लॉकडाउन
जिंदगी जीने के लिए आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं, लेकिन हम आवश्यकताओं को इतना विस्तृत कर लेते हैं कि फिर उनके ही गुलाम बन कर रह जाते हैं। आज उसे इस शहर की चकाचौंध फीकी लग रही थी। कल तक मॉल्स में घूमना, शॉपिंग करना, थिएटर, बाहर का खाना उसके जीवन का एक अंग हुआ करता था। नौकरी के सिलसिले में वह और उसका पति वहीं एक फ्लैट में रहते थे। जब भी मैं उसे गांव आने के लिए कहती वह टाल जाती थी, “कहती यहां मन नहीं लगता” मैं उसकी बातों से चकित हो पूछती” इतने बड़े परिवार में भी तुम्हारा मन नहीं लगता….? आज सुबह जब उसका फोन आया वो रुआंसी होकर बोल रही थी “कितना अच्छा होता हम समय रहते ही गांव आ जाते…. यह शहर तो बस चलता हुआ ही अच्छा लगता है, अब जैसे सब कुछ थम सा गया है, फ्लैट भी पिंजरा सा लग रहा है, मैं कहीं अवसाद में ना चली जाऊं….! मैंने उसे दिलासा दी और मन ही मन कहा लॉक डाउन के बाद न जाने कितने लोगों के मन पर लगे लॉक खुलने वाले हैं।
मीनू गेरा भसीन
बहुत सुन्दर एवं स्पष्ट शब्दो मे ज़िन्दगी की वास्तविक्ता से परिचय कराया है….. बहुत सुन्दर ??
Short but nice story