अनिवार्य शिक्षा के पक्षधर: लोकमान्य तिलक
तिलक जयंती पर विशेष
प्रो. के.बी. शर्मा
“स्वराज और स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।”
इस महामंत्र की घोषणा करने वाले जन-जन के मानस में मान्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 ई. को महाराष्ट्र के रत्नगिरि शहर में हुआ था। ‘‘लोकमान्य” का अलंकरण बाल गंगाधर तिलक को प्राप्त था। लोकमान्य अलंकरण से विभूषित होना ही यह बताता है कि वे सबके प्रिय थे। सबके सुलभ हित कार्य के लिये ‘तिलक’ जी समर्पित रहते थे।
भारत राष्ट्र के निर्माता लोकमान्य तिलक श्रेष्ठ कोटि के राजनैतिक नेता ही नहीं, अपितु महान् वेदज्ञ, गीता, महाभारत, इतिहास तथा भारतीय अर्थशास्त्र के प्रकांड पंडित थे। कानून विषय में ‘‘तिलक” को सिद्धहस्तता प्राप्त थी। उज्ज्वल आदर्श, तेजस्वी और निर्भीक चरित्र के कारण भारत में बाल गंगाधर तिलक का ऋषितुल्य सम्मान वे प्रख्यात शिक्षाशास्त्री थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी मौलिक चिंतन धारा तत्कालीन समाज व देश के लिये उपयोगी भी थी और भावी पीढ़ी के लिये अनुकरणीय भी है।
शिक्षा के क्षेत्र में लोकमान्य तिलक दो सिद्धान्तों के प्रबल पोषक थे। प्रथम, उनका विचार था प्राचीन भारतीय वैदिक और उपनिषद्कालीन शिक्षा व्यवस्था के उस गरिमापूर्ण उज्ज्वल आदर्श का प्रचलन हो, जिससे कि श्रेष्ठ ज्ञान परम्परा का विकास हो। उनकी नीति समन्वयकारिणी थी। प्राचीन भारतीय वैदिक और उपनिषद्कालीन शिक्षा प्रणालियों की अच्छाइयाँ उन्हें मान्य थीं तथा अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से उनका सर्वथा विरोध भी नहीं था। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में जो गुण थे, वे उन्हें सहर्ष अपनाने के पक्षधर थे।
शिक्षा के संबंध में उनका दूसरा प्रमुख सिद्धान्त था कि देश में शिक्षा सर्वजन को सुलभ हो। इसी सिद्धान्त से उन्होंने पूना न्यू इंग्लिश स्कूल, डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी तथा फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना की, ताकि अधिकाधिक लोगों को शिक्षा प्राप्त हो सके।
शिक्षा के व्यापक प्रचार–प्रसार के लिये लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के प्रचलन तथा सरकार से पूर्ण सहायता लेने के सिद्धान्त को भी स्वीकार करते थे। गणतंत्र भारत में अनिवार्य शिक्षा–योजना लागू की गई है, पर तिलक ने आज से 123 वर्ष पहले ही इस योजना को लागू करने का प्रयास किया था। उस समय भारत में 60 प्रतिशत जनता ही साक्षर थी।
लोकमान्य तिलक ने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद को स्थापित किया और सर्वप्रथम राष्ट्रीय शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य किया। उनका मानना था कि दृढ़ चरित्र गठन के लिये धार्मिक शिक्षा की बड़ी आवश्यकता है।
तिलक ने शिक्षा में नागरिक शास्त्र की शिक्षा को भी आवश्यक माना। उनका मानना था कि उत्तरदायित्व पूर्ण नागरिक उत्पन्न करने के लिये नागरिक शास्त्र की शिक्षा शिक्षण–संस्थाओं में चलनी चाहिये। किसी भी देश की उन्नति तभी हो सकती है, जब वहां के नागरिक अपने–अपने अधिकार व कर्त्तव्य की पूर्ण जानकारी रखें। राष्ट्र तभी परतंत्र होता है जब वहां के निवासियों में अपने वास्तविक और सामयिक कार्य के प्रति अभिरूचि में शिथिलता हो।
हिन्दी राष्ट्र भाषा हो व देश के प्रत्येक प्रांत में इसको पूर्ण प्रश्रय मिले, ऐसा तिलक का विचार था।
लोकमान्य तिलक के जीवन में एकमात्र यही उद्देश्य था ‘‘भारत का सर्व प्रकारेण कल्याण व उत्कर्ष“।
इस उत्कर्ष के लिए शिक्षा का व्यापक प्रचार–प्रसार हो, ऐसी उनकी अटूट मान्यता थी। वे प्रख्यात शिक्षाशास्त्री थे और सर्वजन सुलभ शिक्षा हो, इस मत के पक्षधर थे। शिक्षा जन–जन को मिले, ऐसी उनकी मान्यता थी। शिक्षा व ज्ञान की अलख को अनिवार्य मानने वाले तथा जन–जन के हृदय में मान्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को उनकी जयंती पर शत–शत नमन।