सदियों तक प्रेरणा देते रहेंगे वीर सावरकर
28 मई / वीर सावरकर जयंती पर विशेष
– कुमार नारद
यह सचमुच विचारणीय है कि हम अपनी नई पीढ़ी को किन लोगों के जीवन चरित्र से वंचित कर रहे हैं। जिस वीर सावरकर से स्वतंत्रता के आंदोलन में युवा प्रेरणा लेते रहे, क्या वह वीर सावरकर स्कूली पाठ्यक्रमों में एक पाठ के योग्य भी नहीं हैं?
कई महीने हुए, जब एक राजनैतिक टिप्पणी- ‘….सावरकर नहीं हूं जो माफी मांगूंगा….’ ने खूब चर्चाएं बटोरी थीं। सोशल मीडिया से लेकर राजनैतिक मंचों तक राजनैतिक दलों के बीच जमकर बयानबाजी हुई। लेकिन उस दिन भारत की आत्मा जरूर आहत हुई होगी। स्वामी विवेकानंद ने एक भाषण में कहा था कि – जो देश और समाज अपने महापुरुषों का सम्मान नहीं करता, उस देश और समाज का भविष्य अंधकारमय होता है। हम अपने स्वातंत्र्य वीर सावरकर का क्या इस तरह सम्मान करेंगे? अदम्य साहसी, दूरदृष्टा, सफल रणनीतिकार और स्वतंत्रता संग्राम में हजारों युवाओं को प्रेरणा देने वाले वीर सावरकर का सम्मान क्या हम राजनैतिक मंचों से इस तरह की हास्यास्पद परिस्थितियां पैदा कर करेंगे? महापुरुषों का सम्मान सबका कर्तव्य है। इसका निर्णय आज के भारत और उसकी युवा पीढ़ी को करना है।
भारत का युवा विवेकवान है। वह अपने पूर्वजों और महापुरुषों का सम्मान करना जानता है। लेकिन हमने उनकी आंखों के सामने एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी है कि वे अपने अतीत और महापुरुषों के वीरत्व को अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था में उन हुतात्माओं के बारे में पाठ शामिल करना राजनैतिक विषय हो जाता है। यह सचमुच विचारणीय है कि हम अपनी नई पीढ़ी को किन लोगों के जीवन चरित्र से वंचित कर रहे हैं। जिस वीर सावरकर से स्वतंत्रता के आंदोलन में युवा प्रेरणा लेते रहे, क्या वह वीर सावरकर स्कूली पाठ्यक्रमों में एक पाठ के योग्य भी नहीं हैं?
वीर सावरकर के अदम्य साहसी जीवन को पढ़ और सुनकर भारत की पीढ़ियां सदियों तक प्रेरणा लेती रहेंगी। इसलिए उनके जीवन के उन क्षणों के बारे में हर भारतीय युवा को जानना जरूरी है। भारत में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार वीर सावरकर से भयग्रस्त रहती थी। वीर सावरकर के फ्रांस के समुद्र में जहाज से ऐतिहासिक छलांग लगाने की घटना के बाद ब्रिटिश सरकार सावरकर से बुरी तरह डर गई थी। राजद्रोह के मामलों में उन पर भारत में दो मामले चले और इन मामलों में उन्हें दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। उन्हें मुंबई जेल में भेज दिया गया। मुंबई जेल में अगली सेल में छोटा भाई भी कैद था। लेकिन वह उससे मिल नहीं सकते थे। मुंबई जेल से उन्होंने पत्र लिखा कि दो आजन्म कारावास की सजा देकर अंग्रेजों ने पुनर्जन्म का भारतीय दर्शन तो स्वीकार कर ही लिया। यहां से उन्हें पोर्ट ब्लेयर की सेल्युलर जेल भेज दिया गया।
ऐसे समय में जब, वह सबसे कठोर जेल में जा रहे थे, उन्होंने अंडमान का इतिहास और भूगोल पढ़ लिया था। उनका मानना था कि भारत पर बाहरी आक्रमण का कारण दमन-दीव और मालदीव की अनदेखी रही है।
सावरकर को यह कारावास अंडमान में सेलुलर जेल में भुगतना था, जहां जाने का अर्थ होता था अमानवीय मौत। कितने ही कैदी उस जेल की कठोर यातनाओं से विक्षिप्त हो गए थे। वहां का आयरिश जेलर अत्यंत क्रूर था। उसकी क्रूरता का चरम यह था कि वह हाथ-पैरों के बीच डंडा फंसाकर यातनाएं देता था। सावरकर को वहां सबसे अमानवीय कार्य दिया गया- नारियल से रेशे निकालकर कोल्हू से शाम तक तीस पौंड यानी बारह किलो तेल निकालना। आम कैदी दस-बीस चक्कर लगाने के बाद मूर्छित होकर गिर पड़ते थे। तेल तय मात्रा से थोड़ा भी कम होने पर उन्हें भोजन नहीं दिया जाता था। जेल में नियम तोड़ने पर भयानक यातनाएं दी जाती थीं। लेकिन सावरकर ने इन यातनाओं को झेलते हुए भी कैदियों का मनोबल बनाए रखा। उनका मनोबल बनाए रखने के लिए उनसे दीवारों के बीच से बात करते। दीवारों पर कविताएँ लिखते। उन्होंने जेल की दीवारों पर दस हजार से ज्यादा पंक्तियां लिखीं। उन्हें वे सभी कविताएँ कंठस्थ थीं। छोटे भाई को पत्र लिखकर उन्हें अखबारों में छपवाते थे। हथकड़ी की बेड़ियों की लिपियां बनाकर सैकड़ों कविताएं दीवारों पर लिखीं। कैदियों की अदला-बदली होने पर अन्य कैदी उन कविताओं को पढ़ते थे।
सावरकर के अंग्रेजों से माफीनामे को लेकर अक्सर राजनैतिक हलकों में टिप्पणियां की जाती हैं। लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों, सावरकर की रणनीति और शिवाजी महाराज की युद्ध कूटनीति को समझे बिना उनके माफीनामे को समझना आसान नहीं है। इसे, इस बारे में उनकी मराठी में लिखी आत्मकथा माझी जन्माथे से समझा जा सकता है। उनके ब्रिटिश मित्र डेविड गारनेट के शब्दों में- मैं यह सोच भी नहीं सकता कि सावरकर जैसा व्यक्ति अपनी पूरी उम्र जेल में समाप्त कर सकता है। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं अपनी मातृभूमि की सेवा जेल से बाहर रहकर ज्यादा अच्छे तरीके से कर सकता हूं। इसलिए मैं जेल से बाहर आने के लिए उनकी हर शर्त मानने को तैयार हो गया था। उनका एकदम साफ सिद्धांत था कि असली साहस दुश्मन पर जबरदस्त आक्रमण करके उनकी पहुंच से दूर रहने में है। उनका मत था कि अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए दुश्मनों को मिथ्या आश्वासन देने, उनसे झूठ बोलने, धोखा देने या बहकाने में कोई बुराई नहीं है। सावरकर लिखते हैं कि राष्ट्र के लिए मैं अंडमान की जेल में जो कुछ भी कर रहा था वह बहुत कम था। इसके स्थान पर मैं यहां से मुक्त होकर मातृभूमि के लिए ज्यादा कर सकता था।
आम तौर पर युद्ध काल में, राजनैतिक हित के लिए इस तरह की याचिकाएं या संधियां सामान्य रणनीति होती हैं। वह समय भी भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति का संघर्ष काल था। जिन्हें राजनैतिक कूटनीति के बारे में जानकारी नहीं होती है, वे लोग ही इस तरह की संधियों को आत्मसमर्पण कहते हैं। इसलिए लगता है सावरकर की आलोचना करने वाले जरूर उन संधियों में उलझ गये हैं, जिनमें सावरकर अंग्रेजों को फंसाना चाहते थे। इन दया याचिकाओं के पीछे सावरकर का मंतव्य ब्रिटिश सरकार को धोखा देना था और जेल से मुक्त होकर मां भारती की सेवा करना था। लेकिन अंग्रेज सावरकर को सबसे खतरनाक विद्रोही मानते थे और विद्रोहियों का नेता समझते थे, इसलिए चतुर अंग्रेज उनके इस धोखे में नहीं फंसे। लेकिन ऐसा लगता है हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी उस जाल में अभी तक उलझे हुए हैं।
सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 के गदर को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा। उनकी लिखी पुस्तक ‘स्वातंत्र्य समर 1857’ स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारियों को प्रेरणा देती रही। प्रकाशन पर रोक के बावजूद क्रांतिकारियों के पास पहुंचती रही। उन्होंने रत्नागिरी में पतित पावन मंदिर, जो अभी तक मौजूद है, में समाज के सभी लोगों को प्रवेश देकर सामाजिक एकता का बहुत बड़ा काम किया था। वह मतांतरण विरोधी थे। उन्होंने मत परिवर्तित हुए हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में लाने का अभियान चलाया। एक ही जीवन में अनके ऐतिहासिक कार्य करने वाले युवा नायक सावरकर का जीवन हर युवा पीढ़ी को पढ़ना चाहिए, जिससे उनके भीतर आत्मगौरव की भावना जाग्रत हो।