विशिष्ट जीवन शैली वाला राष्ट्र भारत
हृदयनारायण दीक्षित
विशिष्ट जीवन शैली वाला राष्ट्र भारत
भारत विशिष्ट जीवन शैली वाला राष्ट्र है। इसका मूल आधार संस्कृति है। इस संस्कृति का विकास अनुभूत दर्शन के आधार पर हुआ है। यहाँ सांस्कृतिक निरंतरता है। दर्शन और विज्ञान की उपलब्धियां संस्कृति में जुड़ती जाती हैं। संस्कृति को समृद्ध करती हैं और कालवाह्य विषय छूटते जाते हैं। संस्कृति का मूल स्रोत वैदिक धर्म और संस्कृति है। यजुर्वेद की एक गुनगुनाने योग्य मंत्र (22-2) में स्तुति है, ‘‘हमारे राष्ट्र के राजन शूरवीर हों। गाय दूध देने वाली हों। परिवार संरक्षक माताएं हों। तेजस्वी गतिशील युवा हों। मेघ मनोनुकूल वर्षा करें। इस राष्ट्र के विद्वान समग्रता में सम्पूर्णता के ज्ञाता हों – ब्रह्मवर्चसी जायताम। समग्रता में विचार से लोकमंगल के अमृतफल मिलते हैं। खण्डों में विचार से सुखद परिणाम नहीं आते। समग्र विचार उपयोगी है, ऋग्वेद (9-113-10,11) में सोम देवता से स्तुति है, ‘‘जहां सारी कामनाएं पूरी होती हों। जहां तृप्तिदायक अन्न हों। आप हमें वहां निवास दें। जहां आनंद, मोद, मुद और प्रमोद एक साथ हैं – यत्रानन्दास्च, मोदास्च, मुद मोद प्रमोद आसते। जहां सभी कामनाएं तृप्त होती हैं, आप हमें वहां स्थायित्व दें। अंत में कहते हैं, जहां विवस्वान का पुत्र राज्य करता है। विशाल नदियां बहती हैं। जहां आनंद का द्वार है। आप हमें वहां स्थायित्व दें।” प्राचीन स्थापना है कि आनंद के लिए सुंदर राजव्यवस्था आवश्यक है और सर्वसमावेशी राजनीति भी।
राजनीति सामाजिक जीवन का सर्वाधिक सक्रिय क्षेत्र है। राजनीति को राष्ट्र के लोकमंगल की साधना का कर्मक्षेत्र होना चाहिए। लेकिन पीछे 15-20 दिन से कुछ लोगों द्वारा भारतीय ज्ञान परंपरा के लोकप्रिय ग्रंथ रामचरितमानस की निंदा की जा रही है। यह निंदा निन्दनीय है। बृहदारण्यक उपनिषद में धर्म क्षेत्र के विश् व पूषन राष्ट्र के मुख्य तत्व हैं। उत्तर वैदिककाल का राजा या क्षत्र धर्म अनुशासित है। यहाँ धर्म की सत्ता है। धर्म तत्कालीन भारत का सम्यक आचारशास्त्र है और प्राकृतिक है। इस ग्रंथ में धर्म की परिभाषा भी है, ‘‘सत्य धर्म है और धर्म सत्य है।” सामाजिक व सांस्कृतिक सत्य राजनैतिक व्यवस्था के नियंता हैं। फिर विश् हैं। विश् का अर्थ ‘हम भारत के लोग’ हैं। पूषन देवता भूक्षेत्र हैं। शथपथ ब्राह्मण में पृथ्वी को पूषा कहा गया है। वैदिक राष्ट्र की अनुभूति कीट पतंगे से लेकर पशु पक्षी और मनुष्य तक को आच्छादित करती है। प्राचीन ग्रंथों में पूरी पृथ्वी को परिवार कहा गया है। दर्शन आधारित संस्कृति में विचार विविधता है। भिन्न भिन्न विचार हैं। अनेक तरह की देव उपासना है। सत्य एक है। देवरूप अनेक हैं। विद्वान इस सत्य को तमाम नाम से पुकारते हैं – ‘एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति‘।
वैदिककाल में राजा के कर्तव्य सुपरिभाषित हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में राजा के कार्य हैं। आमजन इन्हीं कर्तव्यों के लिए राजव्यवस्था को स्वीकार करते हैं। कहते हैं, ‘‘हम कृषि संवर्द्धन के लिए लोकमंगल और धनसमृद्धि के लिए तथा सम्पूर्ण पोषण के लिए आपको राजा के रूप में स्वीकार करते हैं।” आधुनिक राजनीति में शपथ ग्रहण होता है। ऐसा उत्सव वैदिककाल में राज्याभिषेक था। राज्याभिषेक के मंत्रों में कहते हैं, ‘‘हे राजा हम आपको चन्द्रमा की आभा से, अग्नि के तेज से, सूर्य की अनुकम्पा से और इन्द्र की शक्ति से अभिसिक्त करते हैं। आप शौर्यवानों के क्षत्रपति बनें और लोगों की रक्षा करें। महान राष्ट्र राज्य के लिए इन्द्र के समान ऐश्वर्य और प्रजापालन के लिए आपक¨ अभिसिक्त करते हैं। यह शपथ राजा के निर्वाचन के बाद की है। कहते हैं, ‘‘हम तेजस्विता, सारस्वत ज्ञान, श्रीसमृद्धि और यश के लिए स्तुति करते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में जनता द्वारा मनोनीत राजा लोकमंगल और जनकल्याण की शपथ के बाद कहता था, ‘‘यदि मैं इस प्रतिज्ञा को तोड़ता हूँ तो मेरे जीवन की सारी उपलब्धियां और पुण्य नष्ट हो जाएं।‘‘ इसी कर्तव्यपालन का उपकरण है राजनीति। राजनीति प्राचीन सांस्कृतिक प्रतीकों तद्विषयक ग्रंथों की निंदा से पुष्ट नहीं होती।
प्राचीनकाल में राजनीति के कई नाम थे। इसे दण्डनीति भी कहा गया है और राजधर्म या राजशास्त्र भी। सबसे महत्वपूर्ण नाम नीतिशास्त्र था। संस्कृत विद्वानों के अनुसार नीति का अर्थ आदर्श मार्गदर्शन होता है। नीति शब्द का प्रयोग विशेषण लगाकर अशुभ राजनीति के लिए भी किया गया है। ऋग्वेद में स्वराज्य (1-80 व 8-93), राजधर्म (5-37 व 1-174), राजकर्म (1-25 व 4-42) शब्द प्रयोग राजनीति के लिए ही किये गए हैं। ऋग्वेद में सभा और समितियां हैं। यजुर्वेद में भी हैं। सभा अध्यक्ष का भी उल्लेख है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की शुरुआत में शुक्राचार्य व बृहस्पति को नमस्कार किया है। दोनों का सम्बंध प्रत्यक्ष भौतिकवादी सुख से है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा भी कर्मचारी की तरह वेतनभोगी है। राजनीति के सभी विषय अर्थशास्त्र में है। महाभारत राजनीति से भरा पूरा है। अर्थशास्त्र की महत्ता है। महाभारत की एक कथा के अनुसार नारद युधिष्ठिर के दरबार में पहुंचे। नारद ने उनसे हालचाल पूछा। उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘हाँ आप की कृपा से हमारी कृषि बादलों की वर्षा पर निर्भर नहीं है।‘‘ यहाँ कुशलक्षेम के जवाब में कृषि व्यवस्था में सिंचाई के प्रबंधन का उत्तर ध्यान देने योग्य है। नारद ने अगला प्रश्न पूछा, ‘‘क्या आप अर्थ चिंतन करते हैं – चिंतयसि अर्थं‘‘। महाभारत के शांतिपर्व में राजधर्म का भाग राजनीति का विवेचन है। शांतिपर्व मुख्यतया भीष्मपितामह का प्रबोधन है। शांतिपर्व में राजनीतिशास्त्र व राजव्यवस्था के जन्म व विकास की कथा है। यहाँ राजा की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
राजा के कर्तव्य भी बताए गए हैं। मंत्रियों के गुण और कर्तव्य भी मिलते हैं। प्राचीन भारत की राजव्यवस्था में राज्य के सात अंग बताए गए हैं। इन्हें सप्तप्रकृति या सप्तांग बताया गया है। महाभारत, शुक्रनीति, कौटिल्य और मनु ने भी राज्य के सात अंग बताए हैं। महाभारत ने प्रथम अंग में राजा को आत्मा कहा है। दूसरे अंग का नाम अमात्य है। अमात्य मंत्रीगण हैं। तीसरे अंग को कोष बताया है। चैथे को दण्ड कहा है। पांचवे अंग को महाभारत व कौटिल्य ने मित्र कहा है। मनु व शुक्राचार्य ने सुर्हत कहा है। छठवां अंग राष्ट्र है। महाभारत में सातवें अंग को पुर कहा गया है। ज्यादातर विद्वानों ने इसे दुर्ग कहा है। आधुनिक राजनीति में नेता होते हैं। प्राचीनकाल की राजनीति में राजा में नेतृत्वगुण जरूरी बताए गए हैं। नेता लोकमानस को गतिशील बनाता है। गतिशील लोक प्रगतिशील होता है। शुक्रनीति के अनुसार राजा के सुयोग्य नेता न होने के कारण प्रजा विपत्ति के समुद्र में बिना पतवार वाली नाव की तरह डूब जाती है।‘‘ राजा प्रजा का पोषण और संरक्षण करता है। शुक्रनीति (1-67) के अनुसार राजा ही प्रजा को अधर्म अत्याचार और अन्याय से बचाता है। धर्म, अर्थ और काम से युक्त करता है। यहाँ तीन पुरुषार्थ हैं। धर्म, अर्थ और काम। चौथे पुरुषार्थ मोक्ष का नाम नहीं लिया गया है। मोक्ष दिलाने का काम राजा का नहीं है। महाभारत में न्याय और दण्ड व्यवस्था के सामने सब एक समान है, ‘‘धर्म – विधिविरुद्ध आचरण पर ब्राह्मण भी मृत्युदण्ड के योग्य है।‘‘ (शांतिपर्व 85-8) कानून के सामने पुरोहित भी दण्डनीय है। यहाँ विधि के समक्ष समता है। भारतीय संविधान में भी विधि के समक्ष समता है। प्राचीन ग्रंथों के निंदक सही मार्ग पर नहीं है।