के दौरान ही भारत से बाहर गई हैं।

जो भूभाग अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में नहीं था, या जहां राजे – रजवाड़ों का शासन था, रियासतें थीं, वहां पर अंग्रेजों ने उन राजाओं से जबरदस्त ‘प्रोटेक्शन मनी’ (आज की भाषा में ‘गुंडा टैक्स’) वसूला। अगर ये प्रोटेक्शन मनी नहीं दिया, तो उस राज्य / रियासत में तैनात अंग्रेज़ फौज, उस राजा के विरोध में युद्ध के लिए तैयार हो जाती थी।

सन 1826 में, अपने मृत्यु से कुछ दिन पहले, बिशप रेजीनाल्ड हेबर ने लिखा कि, “हम (अंग्रेज़) जितना कर वसूलते हैं, उतना कोई भी भारतीय राजा नहीं वसूलता और पहले भी नहीं वसूला था”। बंगाल में शासन में आने के मात्र 30 वर्षों में जमीन का राजस्व 8,17,553 पाउंड से बढ़कर 25,80,000 पाउंड तक जा पहुंचा। इसका कारण था, ‘अत्यंत क्रूरता से और अमानुष पद्धति से वसूला गया कर..!’ इस के बदले भारतीय किसानों को या छोटे व्यवसायियों को क्या मिला.?

कुछ भी नहीं, सिवाय जुल्म ज़बरदस्ती के!

(दिल्ली के प्रभात प्रकाशन द्वारा शीघ्र प्रकाशित, ‘विनाशपर्व’  पुस्तक से)

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