वह प्रेम में थी (कहानी)
मीनाक्षी दीक्षित
अरे तुम कल जन्माष्टमी पूजा में नहीं आईं? तुमने तो कहा था, बहुत मन है तुम्हारा आने का, क्या अड़चन आ गयी? बहुखंडी आवास के छोटे से उद्यान में नीलिमा यानि श्रीमती नवाब को देखते ही मुग्धा ने पूछा।
बस यूँ ही, सोचा रात में देर हो जाएगी, फिर घर में सबको परेशानी होगी। नीलिमा ने ठन्डे स्वर में उत्तर दिया।
पिछले एक सप्ताह से मुझे आना है, आना है करने के बाद इतनी छोटी सी बात सोचकर न आना, समझ में नहीं आ रहा। सच बता दो अब। मुग्धा एक वर्ष में प्रगाढ़ हुयी मैत्री के भरोसे कह उठी।
सच में तो ये सोचा कि कहीं बच्चों को असहज न लगे, वो तो जन्माष्टमी को न जानते हैं न समझते हैं।
हाँ, तुम्हारे बच्चे तो इस्लाम को मानते हैं, दीनी तालीम भी ली है। उनको असहज लग सकता है। नवाब से चर्चा की थी, आने के लिए?
उनका तो एक ही उत्तर होता है, “मुझे कोई ऐतराज़ नहीं’, तुम देख लो, बच्चे क्या सोचेंगे, कि उनकी अम्मी क्या करती है। नीलिमा ने वैसे ही ठंडेपन से कहा।
लेकिन बच्चे इतने बड़े तो हैं कि समझ सकें कि तुम्हारा और नवाब का विवाह इंटर रिलीजन है और तुम्हारी कुछ अपनी आस्था हो सकती है। मुग्धा ने बात आगे बढ़ाई।
नहीं, अब उनको ये बात समझाने के लिए बहुत देर हो चुकी है। इसका निर्णय मुझे उनके जन्म से पहले कर लेना चाहिए था।
तो क्यों नहीं किया?
मैं प्रेम में थी।
तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम प्रेम में नहीं प्रेम जिहाद के जाल में थीं?
नीलिमा का चेहरा भावशून्य सा हो गया, या श्वेत हिमखंड सा, मुग्धा समझ नहीं पाई।
नहीं, आज से पहले कभी नहीं लगा, अच्छा चलती हूँ…..फिर मिलते हैं।
नीलिमा, मैं तुम्हें दुःख नहीं पहुँचाना चाहती थी………मुग्धा असहज हो गयी, लगा अपनी मैत्री की सीमा का अतिक्रमण कर गयी।
लेकिन नीलिमा मुड़ कर लिफ्ट की दिशा में बढ़ गयी। कुछ पल ठिठक कर मुग्धा भी लिफ्ट की ओर चल पड़ी। आज, दोनों का लिफ्ट में साथ जाना संभव नहीं था।
नीलिमा यानि श्रीमती नवाब अपने पति और दो बच्चों के साथ इस बहुखंडी निवास में रहती हैं। एक वर्ष पहले उनके सामने वाले फ्लैट में मुग्धा रहने आई। वैसे तो महानगरों में इस तरह की आवासीय व्यवस्था में मित्र पड़ोसी जैसा कुछ होता नहीं फिर भी न जाने कैसे नीलिमा और मुग्धा में मैत्री सी हो गयी।
एक दिन यूँ ही बातों बातों में मुग्धा ने कहा, नीलिमा आपके पहले नाम से लगता है जैसे आप हिन्दू हो ?
हाँ, थी ना शादी से पहले, नीलिमा ने कहा।
तो नीलिमा रिलीजियसली कन्वर्टेड है? मुग्धा के मन में कुछ खटका, लेकिन उसे क्या यह तो किसी का भी नितांत निजी निर्णय है। यह भेद खुल जाने के बाद कई बार दोनों के बीच हिन्दू पर्वों की चर्चा होने लगी और नीलिमा ने जन्माष्टमी के दिन मुग्धा के घर पूजा में भाग लेने की इच्छा जताई लेकिन इच्छा जता कर भी वह नहीं आई।
ऊपर की चर्चा, नीलिमा और मुग्धा के बीच इसी क्रम में हो रही थी।
नीलिमा, तेजी से लिफ्ट की ओर बढ़ी। उसे लगा उसके पैर कांप रहे हैं। आज तक वो न जाने ऐसी कितनी चीज़ें छोड़ती आई है, जो उसे अपने व्यक्तित्व का अंग लगती थीं, सदा यह मानकर कि वो प्रेम में है, और प्रेम को पाने के लिए कुछ तो छोड़ना ही पड़ता है। आज पहली बार उसके, “मैं प्रेम में थी” वाले सपने पर किसी ने उसको झकझोर दिया था। अतीत के कोलाहल से प्रश्न भी उठ रहे थे पीड़ा भी, जो प्रश्न पहले मन में आए नहीं, जो पीड़ा भौतिक जीवन के रस रंग में दब कर खो गयी थी।
उसे नवाब से प्रेम हो गया था। कॉलेज का अंतिम वर्ष था। नवाब को अपना पुश्तैनी काम ही देखना था। कॉलेज उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं था। नीलिमा के अध्यापक माता–पिता के लिए बेटी की शिक्षा महत्वपूर्ण थी। बहुत समझाया था उन्होंने, लेकिन नीलिमा मानती थी वो प्रेम में है और माता पिता प्रेम के दुश्मन। रिलिजन अलग हैं हमारे, माँ ने कहा था, कठिनाई होगी, नीलिमा का उत्तर था, कौन कहेगा तुम इतनी पढ़ी-लिखी अध्यापक हो, ऐसी पिछड़ेपन की बातें करती हो? बाबू जी शांत हो गए थे। कुछ कहते नहीं थे उससे, माँ के माध्यम से ही बात करने लगे थे। हर छोटी बड़ी बात बाबू जी के साथ करने वाली नीलिमा को बाबू जी में आया यह परिवर्तन उस समय रंचमात्र भी नहीं अखरा थी क्योंकि वो तो बस नवाब से बात करना चाहती थी।
अन्ततः, नीलिमा जीत गयी। माँ-बाबू जी ने हाँ कर दी। नीलिमा को लगा प्रेम में बड़ी शक्ति है, वो प्रेम में है इसलिए माँ-बाबू जी हार गए। वो तब कहाँ समझ पाई थी कि शक्ति उसके नहीं वरन माँ-बाबू जी के प्रेम में थी जो उसकी ख़ुशी के लिए इंटर रिलीजन विवाह को राजी हो गए थे, अपने सारे सपनों को भूलकर, सभी परिवारीजनों को कुपित कर। उस दिन आर्य समाज मंदिर से निकली तो नीलिमा थी, लेकिन नवाब के घर में निखत का प्रवेश हुआ था। नीलिमा की पहचान खो चुकी थी, लेकिन उसे दिख नहीं रहा था क्योंकि उसे लग रहा था कि वो प्रेम में है और प्रेम में इतना तो खोना ही पड़ता है। कभी यह प्रश्न तो उसके मन में आया ही नहीं कि प्रेम में तो नवाब भी है पर वो नवाब से नवनीत क्यों नहीं बन जाता?
माँ बहुत उत्साह से पहली बार नवाब के घर आई थीं, करवा चौथ का सामान लेकर। मध्यमवर्गीय उपहारों का उपहास करते हुए भी नवाब की माँ ने कुटिलता से सारे उपहार अपने हाथ में ले लिए, फिर माँ से बोली, अब नीलिमा नहीं है वो, हमारी बहू निखत है, वो यहाँ के रिवाज करेगी। आप लोग उससे जितनी दूर रहेंगे, उतनी जल्दी हमारे रिवाज सीखेगी। माँ का चेहरा बुझ गया था, आखें भर आयी थीं। वो माँ को छोड़ने बाहर जाना चाहती थी, माँ के गले लगना चाहती थी, बाबू जी की बात करना चाहती थी, लेकिन पैरों में जैसे पत्थर बंध गए थे। जब वो प्रेम में थी और विवाह के सपने देख रही थी तो कितनी बार नवाब से करवा चौथ की बात कही थी, आज नवाब ने एक बार भी कुछ नहीं कहा। अपनी माँ की बात को सही ठहराया, जो हमारा रिवाज नहीं है उसे क्यों करना? ऐसी जिद से घर की शांति भंग होगी। उसकी ख़ुशी के लिए सारे समाज से मुंह मोड़ने वाली माँ के साथ ऐसा कैसे कर सकता है कोई? उसने उपहारों की तरफ देखा, माँ उसके लिए सुनहरे पीले रंग की साड़ी लायी थी, वह उस साड़ी को अपने पास रखना चाहती थी। हाथ बढ़ाती उससे पहले ही सुनाई दिया, पुरानी चीज़ों से जितनी दूर रहोगी, नयी ज़िन्दगी उतनी ही खुशियाँ देगी। नीलिमा ने उस दिन नहीं पूछा, सब रिवाज़ केवल तुम्हारे क्यों, कुछ मेरे क्यों नहीं? विवाह तो दोनों ने किया है तो दोनों के रिवाज़ क्यों नहीं?
यह नयी ज़िन्दगी है, नयी खुशियाँ हैं, इनको सहेजो नवाब ने कहा और नीलिमा नए जीवन की खुशियाँ सहेजने में लग गयी।
माँ से फिर कभी नहीं मिली। किसी से पता चला, बहुत टूट गए थे माँ और बाबू जी। नीलिमा के ननिहाल और ददिहाल दोनों पक्षों ने उनसे मुंह मोड़ लिया था। वे किसी धर्मस्थल के वानप्रस्थ संकुल में चले गए थे। और कहाँ जाते, एकमेव संतान थी नीलिमा। नीलिमा को पुष्प की तरह रखने वाले माता पिता से नीलिमा का कोई संपर्क नहीं था। लेकिन नीलिमा इस भ्रम में जीती रही कि वो प्रेम में है।
नीलिमा ने सोमवार का व्रत किया था, नवाब को पाने के लिए, उद्यापन करना था। बड़ी मिन्नतें करी थीं कि वो कोई पूजा पाठ नहीं करेगी, केवल व्रत करेगी। सुबह रसोई में गयी तो देखा उस दिन सुबह नाश्ते में ही मांसाहार बना दिया गया था, नवाब का कहना था तुम्हें नहीं खाना है मत खाओ। वह पूछ नहीं पाई, क्यों नवाब क्या मेरी आस्था का इतना भी मान नहीं रख सकते? संभवतः नीलिमा को उत्तर पता था, अब वो निखत है, भले ही सार्वजानिक तौर पर अभी भी उसे नीलिमा कहा जा रहा था।
बीच बीच में उभरने वाली यह पीड़ा, भौतिक जीवन के आनन्द में खो जाती थी। घूमना–फिरना, कपड़े-गहने, बड़ा घर, गाड़ी और फिर बच्चे। जीवन में बच्चों के आने तक वह व्यवहार और मान्यताओं से निखत बन चुकी थी। बच्चे कभी उसकी विवाह पूर्व आस्था को समझेंगे इसकी सम्भावना का अंश मात्र भी नहीं रहने देना चाहता था नवाब। पहले ही तय हो गया था। नवाब ने कहा था, बच्चों से कभी अपनी शादी से पहले की बातें मत करना, उनको सिर्फ इस्लाम में रखना है। बच्चों को मजहब और दीनी तालीम साफ़ होनी चाहिए वरना भटक जाते हैं, न इधर के रहते हैं न उधर के। नीलिमा माँ बनने के सुख में थी, उसके मन में ये प्रश्न आया ही नहीं, क्यों? जब विवाह में दो रिलीजन साझीदार हैं तो शिक्षा एक ही की क्यों?
नीलिमा धीरे धीरे जीवन के पहले 19-20 वर्ष भूलने लगी थी। बच्चे कान्वेंट में पढ़ने के बाद भी दीनी तालीम ले रहे थे। न उन्होंने कभी माँ से उसके पहले रिलीजन के बारे में पूछा और न कभी नीलिमा ने बताया। उसे भी लगने लगा था बच्चों को एक तरफ ही रखना चाहिए। रिलीजियस पहचान आवश्यक है, यह उसने नवाब से सीख लिया था। यह सोचे बगैर कि यदि रिलीजियस पहचान आवश्यक है तो उसे उसकी धार्मिक पहचान खोने के लिए क्यों बाध्य किया गया, साम –दाम- दण्ड- भेद सब कुछ प्रयोग करके?
आज घर में नीलिमा का अनमनापन साफ़ दिख रहा था। क्या हुआ, और कुछ नहीं जैसे वार्तालाप हुए सभी के बीच। नीलिमा सो नहीं पायी। आज पहली बार माँ- बाबू जी को स्मरण करके वो रात भर रोई थी। उनके पास जाना चाहती थी। कैसे जाएगी, उसे तो पता ही नहीं कि वो इस संसार में हैं भी या नहीं? यदि हैं तो कहाँ?
भीतर कोई सुशुप्त ज्वालामुखी था, जो फटना चाहता था।
नवाब कुछ बात करनी है, नीलिमा ने पति के पास जाकर कहा।
हाँ बोलो, आज सुबह सुबह ….क्या हुआ?
मैं बच्चों को अपने पहले धर्म के रीति रिवाज समझाना चाहती हूँ, माँ के पहले परिवार को समझने का भी हक़ है उनको।
यह सामने वाली ने तुम्हारा दिमाग ख़राब किया है क्या, उससे दूर रहो अब।
बच्चों को यह बताने में क्या बुराई है?
बच्चे क्या जानेंगे, क्या नहीं ये फैसला उनकी पैदाइश के पहले हो गया था, नवाब चिल्लाया।
अब वो इतने बड़े हो गए हैं कि समझ सकें कि हमारी शादी इंटर रिलिजन थी।
इससे तुम्हें क्या हासिल होगा?
मुझे कुछ हासिल नहीं करना
फिर यह तमाशा क्यों?
यह तमाशा नहीं है, मेरी इच्छा है, क्या मैं अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकती?
सब कुछ तो करती हो, घूमना फिरना, शॉपिंग सिनेमा जाना, और क्या चाहिए?
क्या इसके अलावा मेरी और इच्छा नहीं हो सकती?
यह इच्छा 18 साल पहले नहीं थी?
क्या मतलब?
मतलब सीधा है। अपना घर तुमने छोड़ा, अपना धर्म तुमने छोड़ा, हमने तुम्हें पनाह दी, शान-ओ-शौकत की ज़िन्दगी दी। अब यह सब हासिल हो जाने के बाद तुम्हें शादी के पहले का धर्म बच्चों को सिखाना है? एहसान फरामोश औरत……..!
तो तुम कह रहे हो, मैंने शान-ओ-शौकत की ज़िन्दगी के लिए तुमसे शादी की, कहाँ गयीं वो मोहब्बत की बड़ी बड़ी बातें? मैंने तुमसे इसलिए निकाह किया क्योंकि मैं प्रेम में थी।
बस करो नाटक, सामने वाली को तो मैं दो दिन में यहाँ से भाग जाने को मजबूर कर दूंगा?
उसे क्यों बीच में ला रहे हो?
उसके आने के बाद ही तुम्हारा दिमाग ख़राब हुआ है।
तुम्हें क्या लगता है, मैं खुद नहीं सोच पाती?
सोच लो, तुम्हें क्या करना है? मुझे कोई ऐतराज़ नहीं तुम्हारे इस घर को छोड़ने पर। मेरे बच्चों को काफ़िर रिवाज़ बताने की गुस्ताखी मत करना। अभी तलाक नहीं बोल रहा, एक मौका दे रहा हूँ, दोबारा ऐसा हुआ तो धक्के मारकर बाहर कर दूंगा……
नवाब मवाली की तरह चिल्ला रहा था। नीलिमा को वो पहली बार अपने असली रूप में दिखा था।
नीलिमा स्तब्ध थी, वो जिस प्रेम में थी वो एक झटके में तिरोहित हो गया। निःशब्द वो अपने कमरे में आ गयी। हृदय में एक कील धंस गयी थी। धंसी रहने देती तो बूँद बूँद खून रिसता रहता, खींच कर निकलती तो हृदय फट जाता। दो दिन कमरे से बाहर नहीं आई। किसी ने पता करने का प्रयास नहीं किया, क्यों? बच्चों को नवाब ने समझा दिया होगा।
नीलिमा ने अपनी अलमारी खोली। अट्ठारह साल पुराना गहनों का डिब्बा खोला। माँ के कंगन और झुमके थे, इनको पहनकर वो आर्य समाज मंदिर से निकली थी। कुछ शगुन के चांदी के सिक्के, जो चलते समय माँ ने हाथ पर रखे थे। बस इतनी ही पूँजी है नीलिमा की, शेष सब कुछ निखत का। उसने उन्हें दुपट्टे के छोर में बाँध लिया। अपने आवश्यक पहचान पत्र उठाए।
कमरे से बाहर निकली तो, कामवाली शबनम को घर में पाया।
तुम, अभी तक यहीं हो?
भाईजान बोल कर गए, यहीं रुकने को, आपकी तबियत ख़राब है, चाय पियेंगी?
नहीं, मैं डॉक्टर के पास जा रही हूँ..
भाईजान को बुला लूं, वो बोले थे कि आप बाहर आएँ तो उनको फोन करूँ…?
नहीं, तुम जाओ. अब मैं ठीक हूँ।
लेकिन भाईजान….
कहा ना, तुम जाओ..
शबनम के जाते ही नीलिमा ने चैन की सांस ली। बाहर निकली, घर बंद किया। आख़िरी बार उस बंद दरवाज़े की तरफ देखा बिना किसी भाव के।
मुग्धा के घर की घंटी बजी।
तुम, आओ आओ… अन्दर आओ।
नहीं, सहायता चाहिए। ये कुछ चांदी के सिक्के हैं, इनके बदले कुछ पैसे दे सकती हो क्या?
कितने
जितने दे सको।
मुग्धा ने नीलिमा के हाथ पर जो अधिकतम उपलब्ध था रख दिया और प्रश्नवाचक दृष्टि से नीलिमा की ओर देखा।
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है। मैं प्रेम में नहीं, प्रेम जिहाद के जाल में थी।
मुग्धा कुछ बोलती इससे पहले ही नीलिमा वापस मुड़ गयी। यह कहते हुए कि मुग्धा को अब इस फ्लैट में अधिक समय नहीं रहना चाहिए।
कुछ घंटों बाद नीलिमा ऋषिकेश की तरफ निकल चुकी थी। दो दिन कमरे में बंद रहकर उसने पता किया था, माँ अब नहीं थीं, लेकिन बाबू जी ऋषिकेश के किसी आश्रम में थे।