शाकाहार अपनाकर भी पृथ्वी को तपने से बचाया जा सकता है…

डॉ. शुचि चौहान
प्रकृति हमें देती है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें। यह गीत सबने अपने बचपन में गाया या गुनगुनाया होगा। परंतु बड़े होने के बाद भी हम इसके मर्म को नहीं समझ पाये। संसार में कोई ऐसा प्राणी नहीं जो प्रकृति को हानि पहुंचाता हो या अपनी आवश्यकता से अधिक लेता हो। परंतु मनुष्य शायद अपने अति विकसित मस्तिष्क के कारण स्वयं को पृथ्वी का अधिष्ठाता समझ बैठा। सब कुछ मेरा है और मेरे लिए है की चाहत में उसने प्रकृति को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है, फिर चाहे वह अपने रहन सहन की आदतों से हो या खान पान की। पर्यावरण असंतुलन आज हमारी इन्हीं आदतों का परिणाम है। मनुष्य यदि अपनी खान पान की आदतों के लिए थोड़ा मानवीय हो जाये, तो इससे भी पृथ्वी के बढ़ते तापमान और मंडराते खतरों को कम किया जा सकता है। आज किसका आहार क्या हो, यह यूं तो पूर्णतया व्यक्तिगत मामला है, परंतु जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं और जो अभी तक मनुष्य के रहने के अनुकूल एक मात्र ज्ञात ग्रह है, हमें उसकी चिंता भी करनी चाहिए।
आज पृथ्वी पर ग्रीन हाउस गैसों का लगातार बढ़ना चिंता का विषय है। इसके समाधान के लिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई तरह के सम्मेलन हर वर्ष आयोजित किए जाते हैं। पेरिस समझौता, पृथ्वी सम्मेलन व क्योटो प्रोटोकॉल जैसी अंतर्राष्ट्रीय संधियां भी हुईं। इन सबके बावजूद हम पृथ्वी के बढ़ते तापमान को रोक नहीं पा रहे। ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन में 22 प्रतिशत हिस्सा मांस व्यवसाय का है। जबकि यह व्यवसाय विश्व के सकल उत्पादन का मात्र 1.5 प्रतिशत है। अनाज खाने वाले पशु मांसाहारी पशुओं की तुलना में अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं। दुनिया भर में इस समय मांस के लिए लगभग 60 अरब पशु पाले जा रहे हैं। 2050 तक इनकी संख्या 120 अरब हो जाने का अनुमान है। जंगली जानवरों के रहने योग्य धरती का एक बड़ा हिस्सा धीरे धीरे मांस के लिए पाले गये पशुओं के लिए छीना जा रहा है। पैदा होने वाले अनाज का एक बड़ा भाग भी इन जानवरों को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार मांस की खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों एवं 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है।
एक एकड़ जमीन पर जहॉं 8 हजार किग्रा मटर या 24 हजार किग्रा गाजर या 32 हजार किग्रा टमाटर का उत्पादन किया जा सकता है वहीं इतनी जमीन के जरिये मात्र 200 किग्रा मांस ही मिलता है। मांस उत्पादन में पानी की खपत भी बहुत अधिक होती है। एक किग्रा अनाज उत्पादन में 17 लीटर, एक किग्रा सब्जी उत्पादन में 45 लीटर तो एक किग्रा मांस पर 180 लीटर पानी खर्च होता है। मांस के प्रसंस्करण पर प्रति किग्रा 135 लीटर तक पानी प्रयुक्त होता है। आज जहॉं सारी दुनिया जल संकट का सामना कर रही है, पानी की खपत के ये आंकड़े मायने रखते हैं।
एक वयस्क मनुष्य साल भर में 150 किग्रा आहार का उपभोग करता है। भारत के संदर्भ में इस 150 किग्रा आहार में औसतन 146.6 किग्रा अनाज और 3.4 किग्रा मांस होता है। जबकि अमेरिका में यह अनुपात 62 किग्रा अनाज और 88 किग्रा मांस का है। इस 88 किग्रा मांस के उत्पादन के लिए 1038 किग्रा अनाज जानवरों को खिला दिया जाता है। इस तरह अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष अनाज के उपभोग का औसत 1100 किग्रा आता है। इन तथ्यों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यदि पृथ्वी पर आधे लोग भी शाकाहारी हो जाएं तो खाद्यान्न भंडारण के संसाधन कम पड़ जायेंगे। आइंस्टीन ने कहा था कि धरती पर जीवन बनाये रखने में कोई भी चीज मनुष्य को उतना फायदा नहीं पहुंचायेगी जितना कि शाकाहार का विकास।
आज दुनिया में सर्वाधिक शाकाहारी भारत में हैं और भारत में भी राजस्थान में। यूं तो भोजन सम्बंधी आदतें सदियों से बनी हमारी संस्कृति व सोच का हिस्सा होती हैं। इन्हें अचानक नहीं बदला जा सकता। परंतु शाकाहार हमारी परम्परा है। भारत में मांसाहार को आवश्यकता व आदत से अधिक ऊंचे जीवन स्तर का सूचकांक माना जाने लगा है। मांस को प्रोटीन का एक बड़ा स्रोत बताया जाता है परंतु दालों और सोयाबीन में भी भरपूर प्रोटीन होता है। शाकाहार से भी शरीर को सम्पूर्ण पोषक तत्व मिलते हैं। उल्टे मांसाहार कई बीमारियों का जनक होता है। प्रकृति ने हमें शाकाहारी बनाया है। शाकाहार को पचने में समय लगता है इसीलिए हमारी आंतें मांसाहारियों की तुलना में बड़ी होती हैं। शाकाहार हमारा प्राकृतिक और स्वाभाविक आहार है। इसके अनेकों फायदे देखते हुए क्यों न हम शाकाहार अपनायें और पर्यावरण को बचाने में अपना गिलहरी प्रयास तो अवश्य करें।