सरकारी नौकरी में रहकर सेवाकार्य करना अब अपराध नहीं, संघ स्वयंसेवकों को मिली राहत
सरकारी नौकरी में रहकर सेवाकार्य करना अब अपराध नहीं, संघ स्वयंसेवकों को मिली राहत
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सामाजिक संगठन है। अपने गठन से लेकर आज तक उसने अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं। उस पर तीन बार प्रतिबंध लगे। 1966 में सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस (RSS) की गतिविधियों में सम्मिलित होने पर बैन लगा दिया गया, जो अब 58 वर्षों बाद हटा है।
भारत सरकार के इस निर्णय का स्वागत करते हुए संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 99 वर्षों से सतत राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं समाज की सेवा में संलग्न है। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता-अखंडता एवं प्राकृतिक आपदा के समय में समाज को साथ लेकर संघ के योगदान के चलते समय-समय पर देश के विभिन्न प्रकार के नेतृत्व ने संघ की भूमिका की प्रशंसा भी की है। अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते तत्कालीन सरकार द्वारा शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए निराधार ही प्रतिबंधित किया गया था। शासन का वर्तमान निर्णय समुचित है और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है।
https://x.com/RSSorg/status/1815271110533112154
कब कब लगा संघ पर प्रतिबंध
संघ पर पहला प्रतिबंध 1948 में नेहरू सरकार द्वारा लगाया गया था। जिस पर गृहमंत्री सरदार पटेल समेत अनेक नेता सहमत नहीं थे। आरएसएस द्वारा सत्याग्रह के बाद यह प्रतिबंध हटा दिया गया। लेकिन 1966 में सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस में शामिल होने पर रोक लगा दी गई। कांग्रेस ने यह कदम अज्ञानता, गलत धारणाओं व राजनीतिक स्वार्थ के चलते उठाया। संघ की 99 वर्षों की यात्रा पर हम यदि दृष्टि डालेंगे तो पाएंगे कि संघ का जन्म ही एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन के रूप में हुआ था, तब से ही यह राष्ट्रहित के मुद्दों पर सकारात्मक कार्य करते हुए किसी भी राष्ट्रीय आपदा की परिस्थिति में पीड़ितों की सहायतार्थ बढ़-चढ़कर आगे रहता आया है।
1975 में इमरजेंसी के समय, संघ पर दूसरी बार प्रतिबंध लगाया गया। संघ ने इस बार भी प्रतिबंध का विरोध किया और 1977 के चुनावों में इसका परिणाम कांग्रेस की हार के रूप में सामने आया। इसके बाद आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया गया।
1992 में कारसेवा के समय अयोध्या में कारसेवकों द्वारा बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद कांग्रेस को आरएसएस पर बैन लगाने का एक और अवसर मिल गया। इस बार यह प्रतिबंध UAPA 1967 के अंतर्गत लगाया गया था। मामला ट्रिब्यूनल कोर्ट में गया, लेकिन कोर्ट को आरएसएस के विरुद्ध पर्याप्त सबूत नहीं मिले और प्रतिबंध हटा दिया गया।
RSS से जुड़े सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से हटाया
कांग्रेस ने सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस की शाखा में जाने और अन्य गतिविधियों में शामिल होने से रोकने का भरसक प्रयास किया। तत्कालीन सरकार ने पुलिस से कहा कि वो सत्यापित करे कि केंद्र में काम करने वाले लोग आरएसएस से तो नहीं जुड़े हैं। पुलिस द्वारा सत्यापन के बाद, कई कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं :
1. रामशंकर रघुवंशी स्कूल शिक्षक थे और आरएसएस से जुड़े होने के कारण नौकरी से निकाल दिए गए।
2. रंगनाथाचार्य अग्निहोत्री कर्नाटक में मुंसिफ के पद के लिए चुने गए थे। पुलिस सत्यापन में पता चला कि वे येलबुर्गा में कभी आरएसएस के किसी कार्यक्रम के आयोजक थे। इस पर सरकार ने उन्हें नौकरी में प्रवेश देने से मना कर दिया। यह वर्ष 1966 की बात है। रंगनाथाचार्य कोर्ट चले गए। उनकी याचिका पर निर्णय देते हुए मैसूर हाईकोर्ट ने कहा कि प्रथम दृष्ट्या आरएसएस एक गैर राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संगठन है जो कि गैर-हिन्दुओं के प्रति किसी भी द्वेष अथवा घृणा की भावना से मुक्त है। इसी क्रम मे कोर्ट ने आगे कहा कि संघ ने भारत में लोकतान्त्रिक पद्धति को स्वीकार किया है। अतः राज्य सरकार द्वारा याची को सेवा से हटाने का निर्णय गलत है। इसके साथ ही न्यायालय ने उक्त कर्मचारी को सेवा में लेने का निर्णय सुनाया।
3. राज्य सरकार के कर्मचारी रामपाल को संघ गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में पद से हटा दिया गया। तब वर्ष 1967 में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने रामपाल को पद से हटाने संबंधी आदेश को रद्द करते हुए कहा कि संघ कोई राजनैतिक संगठन नहीं है, अतः इसकी गतिविधियों में भागीदारी करना कानूनी रूप से गलत नहीं है।
4. चिंतामणि नागपुर के उप पोस्ट मास्टर थे। उन पर आरोप लगाया गया था कि वे स्वयंसेवक हैं और संक्रांति के अवसर पर संघ कार्यालय गए थे। इतनी सी बात के लिए चिंतामणि को सेवा से हटा दिया गया था। उन्होंने विशेष सिविल अपील संख्या 22/52 में बॉम्बे (नागपुर बेंच) में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। जहाँ कोर्ट ने कई अहम बातें कहीं। न्यायालय ने कहा, याचिकाकर्ता चिंतामणि के मामले में, पहला आरोप यह है कि वह आरएसएस की गतिविधियों से जुड़े हैं और उसमें सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। लेकिन आरएसएस ऐसा संगठन नहीं है, जिसे गैरकानूनी घोषित किया गया हो। आरोप में यह भी नहीं बताया गया है कि आरएसएस की कौन सी गतिविधियाँ हैं, जिनमें भागीदारी या जिनसे जुड़ाव को विध्वंसक माना जाता है। कोर्ट ने चिंतामणि पर लगाए गए आरोपों को लेकर कहा कि सरकार बेहद अस्पष्ट है। जब तक किसी व्यक्ति पर उचित रूप से यह संदेह न हो कि वह कुछ गैरकानूनी काम कर रहा है या सार्वजनिक सुरक्षा के लिए हानिकारक है, तब तक यह कहना कठिन है कि किसी ऐसी संस्था से जुड़ाव मात्र, जिसे न तो गैरकानूनी घोषित किया गया है और न ही किसी असामाजिक या देशद्रोही या शांति भंग करने वाली गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप है, कोई अपराध है। इसलिए इसके कार्यों में शामिल होना नियम 3 के अंतर्गत कार्रवाई का आधार नहीं बन सकता।
संघ का इतिहास देखें, तो पता चलता है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, कई सेना अधिकारी और समाज के विभिन्न क्षेत्रों के मूर्धन्य लोग संघ के विविध कार्यक्रमों में आते रहे हैं। उन्होंने हमेशा संघ का समर्थन करते हुए उसके कार्यों सराहना की है। वर्ष 2000 में, संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह ने सरकारी कर्मचारियों के द्वारा संघ की गतिविधियों मे भाग लेने पर प्रतिबंध लगाने अथवा हटाने की कार्यवाही में हस्तक्षेप न करते हुए इसके निर्णय का अधिकार ही सरकारों पर छोड़ दिया था। लेकिन सबसे पहले, गुजरात ने इस दिशा में कदम उठाया। बाद में उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश की सरकारों ने भी ऐसा करने की बात कही। तब काँची पीठ के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने राज्य सरकारों द्वारा शासकीय कर्मचारियों द्वारा आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक के निर्णय को वापस लेने का समर्थन किया था।
आज के परिदृश्य में, सरकार के वर्तमान निर्णय का कुछ राजनीतिक पार्टियों को छोड़ दें तो समाज के हर वर्ग ने इसका स्वागत किया है।