नक्सल, धर्मांतरण और देश विरोधी गतिविधियों के लिए विदेशी फंड अब सुलभ नहीं
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प्रणय कुमार
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शुचिता एवं पारदर्शिता के लिए आवश्यक है एफसीआर एमेंडमेंट बिल 2020. प्रश्न है कि हजारों करोड़ का विदेशी फंड देने और लेने वालों के तौर-तरीकों, कार्यों, हितों, उद्देश्यों पर क़ानून-व्यवस्था की निगरानी क्यों नहीं होनी चाहिए? क्यों उन्हें सब प्रकार के नियमों एवं विधिक नियंत्रणों से छूट मिलनी चाहिए?
सार्वजनिक शुचिता, नैतिकता एवं पारदर्शिता समय की माँग है। आश्चर्य है कि जो ग़ैर सरकारी संगठन शासन-प्रशासन में विभिन्न स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर प्रायः मुखर रहते हैं वे स्वयं के लिए किसी प्रकार के नियम एवं वैधानिक अनुशासन का विरोध कर रहे हैं। उन्हें तो धन के लेन-देन को लेकर स्वयं पारदर्शी होना चाहिए ताकि समाज और व्यवस्था के समक्ष वे एक आदर्श प्रस्तुत कर सकें।
अभी हाल ही में संपन्न मॉनसून सत्र में पारित एफसीआर एमेंडमेंट बिल को लेकर किया जा रहा उनका विरोध समझ से परे है। यह आशंका एवं संदेह को जन्म देता है। विदेशी चंदे के रूप में उन्हें मिलने वाली अकूत धनराशि भी इस आशंका एवं संदेह को बलवती बनाती है। आज के बाज़ारवादी एवं व्यवसायिक प्रतिस्पर्द्धा वाले स्वार्थी-स्वकेंद्रित दौर में भी भारत में काम कर रहे विभिन्न ग़ैर सरकारी संगठनों के प्रति तमाम देशों का यह उदार-अतिरिक्त-अतिशय प्रेम सहसा गले नहीं उतरता। विदेशी फंड पाने की होड़ का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्तमान सरकार द्वारा बड़ी संख्या में तमाम ग़ैर सरकारी संगठनों की मान्यता रद्द किए जाने के बावजूद आज भी भारतवर्ष में 22,447 ऐसे संगठन हैं, जो एफसीआरए के अंतर्गत पंजीकृत हैं।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार बीते 19 वर्षों में विभिन्न ग़ैर सरकारी संगठनों को 2 लाख 8 हजार 96 करोड़ रुपए का विदेशी फंड प्राप्त हुआ है। जून 2018 में जारी एक सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार केवल 2010 से 2017 के बीच एफसीआरए के अंतर्गत 1 लाख, 1 हज़ार, 394 करोड़ रुपए की विशाल धनराशि भिन्न-भिन्न ग़ैर सरकारी संगठनों को प्राप्त हुई। केवल दो वित्तीय वर्ष, 2016-17 और 2018-19 में 58 हजार करोड़ रुपए का विदेशी फंड इन एनजीओ के खातों में जमा हुआ है। यह धनराशि भारत सरकार के कई कल्याणकारी विभागों से भी अधिक है। अब प्रश्न है कि लाखों करोड़ की धनराशि देने और लेने वालों के तौर-तरीकों, कार्यों, हितों, उद्देश्यों पर क़ानून-व्यवस्था की निगरानी क्यों नहीं होनी चाहिए? क्यों उन्हें सब प्रकार के नियमों एवं विधिक नियंत्रणों से छूट मिलनी चाहिए?
ग़ौरतलब है कि इस नए क़ानून के बाद अब सभी गैर सरकारी संगठनों के पंजीकरण के लिए आधार संख्या अनिवार्य कर दी गई हैं। उन्हें अपने सभी सदस्यों एवं पदाधिकारियों की आधार संख्या प्रस्तुत करनी होगी। इस मद में मिलने वाली राशि भी दिल्ली की एसबीआई शाखा के विशिष्ट खाते में जमा करानी होगी। व्यय-मद का ब्यौरा निर्धारित प्रपत्र पर सरकार को सौंपना होगा। इस कानून के अंतर्गत विदेशी फंड प्राप्त करने वाले किसी भी ग़ैर सरकारी संगठन के ‘प्रशासनिक खर्चों’ पर अंकुश एवं नियंत्रण लगाया गया है। अब कोई भी एनजीओ अपने पैसे का अधिकतम 20 प्रतिशत हिस्सा ही ‘प्रशासनिक खर्चों’ में व्यय कर सकेगा। इस विधेयक में लोकसेवकों द्वारा विदेशों से धन प्राप्त करने पर भी पाबंदी का प्रावधान है। और इस क़ानून से समाज-सेवा के नाम पर चल रहे धर्मांतरण पर प्रभावी अंकुश क़ायम होगा। कई बार ऐसे चंदों का उपयोग केवल धर्मांतरण तक सीमित न रखकर समाज में विभाजन की गहरी लकीरें खींचने तक किया जाता रहा। अब किसी गैर-सरकारी संगठन के लिए यह प्रमाणित करना आवश्यक होगा कि उसका कोई भी पदाधिकारी या प्रमुख सदस्य किसी व्यक्ति की आस्था को परिवर्तित करने के मामले में न तो पूर्व में कभी अभियोजित हुआ है, न दोषी पाया गया है। इसके साथ-साथ उन्हें यह शपथपत्र भी देना होगा कि उनका कोई भी सदस्य विदेशी फंड का इस्तेमाल किसी अघोषित उद्देश्य को पूरा करने या हिंसक साधनों के प्रयोग की पक्षधरता में नहीं करेगा।
उल्लेखनीय है कि इन ग़ैर सरकारी संगठनों की प्रशासनिक टोली में बड़े-बड़े वक़ील, पत्रकार, बुद्धिजीवी, आंदोलनकारी (एक्टिविस्ट) साहित्यकार, सेवानिवृत्त न्यायाधीश तक शामिल रहे हैं। स्वाभाविक है कि इन संगठनों को इन नामचीन हस्तियों की सेवाओं के बदले में भारी धनराशि का भुगतान करना पड़ता है। इनकी सहायता से ही तमाम एनजीओ विदेशी हितों तक को साधती रही हैं। गरीबों-शोषितों-वंचितों के अधिकारों एवं हितों की रक्षा एवं पर्यावरण-संरक्षण के नाम पर विभिन्न आंदोलनों को खड़ा कर विकास की परियोजनाओं में अवरोध पैदा करना इनमें से कइयों का गोपनीय एजेंडा रहा है। इनसे जुड़े हुए बड़े-बड़े वकील जनहित याचिकाओं के विशेषज्ञ रहे हैं। इनमें से कई तो अलग-अलग देशों के व्यापारिक हितों, उनकी नीतियों-योजनाओं आदि को आगे बढ़ाने के लिए लॉबिइंग तक में संलिप्त रहे हैं। एक अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर यह दावा किया गया है कि एनजीओ आधारित कानूनी अड़चनों, धरना-प्रदर्शन-आंदोलन के कारण भारत के सकल घरेलू उत्पाद को लगभग 3 प्रतिशत का घाटा उठाना पड़ता है।
इनमें से कई एनजीओ इतने ताक़तवर होते हैं कि वे केवल देश के भीतर की ही नहीं तमाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं और विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। ये राष्ट्र की छवि धूमिल कर भी अपनी एवं अपने सदस्यों की छवि चमकाते हैं। देश-विरोधी कार्यों में संलिप्त रहने वाले या नक्सल आंदोलनों को बढ़ावा देने वाले कई संगठनों एवं उनके प्रमुख सदस्यों को मिलने वाला अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार कम-से-कम यही कहानी बयां करता है। इन पुरस्कारों के द्वारा पहले उन्हें प्रतिष्ठित एवं स्थापित किया जाता है और बाद में उनके चेहरे एवं विश्वव्यापी पहचान का उपयोग अराष्ट्रीय गतिविधियों को बढ़ावा देने या सरकार एवं संस्थाओं की साख़ में बट्टा लगाने के लिए किया जाता है। इन गैर सरकारी संगठनों को तमाम देशों से मिलने वाला धन विदेशी दान न होकर एक सुनियोजित निवेश जैसा है, जिसका उद्देश्य हमारे समाज एवं संस्थाओं के दिल-दिमाग़ पर आर्थिक-मनोवैज्ञानिक रूप से काबिज़ होना, देश में विभाजनकारी वृत्तियों को पोषित करना एवं बढ़ावा देना, विदेशी बाज़ार एवं कंपनियों का मुनाफ़ा सुनिश्चित करना, शांतिपूर्ण सामाजिक सौहार्द्र में विघ्न डालना, देश की शैक्षिक, तकनीकी, वैज्ञानिक एवं आधारभूत प्रगति में बाधाएँ उत्पन्न करना रहा है। इनका तंत्र इतना मज़बूत है कि ये जब चाहें किसी विमर्श को राष्ट्रव्यापी या विश्वव्यापी बना सकते हैं। दंगें जैसे हिंसक एवं असामाजिक कार्यों में लिप्त पाए जाने पर भी इन्हें बचाने के लिए महँगी-महँगी फ़ीस वसूलने वाले बड़े-बड़े वक़ील तत्काल उपलब्ध एवं तैयार हो जाते हैं। वस्तुतः इन ग़ैर सरकारी संस्थानों ने बुद्धिजीवियों के नाम पर एक ऐसा ‘इको सिस्टम या अभिजन गिरोह’ तैयार किया है, जो प्रायः भारत एवं भारतीयता के विरुद्ध खड़ा नज़र आता है।
मामला चाहे तमाम नक्सलियों के समर्थन का हो या अलगाववादियों-अल्पसंख्यकों का; बिजली-पानी-कोयले से जुड़ी विकास-परियोजनाओं का हो या कथित मानवाधिकार हनन का, इनका रुख़ एवं निर्णय पहले से स्पष्ट और तय होता है। सुरक्षा एवं खुफ़िया एजेंसियों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार तमाम ग़ैर सरकारी संगठन एफसीआरए के नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए पैसों के लेन-देन में उलट-फेर तो करते ही हैं। वामपंथी चरमपंथियों को साधन-सुरक्षा उपलब्ध कराने के साथ-साथ जनजातियों के मतांतरण में भी उनकी संलिप्तता पाई जाती है। चिंताजनक यह है कि उनमें से कुछ के संबंध स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया और जमात-ए-इस्लामी हिंद जैसे संगठनों से भी होने की बात कही गई है। ऐसे में क़ानून बनाकर इन पर निगाह एवं निगरानी रखना ही सरकार के पास एकमात्र विकल्प बचा था।
पर नए क़ानून के बन जाने से बहुतों का गोरखधंधा बंद हुआ है। स्वाभाविक है कि जिन्हें चोट लगी है, वे सभी बहुत जोर-शोर से बिलबिला रहे हैं। सरकार ने बार-बार स्पष्ट किया है कि पारदर्शी तरीके से विधिसम्मत कार्य कर रहे ग़ैर सरकारी संगठनों पर इसका कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा और न ही यह किसी धार्मिक या शैक्षिक संस्था के दैनंदिन कामकाज को बाधित करता है। अतः उनके लिए चिंता की सचमुच कोई बात नहीं है, जिनका उद्देश्य समाज, राष्ट्र एवं मानवता की सच्ची सेवा है। ध्येय जब केवल और केवल सेवा हो तो साधन कभी आड़े नहीं आता।