विशेषाधिकार की भावना से ग्रस्त कांग्रेस युवराज

बलबीर पुंज
विशेषाधिकार की भावना से ग्रस्त कांग्रेस युवराज
लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में मिली पराजय के बाद कांग्रेस की हालत खस्ता है। पार्टी ने अपने बलबूते आखिरी बार 1984 में केंद्र में प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई थी। उसके बाद कांग्रेस ने दिवंगत पी.वी. नरसिम्हा राव (1991-96) और दिवंगत डॉ. मनमोहन सिंह (2004-14) के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार चलाई। परंतु अब कांग्रेस की स्थिति जितना सोचा था, उससे कहीं अधिक बदतर है। गत 8 मार्च को गुजरात पहुंचे कांग्रेस के शीर्ष नेता और लोकसभा में नेता-विपक्ष राहुल गांधी अपने ही नेताओं पर भड़क गए और कहा, “कांग्रेस में नेताओं की कमी नहीं है… बब्बर शेर हैं, मगर पीछे चेन लगी हुई है… अगर हमें सख्त कार्रवाई करनी पड़ी, …40 लोगों को निकालना पड़ा, तो निकाल देना चाहिए… बीजेपी के लिए अंदर से काम कर रहे हैं।” आखिर राहुल का अपनी पार्टी के नेताओं पर इस अविश्वास का कारण क्या है?
निसंदेह, कांग्रेस समर्थकों-हितैषियों के लिए यह चिंतन और चिंता का विषय है कि आम जनता के साथ कांग्रेस का एक वर्ग भी न केवल भाजपा-संघ की नीतियों से प्रभावित है, बल्कि उसके लिए अंदरखाने से काम भी कर रहा है। वास्तव में, राहुल और उनके सलाहकार पार्टी के संकट को समझने में बार-बार चूक कर रहे हैं। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या उसके नेतृत्व की अस्थिरता, दिशाहीनता और जनभावना से भीषण कटाव है। कांग्रेस सनातन संस्कृति के प्रति अपनी प्रत्यक्ष-परोक्ष घृणा प्रदर्शित करके भाजपा-संघ से अलग पहचान बना रही है। इसके लिए पार्टी नेतृत्व हिंदुओं को जातियों में बांटने और मुसलमानों को इस्लाम के नाम एकजुट रखने की विभाजनकारी राजनीति से भी गुरेज नहीं करता। बीते दिनों कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का “गंगा में डुबकी लगाने से गरीबी दूर नहीं होती” संबंधित बयान इसी मानसिकता से जनित है। यह बात अलग है कि कि कर्नाटक के उप-मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और सचिव पायलट सहित कई कांग्रेसी नेता महाकुंभ में स्नान करते दिखे और इनमें से कुछ ने राजनीति से ऊपर उठकर इतने विशाल आयोजन के लिए उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रशंसा भी की। इससे कांग्रेस नेतृत्व और बेचैन हो गया।
वैचारिक-राजनीतिक कारणों से राहुल गांधी इस सीमा तक मोदी-विरोध में चूर हो चुके हैं कि वे अपने वक्तव्यों से भारत के आत्मसम्मान, देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा के साथ वैश्विक कूटनीति में राष्ट्रीय हितों को भी दांव पर लगाने से परहेज नहीं कर रहे हैं। बीते दिनों लोकसभा में राहुल ने बेतुका दावा किया कि विदेश मंत्री जयशंकर बार-बार अमेरिका इसलिए गए ताकि प्रधानमंत्री मोदी को ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया जा सके। क्या यह वर्तमान विपक्ष की सबसे ओछी राजनीति नहीं है? जब अमेरिका में ट्रंप द्वारा प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा हुई, तो उसे कांग्रेसी सांसद और पूर्व विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने आशाजनक बताया। यह भी कांग्रेस नेतृत्व को चुभ गया।
यह कोई पहली बार नहीं है। वर्ष 2018 में राहुल ने राफेल प्रकरण पर फ्रांसीसी राष्ट्रपति के नाम पर एक बेबुनियाद दावा किया था, जिसका खंडन स्वयं फ्रांसीसी सरकार को करना पड़ा। 2017 में जब डोकलाम में भारत चीनी उकसावे का प्रतिकार रहा था, तब राहुल गुप्त तौर पर चीनी राजदूत से मिलने चले गए। अपने हालिया विदेशी दौरों में राहुल कई बार इस बात पर असंतुष्ट हो चुके हैं कि अमेरिका-यूरोप अब भारत के आंतरिक मामलों पर कुछ नहीं बोलते। कई अवसरों पर राहुल भारत को ‘राष्ट्र के बजाय राज्यों का संघ’ बता चुके हैं। राहुल की यह मानसिकता उन विदेशी विचारधाराओं के अनुरूप है, जिसमें देश की मूल सनातन संस्कृति, पहचान और इतिहास के प्रति हीन-भावना और भारत को ‘राष्ट्र’ नहीं मानने का चिंतन है।
ऐसे ही मानस से ग्रस्त होने के कारण राहुल जाने-अनजाने में किस प्रकार भारत-विरोधी शक्तियों को अवसर दे रहे हैं, यह उनके सितंबर 2024 के अमेरिका दौरे में दिए गए इस बयान से स्पष्ट है। तब उन्होंने कहा था, “लड़ाई इस बात की है कि एक सिख होने के नाते क्या उन्हें भारत में पगड़ी… कड़ा पहनने या गुरुद्वारा जाने की अनुमति मिलेगी?” इसे आधार बनाकर अमेरिका-कनाडा स्थित खालिस्तानी चरमपंथियों ने भारत के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। हाल ही में राहुल ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस की लड़ाई अब सिर्फ भाजपा-संघ से ही नहीं, बल्कि ‘इंडियन स्टेट’ अर्थात् समूचे भारत से है। आखिर यह कैसी मानसिकता है? क्या यह सच नहीं कि जिहादियों, इंजीलवादियों के साथ नक्सलवादी भी दशकों से ‘इंडियन स्टेट’ के विरुद्ध ‘युद्धरत’ हैं?
पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल ने कहा था कि ‘यदि भाजपा जीती तो देश में आग लग जाएगी और संविधान बदल जाएगा’। अब राहुल स्वयं संविधान-लोकतंत्र का कितना सम्मान करते हैं, यह 2013 की उस घटना से स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने अपनी ही मनमोहन सरकार द्वारा पारित संवैधानिक अध्यादेश को कूड़े में फेंकने लायक बताया था। वास्तव में, राहुल ‘विशेषाधिकार की भावना’ से ग्रस्त हैं, जिसमें उनका मानना है कि केवल उन्हें ही अपने अनुकूल ‘लोक’ (जनमानस) और ‘तंत्र’ (मीडिया-न्यायालय सहित) चलाने का ‘दैवीय अधिकार’ है।
जब भारतीय सनातन संस्कृति में हजारों वर्षों से संवाद और असहमति को स्वीकार करने की परंपरा रही है, तो भारतीय सियासत में राजनीतिक-वैचारिक विरोधी को प्रतिद्वंदी के बजाय शत्रु मानने की विकृति कहां से आई? स्वतंत्रता से पहले और बाद में 1960-70 के दशक तक विभिन्न राजनीतिज्ञों में मतभिन्नता थी, परंतु बहुत सीमा तक उनमें मनभेद और शत्रुभाव नहीं था। इस समरसता का गला वामपंथ ने घोंटा था, जिस पर मैं पहले भी इसी कॉलम में विस्तार से लिख चुका हूं। आज स्थिति यह हो गई है कि प. बंगाल में भाजपा समर्थकों और भाजपा के पक्ष में मत रखने वालों को सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कोपभाजन का शिकार होना पड़ रहा है।
हालिया वर्षों में इस अराजकतावादी राजनीति को यदि किसी ने और तीव्रता के साथ गति दी है, तो वह निसंदेह राहुल गांधी ही हैं। उनकी नीतियों-विचारों से जहां कांग्रेस में असमंजस की स्थिति है, तो इससे जनता के बीच असंतोष बढ़ रहा है।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)