श्रमिकों के प्रवास पर राजनीति और स्वयंसेवकों द्वारा सेवा का सकारात्मक सन्देश

1 जून 2020

– डॉ. अवनीश नागर

कोविड-19 रूपी वैश्विक महामारी ने कुछ महीनों में ही सम्पूर्ण विश्व को एक संक्रमित क्षेत्र में बदल दिया है। दुनिया की एक तिहाई से अधिक आबादी अभी भी लॉकडाउन के चलते अपने घरों में रहने को मजबूर है और बड़ी से बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ भी इस अदृश्य वायरस के प्रभाव में असहाय एवं बौनी दिखाई दे रही हैं। वे लोग जो संक्रमण से ठीक होकर अपने घर लौट आए हैं वे भी अपने मन से कोरोना के भय को बाहर नहीं निकाल पाए हैं और जो लोग अभी तक संक्रमित नहीं हुए हैं वे भी अपने भविष्य को लेकर आशंकित ही हैं। सीधे तौर पर पूरी दुनिया आज कोरोना के भय में जीवन यापन कर रही है। सरकार द्वारा अभूतपूर्व प्रयास किये जाने के उपरांत भी कई लोगों की नौकरियों और व्यवसाय के भविष्य को लेकर डर बना हुआ है। किन्तु कोरोना के मामले और बचाव की ख़बरों के मध्य हजारों प्रवासी श्रमिकों के नगरों से पलायन ने देश के समक्ष पहली बार उनके विराट स्वरूप व स्थिति का चित्रण किया है। केंद्र और राज्य शासकों के अनेक आश्वासन व कुछ सहयोग के उपरांत भी ऐसे क्या कारण रहे कि इतनी संख्या में श्रमिकों ने सभी आकर्षण छोड़ किसी भी परिस्थिति में अपने गाँवों की ओर ही जाना उचित समझा, जो वास्तव में चिंतन का विषय है। यह संभव है कि श्रमिकों का अपने राज्यों की ओर गमन उनकी स्वप्रेरणा हो पर हर विषय पर समाज को तोड़ने वाले समूह इस संवेदनशील मुद्दे को भी अपने निहित स्वार्थ के लिए उपयोग करने से बाज नहीं आए। उनके द्वारा मुद्दे को गर्म करने से मीडिया ने भी इस विषय को हाथों-हाथ लिया फिर तो इसमें राजनेता व राजनीतिक दल भी नहीं चूके। इसीलिए श्रमिकों की घर वापसी के लिए बस भिजवाने से लेकर, बैठ कर फोटो खिंचवाने तक जमकर बयानबाजी भी हुई किन्तु गाँव लौटते इन श्रमिकों के वास्तविक घावों को समझने व भरने के प्रयास में राजनीतिक दलों द्वारा गंभीरता नहीं दिखाई गई यद्यपि कुछ सामाजिक संगठनों ने इस दौरान अद्भुत कार्य किया है।

अब जब धीरे-धीरे लॉकडाउन खुल रहा है और जनजीवन फिर से सामान्य स्थिति में लाने का प्रयास किया जा रहा है तब पलायन की कुछ पीड़ादायी घटनाओं और नकारात्मकता के बीच पीड़ितों की सेवा की उजली तस्वीर का भी उल्लेख करना आवश्यक है।

इस दौरान भारतीय समाज स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सबसे विशाल मानव पलायन एवं देशव्यापी बंद का साक्षी बना, फिर भी कुछ छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो देशवासियों ने अभूतपूर्व धैर्य का परिचय दिया। केवल संख्या के दृष्टिकोण से तो यह प्रक्रिया देश के विभाजन के समय से भी ज्यादा व्यापक और जटिल थी, विशेषकर श्रमिकों के अंतर्राज्यीय पलायन की गंभीरता का आंकलन इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रवासी श्रमिकों की यह संख्या ब्रिटेन के कुल नागरिकों से भी अधिक थी, फिर भी कुछ अपवाद को छोड़ दें तो केंद्र और राज्यों की सरकारों ने गंभीरता का परिचय देते हुए समन्वय के साथ राहत पहुँचाने हेतु साझा और अच्छे प्रयास किये।

देश के निम्न मध्यम वर्ग से लेकर संपन्न वर्ग तक समाज का एक बड़ा तबका स्वयं अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार योगदान देता दिखाई दिया, जो किसी भी देश के लिए संतोष का विषय हो सकता है। कुछ लोग जो प्रत्यक्ष रूप से सहायता नहीं कर सकते थे उन्होंने प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री राहत कोष में सहायता राशि जमा कराई, तो अनेक व्यक्ति अपने स्तर पर आस-पड़ोस के वंचित लोगों की सहायता करते दिखे। एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो अपनी जाति बिरादरी के बैनर तले संगठित हो अभावग्रस्त को सहायता देने का कार्य करता रहा। गाँवों और कस्बों के सक्रिय युवा अपनी मित्र मण्डली के साथ संक्रमित होने की चिंता किये बिना सम्पूर्ण देश में पैदल अथवा साईकल से निकलते प्रवासियों की सहायता करते दिखाई दिए।

इन सभी प्रयासों के मध्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बंधित संगठनों के स्वयंसेवकों ने अपने सेवा कार्यों द्वारा सभी को प्रभावित करते हुए देश में सेवा कार्यों का नेतृत्व किया। संघ के स्वयंसेवक पूरी प्रामाणिकता एवं निष्ठा के साथ प्रवासी श्रमिकों की सहायता करते दिखाई दिए। संघ ने अपने 4 लाख से अधिक कार्यकर्ताओं को किसी न किसी रूप में सेवा कार्यों से जोड़े रखा। राजस्थान के चाकसू में जब झारखंड के मजदूरों के फँसे होने का समाचार आया और उन्हें भेजने के लिए प्रशासन बस उपलब्ध नहीं करा सका तो संघ के कार्यकर्ता द्वारा निजी बस के माध्यम से राहत पहुँचाने का कार्य किया गया। संघ के स्वयंसेवक सुनियोजित तरीके से रांची, आगरा, बरेली, बनारस, गाज़ियाबाद, भुवनेश्वर से लेकर रायपुर तक देश के सभी प्रमुख राजमार्गों से जाने वाले प्रवासी श्रमिकों की सेवा में लगे रहे। ऐसे स्थानों पर अस्थाई आश्रय स्थल बनाए गए तथा श्रमिकों को आग्रह पूर्वक पीने का ठंडा पानी, भोजन, दवाइयाँ और राशन उपलब्ध करवाए गए। कहीं-कहीं तो स्वयंसेवकों द्वारा पैदल जाते राहगीरों को जूते-चप्पल भी वितरित किये गए। जयपुर में जब संघ के पदाधिकारियों को स्थानीय लोगों से सूचना प्राप्त हुई कि शहर में सुबह दो बसों में बिहार के श्रमिक आए हुए हैं और उन्हें भोजन की आवश्यकता है तो उसी समय संघ के कार्यकर्ताओं ने आपसी समन्वय कर शीघ्रातिशीघ्र सभी के लिए भोजन के पैकेट पहुँचा दिए। इसी प्रकार पूरे लॉकडाउन के दौरान स्वयंसेवकों द्वारा जयपुर और उसके जैसे अनेक महानगरों से जुड़े सभी राजमार्गों पर टोली बनाकर ट्रकों में बैठे मजदूरों को भोजन व पानी पहुँचाने का कार्य किया गया।

एक ऐसे समय में जब भारत महामारी से निपटने में लगा हुआ है, सामाजिक संगठनों द्वारा निस्वार्थ भाव से किये गए सकारात्मक कार्य न सिर्फ महामारी से लड़ने में देश की मदद कर रहे हैं बल्कि समाज और विशेषकर प्रवासी श्रमिकों को भी संकट के समय संबल दे रहे हैं, जिसकी आज उन्हें सख्त आवश्यकता है।

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