वनवासी संस्कृति के संवाहक जगदेव राम उरांव नहीं रहे
प्रशांत पोळ
वनवासी संस्कृति के संवाहक जगदेव राम उरांव नहीं रहे। वे वनवासी कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। कल्याण आश्रम के मुख्यालय, जशपुरनगर में उन्होंने अंतिम सांस ली।
विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय सह-संगठन मंत्री, प्रफुल्ल आकांत जी, कुछ वर्ष छत्तीसगढ़ के संगठन मंत्री रहे। उन्हें जगदेव राम जी के साथ काम करने का अवसर मिला था। वे उनके कुछ अनुभव बताते हैं –
छत्तीसगढ़ में एक बार जगदेव राम जी, कल्याण आश्रम के कुछ कार्यकर्ताओं के साथ, जीप में प्रवास पर जा रहे थे। रास्ते में कार्यकर्ताओं को किनारे पर लगा, एक आम का पेड़ दिखा। यह कच्चे आमों से लदा पड़ा था। गंतव्य स्थान पर जाने की कुछ जल्दी नहीं थी। इसलिए कार्यकर्ताओं ने जीप रोकी। पेड़ से कुछ कच्चे आम तोड़े। उन्हें काटा और जगदेव राम जी को देने लगे। जगदेव राम जी ने विनम्रतापूर्वक नकार दिया। कार्यकर्ताओं ने पूछा, “आपका परहेज है क्या, आम से…?”
जगदेव राम जी ने थोड़ा हँसते हुए कहा, “नहीं। पर हम वनवासी आखा तीज (अक्षय तृतीया) से पहले आम नहीं खाते।”
“ऐसा क्यूँ….?” एक कार्यकर्ता ने पूछा।
“आखा तीज के पहले आम में गुठली नहीं बनती। हम वनवासी जब उस ऋतु में आम खाते हैं, तो सबसे पहले आम की गुठली जमीन में गाड़ते हैं। हमारा मानना है, उस गुठली से आने वाले पीढ़ी को आम मिलेंगे। चूंकि आखा तीज के पहले आम में गुठली नहीं बनती, इसलिए ऐसे आम को खाना माने उस आम की भ्रूणहत्या करना, ऐसा हम लोग मानते हैं। इसलिए, वनवासी आखा तीज के बाद ही आम खाते हैं…!”
और हमें वनवासी पिछड़े लगते हैं, अनपढ़ लगते हैं, दक़ियानूसी लगते हैं !
मानवता का संपूर्णता से विचार, पर्यावरण का सम्मान करने वाली प्रवृत्ति और प्रकृति के प्रति आदर अर्थात वनवासी जीवन। ऐसे श्रेष्ठ वनवासी जीवन का चलता-फिरता प्रतीक थे, जगदेव राम जी। उनका जाना, यह हम सब के लिए अपूरणीय क्षति है।
उन्हें विनम्र श्रद्धांजली…!