भारत में समाजवादियों द्वारा लोक कल्याणकारी राज्य की झूठी अभिकल्पना क्यूं गढ़ी गई?
विवेक भटनागर
राज्य पर अवलम्बित समाज निर्माण की आवश्यकता ही क्या है? क्या शोषण का नारा समाप्त हुआ? क्या आपको वाल्तेयर के अनुसार खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार मिला? वोट देने से क्या आप सरकार में भागीदार हुए? क्या सत्ता ने आमजन को कोई सुरक्षा कहीं पर भी प्रदान की? न्याय प्रणाली त्वरित हुई? कार्यपालिका ने प्रर्वतन का, प्रशासन का काम जनहित में किया? इन सब पर विचार करें तो नेशन स्टेट की फ्रांसीसी अभिकल्पना विगत 200 वर्षों में ही विफल हो गई थी।
भारतीय समाज की कल्पना में परिवार, कुल, वंश, समूह, ग्राम, विश, जन, जनपद, महाजनपद, राष्ट्र और वर्ष की विचारधारा आधुनिक इतिहास कालक्रम के अनुसार लगभग 5000 वर्ष और भारतीय कालक्रम के अनुसार करोड़ों वर्षों से स्पंदन में है। यहां पर शासन, प्रशासन, प्रर्वतन, न्याय और राज्य सभी इसी प्रक्रिया से निकल कर आते थे। पिता को शासन करने से लेकर न्याय करने तक के अधिकार प्राप्त थे। पिता परिवार की इकाई का अधिकारी भी था। शासन से न्याय तक सब त्वरित था।
आखिर भारत में समाजवादियों द्वारा लोक कल्याणकारी राज्य की झूठी अभिकल्पना क्यूं गढ़ी गई? शासन चलाने का तरीका आधुनिक होना चाहिए, लेकिन वह अगर लोक कल्याण के नाम पर समाज की प्रगति में बाधक बन जाए तो क्या वह स्वीकार किया जाना चाहिए? यह बहुत बड़ा सवाल है। आज समाज के हर हिस्से में अराजकता फैलाई जा रही है। परिवार में स्त्रीयत्व और स्त्री अधिकार के नाम पर अस्थिरता तो समाज में शोषण के नाम पर अस्थिरता। अपराधी को दण्डित नहीं कर उसे प्रशिक्षित करने के नाम पर अस्थिरता।
इन सब के बीच से निकलता है लोक कल्याण का झूठा विचार। अगर उपरोक्त अस्थिरताओं को समाप्त कर दिया जाए तो लोक कल्याण के क्या मायने बचेंगे, यह विचारणीय प्रश्न है। लोक कल्याण अस्थिरता की गलियों से निकलता है और सत्ता की आवश्यकता बन जाता है। अर्थात् अस्थिरता है तो ही आवश्यकता है लोकल्याणकारी राज्य की।