स्वातंत्र्य वीर सावरकर : अंग्रेज ही नहीं वामपंथी भी जिनसे भयभीत रहे
26 फरवरी वीर सावरकर पुण्यतिथि पर विशेष
डॉ. शुचि चौहान
भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में वीर सावरकर एकमात्र ऐसा नाम है जिनकी वीरता, साहस और देशप्रेम से डरकर अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी की दो सजाएं दीं। सावरकर ही थे जिन्होंने 1857 के जागरण को क्रांति की संज्ञा दी वरना अंग्रेज और वामपंथियों ने उसे गदर ही प्रचारित किया। देश का दुर्भाग्य है कि तब के कांग्रेसी वामपंथियों के आगे जिन जिन भी क्रांतिकारियों का कद बड़ा था उन्हें या तो फांसी के फंदे पर चढ़ना पड़ा या देश निकाला मिल गया और गुमनामी का जीवन व्यतीत करना पड़ा या फिर एक साजिश के अंतर्गत उनकी छवि धूमिल करने के प्रयास किए गए। सावरकर भी उनमें से एक थे।
सावरकर की मृत्यु 1966 में हुई लेकिन स्वतंत्र भारत में न सिर्फ उनकी उपेक्षा हुई बल्कि वामपंथियों ने उनकी वीरता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े किए। आज भी जब भी सावरकर की वीरता की बात होती है वामपंथी उनके माफीनामे का मुद्दा उठाकर उनकी छवि धूमिल करने के प्रयास करते हैं। जबकि वे भी जानते हैं कि बहुत से क्रांतिकारी रणनीतिक तौर पर ऐसा करते थे। अंडमान की जेल में रहकर स्वतंत्रता की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी। काले पानी की सजा काट रहे सावरकर को भी इस बात का अनुमान हो गया था कि सेल्युलर जेल की चारदीवारी में 50 साल की लंबी जिंदगी काटने से पहले ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। ऐसे में देश को स्वतंत्र कराने का उनका सपना जेल में ही दम तोड़ देगा। इसलिए एक रणनीति के अंतर्गत उन्होंने अंग्रेजों से रिहाई के लिए माफीनामा लिखा।
सावरकर के प्रति वामपंथियों की घृणा वामपंथी लेखक एजी नूरानी की पुस्तक ‘Savarkar and Hindutva – The Godse Connection’ से समझी जा सकती है। इसमें वे लिखते हैं कि “साल 2002 में ही जाकर बीजेपी के हिन्दुत्व के सबसे बड़े प्रतिपादक लालकृष्ण आडवाणी सावरकर को राष्ट्र नायक घोषित करने का साहस जुटा सके। बीजेपी के शासनकाल में गांधी की जगह सावरकर की तस्वीर लगाने का कृत्य काफी घृणित और हैरान करने वाला है क्योंकि नाथूराम गोडसे सावरकर का चेला था और गांधी का हत्यारा।”
दूसरी ओर यही वामपंथी जवाहरलाल नेहरू के माफीनामे पर चुप्पी साध जाते हैं। साल 1923 में नाभा रियासत में गैर कानूनी ढंग से प्रवेश करने पर औपनिवेशिक शासन ने जवाहर लाल नेहरू को 2 साल की सजा सुनाई गई थी। तब नेहरू ने नाभा रियासत में कभी प्रवेश न करने का माफीनामा देकर दो सप्ताह में ही अपनी सजा माफ करवा ली थी और रिहा भी हो गए थे। इतना ही नहीं जवाहर लाल के पिता मोती लाल नेहरू उन्हें रिहा कराने के लिए तत्कालीन वायसराय के पास सिफारिश लेकर भी पहुंच गए थे। लेकिन वामपंथियों की दृष्टि में नेहरू का यह माफीनामा बॉन्ड था और सावरकर का माफीनामा कायरता।
वामपंथी अपने आपको गांधीजी का अनुयायी कहते हैं लेकिन व्यवहारिकता में देखा जाए तो वे उनका लिखा भी नहीं मानते।
गांधीजी ने 8 मई, 1921 को ‘यंग इंडिया’ में सावरकर के बारे में लिखा था – “अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा, तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र (सावरकर के बड़े भाई भी कैद में थे) सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे। एक सावरकर भाई (विनायक दामोदर सावरकर) को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला है। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं हैं। मौजूदा शासन-प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं।”
लेकिन वामपंथी हैं कि जानकर भी अनजान बनते हैं। वे आज भी वामपंथ समर्थित सरकारों में वीर सावरकर वीर नहीं थे, उनके नाम के आगे से वीर शब्द हटाया जाएगा जैसी राजनीति करते रहते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि सूरज रोशनी का मोहताज नहीं होता, दुनिया उससे रोशन होती है।