शिवाजीः रोहिडेश्वर से रायगढ़ की यात्रा
महाराज शिवाजी राज्याभिषेक दिवस ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी पर विशेष
– ललित साहू
शिवाजी का संपूर्ण जीवन रोहिडेश्वर से रायगढ़ की यात्रा की कहानी है। उस यात्रा में कभी जय- कभी पराजय, कभी आगे बढ़ना – कभी पीछे हटना, कभी युक्ति – कभी प्रयुक्ति और कभी वीरता – कभी छल का प्रयोग उनके युद्धकौशल की नीति थी। धर्म की स्थापना में शठे शाठ्यम समाचरेत ओर साम दाम दण्ड भेद की नीति को अपना मूलमंत्र बनाकर छत्रपति ने राहिडेश्वर की प्रतिज्ञा को रायगढ़ में पूरा किया।
चीन का विस्तारवाद, पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद, बांग्लादेशी घुसपैठ, बस्तर-अबूझमाड-गढ़चिरोली-दन्तेवाड़ा-करीम नगर-मलकानगिरि जैसे क्षेत्रों में पसरा नक्सलवाद और शहरों में सज्जनता का लबादा ओढ़े उनके संरक्षक अरबन नक्सली, नेपाल द्वारा भारतीय भूभागों को अपने क्षेत्र में दर्शाते नए नक्शे जारी करना, अपने क्षुद्र राजनैतिक हितों के लिये देश में दंगे करवाने वाले राजनैतिक दल, देश को बांटने वाले टुकड़े टुकड़े गैंग, धर्म विशेष से संवेदना रखने वाले अवार्ड वापसी गैंग के छद्म इंटेलेक्चुअल के होते हुए भी भारत घोषणा कर रहा है कि वह आत्मनिर्भर बनेगा, सक्षम बनेगा और समर्थ बनेगा। लेकिन क्या उपर्युक्त समस्याओं और संकटों के होते हुए केवल संकल्प और घोषणाओं के आधार पर हम पुनः विश्वगुरू बन पाऐंगे?
इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिये हमे चलना होगा चार सौ वर्ष पीछे। उत्तर में हिमालय से सूदूर दक्षिण में रामेश्वरम तथा पूर्व में ब्रहमपुत्र से सिन्धु तक के भूभाग तक फैले भारतवर्ष पर सातवीं शताब्दी से ही पश्चिम दिशा में मुगलों के झुण्ड भारत पर टिड्डी दल की भांति हमला करने लगे। सन 1001 मे महमूद गजनवी का सोमनाथ पर आक्रमण और सन 1193 में मोहम्मद गोरी द्वारा अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान का पराभव एवं उसके सौ साल में सम्पूर्ण भारतवर्ष में मुगलों की दासता की बेड़ियां। मुगलों के अत्याचारों से त्रस्त सम्पूर्ण हिन्दू समाज त्राहि त्राहि करने लगा। माता बहनों की सरे आम अस्मत लूटी जाने लगी। देवी देवताओं की मूर्तियां और मंदिर भग्नावेषों में बदलते रहे। तलवार के बल पर इस्लाम में धर्म परिवर्तन कराया जाने लगा। सर्वदिक ऐसा अंधकार छा गया कि प्रकाश का अंशमात्र भी दृष्टिगोचर नही होता था। ऐसे में सह्याद्री की गोद से प्रस्फुटित प्रकाश पुंज ने रोहिडेश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा ली कि भारत में मुगलों के शासन का अंत कर हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना करूंगा।
एक ओर दिल्ली की मुगलिया सल्तनत, दूसरी ओर बीजापुर की आदिलशाही, तीसरी तरफ हैदराबाद की कुतुबशाही, पश्चिम में डच, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेज और स्थानीय स्वाभिमान शून्य, छोटे छोटे स्वार्थों के कारण मुगलों के पिट्ठू बने हिन्दू सरदार (याद कीजिये आज की स्थिति चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, नक्सली, टुकड़े टुकड़े गैंग और अवार्ड वापसी के बुद्धिजीवी) इन सब परिस्थितियों के बावजूद छत्रपति शिवाजी ने शून्य से सृष्टि का निर्माण करते हुए ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी वि.स.1731 को हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना की।
19 फरवरी 1630 को जीजाबाई की कोख से शिवनेरी के दुर्ग में जन्मा बालक शिवा, माता और दादा कोंडदेव के मातृत्व और संरक्षण की छाया में पूना के लाल महल में किशोर होता वह सिंह शावक जैसे हिन्दुत्व के लिये साक्षात अवतार ही था। डा. हेडगेवार को जिस प्रकार जन्मजात देशभक्त के नाम से संबोधित किया जाता है वेसे ही शिवा द्वारा अल्पवय में आदिलशाह को कोर्निस करने से मना करना और गौ हत्या करने को उतारू कसाई के हाथ को अपनी तलवार के एक वार से काट देने का पराक्रम उनको जन्मजात हिन्दू धर्म रक्षक के रूप में स्थापित करता है।
तथाकथित निम्न जाति के गरीब व वनवासी मावल युवकों के साथ एक संभ्रांत सरदार के लड़के शिवाजी का मिलना जुलना, एक साथ खाना और साहसिक अभियान करना, देश-समाज-धर्म की परिस्थितियों से अनभिज्ञ युवकों को प्रेरणा देकर स्वराज के लिये तन मन धन न्योछावर करने वाले नरसिंहों के रूप में परिवर्तित करना, शिवाजी के संगठन कौशल्य व सामाजिक समरसता का परिचायक है। तानाजी मालसुरे, जीवाजी महाले, बाजी प्रभुदेश पांडे, येशा जी कंक, चीमणा जी, प्रताप राव गुर्जर, बाजी जेधे, बाजी पासलकर ऐसे नवरत्न थे, जिनके सुदृढ़ कंधों पर स्वराज का महल खडा हुआ।
शिवाजी का संपूर्ण जीवन रोहिडेश्वर से रायगढ़ की यात्रा की कहानी है। उस यात्रा में कभी जय- कभी पराजय, कभी आगे बढ़ना – कभी पीछे हटना, कभी युक्ति – कभी प्रयुक्ति और कभी वीरता – कभी छल का प्रयोग उनके युद्ध कौशल की नीति थी। सम्पूर्ण भारतवर्ष में वे अकेले ऐसे इतिहास पुरूष हैं जिन्हें भगवान श्री कृष्ण के सच्चे उत्तराधिकारी होने का गौरव प्राप्त है। धर्म की स्थापना में शठे शाठ्यम समाचरेत ओर साम दाम दण्ड भेद की नीति को अपना मूलमंत्र बनाकर छत्रपति ने राहिडेश्वर की प्रतिज्ञा को रायगढ़ में पूरा किया।
स्पेन के युवकों ने प्रायद्वीपीय युद्धों में तथा रूस के अनियमित सैनिकों ने मास्को के युद्ध में जिस छापामार युद्व या गोरिल्ला वॉर के जरिये नेपोलियन की नाक में दम कर दिया था, उस गनिमी कावा (गोरिल्ला युद्ध) के भारत में प्रणेता शिवाजी थे। छत्रपति के सेनानायक शंताजी घोरपडे और धनाजी जाधव ने अपने भ्रमणशाली दस्तों से सारे देश को पदाक्रान्त कर दिया था। मराठों की इसी युद्ध नीति ने मुगलों के साधनों को नष्ट कर दिया और परेशान होकर ओरंगजेब को अपनी सुसज्जित सेना अहमदनगर वापस बुलानी पड़ी। जासूसों का पूरा दस्ता शिवाजी की रणनीति का हिस्सा रहता था। बहिर जी नायक द्वारा जासूसी के माध्यम से अनेक प्रकरणों मे शिवाजी की मदद के किस्से महाराष्ट्र में आम हैं। दरिया भवानी, बंदरगाहों के निर्माण, जलदुर्ग, नौका चालन की प्रेरणा पुर्तगालियों से प्राप्त कर शिवाजी ने स्वदेशानुकूल जल सेना बनाई। नेताजी पालकर और बालाजी निंबालकर को अपनी अस्मिता का भान करा कर पुनः हिन्दू धर्म में शुद्धिकरण के माध्यम से परावर्तित करना, शिवाजी द्वारा धर्म को नई दृष्टि प्रदान करना था।
परतन्त्रता के लम्बे कालखण्ड में अनेकों महापुरूषों ने मुगलों से आजन्म लोहा लिया। परन्तु उनमें से शिवाजी को छोड़कर ऐसा कोई नहीं था जिसने मुगलों को चुनौती देकर दिल्लीपति बनने का साहस किया हो। शिवाजी की यह प्रवृति इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि हमें कुएं के मेढक बन कर नही बैठना है। भूतकाल में हमसे जो भी मुगलों ने हमसे छीना है, वो सारा का सारा हमारा है और हम उसे पुनः प्राप्त करेंगे, शिवाजी का यह विचार उनके अदम्य साहस व शौर्य को दर्शाता है।
केवल 16 वर्ष की वय में खेल खेल में तोरणा का किला जीतना तो विराट हिन्दू साम्राज्य के मार्ग की प्रथम सीढ़ी थी। रायगढ़, कोंडाणा, चाकण, सिंहगढ़, जंजीरा, प्रतापगढ़ जैसे 360 किले शिवाजी राजे ने अपने जीवनकाल में जीते। इन किलों की जीत की एक एक कहानी महाराष्ट्र में आज भी लावणी के गीतों में गाई जाती है। पन्हाला हमें बाजीप्रभु, कोंडाणा दुर्ग तानाजी मालसुरे और प्रतापगढ़ का किला हमें अफजल खान वध के अप्रतिम शौर्य की गाथाएं सुनाता है।
औरंगजेब की कैद से अपने पुत्र सहित भाग निकलना, पन्हालगढ़ से सिद्धि जोहर को चकमा देना, लाल महल में बारातियों के भेष में घुस कर शाइस्ता खान को शिकस्त देना, प्रतापगढ़ के पॉयते पर अफजल खान का वध, और ना जाने कितने ही शौर्य, साहस व चतुराई से पूर्ण कार्य शिवाजी ने अपने जीवनकाल में किये।
लेख की शुरूआत में वर्णित परिस्थितियों को जब देखते हैं और शिवाजी के हिंदवी साम्राज्य की स्थापना पर विचार करते हैं तो लगता है कि कुछ भी असंभव नहीं है। शिवाजी ने मुगलों की दासता के घनघोर अन्धकारमय युग में हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना को साकार कर दिखाया तो आवश्यकता बस, दृढ़ निश्चय करने और उसे आत्मबल से प्राप्त करने की है। आज भारत अपेक्षाकृत सक्षम व सबल है। भारत के वर्तमान संकटों का सामना शिवाजी महाराज की नीतियों से प्रेरणा लेकर ही किया जा सकता है।
अत्यंत प्रभावी लेख
बहुत ही सुंदर लेख हैं।आपको पाथेय कण में निरंतर लिखना चाहिए।
हिन्दवी साम्राज्य के प्रखर योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी बहुत ही कम शब्दों में प्रस्तुत कर लेखक ने अपनी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है।
साधुवाद लेखक महोदय श्री ललित साहु