वीरवधू
मैं नई-नवेली दुल्हन सजा रही थी सपने सुनहरे हर लड़की की तरह…
पर यह क्या??
आज ना जाने क्यों सुबह-सुबह गांव में इस कदर शोर है,
ना जाने क्यों आ रहे सब मेरी ससुराल की ओर हैं??
बाहर निकल कर देखा तो, अरे! यह क्या?
गांव में आज किस कदर “भारत माता की जय” की गूंज हुए जा रही है?
ये किसका “पार्थिव शरीर” ध्वज में लिपटा आ रहा है? आखिर क्या है ये सब?
मैं अनजान इन बातों को कुछ समझ ना पाई,
इतने में ही गांव की कुछ औरतें मेरी लाल सुर्ख ‘चूड़ियां’ तोड़ने आईं।
मैं शून्य सी देखती रही एकटक और शहीद की पत्नी कहने लगे मुझे सब,
मैं स्तब्ध, शोकमग्न, सोच में थी, क्या बस यहीं तक का साथ था हमारा?
एक वीर की पत्नी कहलाने की हकदार हो गई थी मैं,
पर नहीं, मुझे नहीं चाहिए था यह किरदार,
मेरी भी ‘तमन्नाएं’ थीं कुछ, काश! पा लेती पूरा परिवार।
वो तो वीर कहला गये, पर मैं सिर्फ एक “वीर की विधवा” रह गई,
“और मेरी जिंदगी बस यहीं तक सीमित रह गई”…।
यही कुछ 10-12 दिन ही हुए थे मेरी विदाई को,
जी हां, बस लगभग इतने ही दिन हुए थे, घर में बजी शहनाई को।
हाथों की मेहंदी तक ना उतरी थी मेरी अभी,
ना उतरा था नई खुशनुमा सी जिंदगी में प्रवेश करने का खुमार…
कहकर गए थे कुछ दिनों में आ जाऊंगा मैं,
तुम करना मेरा इंतजार।
मालूम है मुझे देश की रक्षा करना उनका पहला फर्ज था,
पर अभी कुछ दिन और साथ रहने का मेरा भी तो मन था..।
अभी तक तो रस्में भी पूरी ना हुई थीं हमारी ‘शादी’ की,
ना कई मंदिरों में हमने साथ सिर झुकाया था।
बस कहकर गए थे कुछ दिन रुको,
जल्द ही लौट आऊंगा,
जीवन भर का साथ है हमारा हर वादा निभाऊंगा।
आयुशी शर्मा, जयपुर
बहुत भावनीय …आपने एक शहीद के परिवार की भावनाओ को बहुत ही मार्मिक रूप से उकेरा है ..एक एक सबब्द में पीड़ा ..शिकायत ..बेब्बसी है