सरबंस दानी गुरु गोबिंद सिंह

सरबंस दानी गुरु गोबिंद सिंह

गुरु गोबिंद सिंह जयंती/ 9 जनवरी 2022 

सरबंस दानी गुरु गोबिंद सिंह

आज सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह की 355वीं जयंती है। गुरु गोबिंद सिंह धर्म रक्षा, शौर्य और न्याय की भावना का प्रतीक हैं। वह दूसरों पर अत्याचार करने वालों के विरुद्ध दृढ़ता के साथ खड़े हुए और इसके लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। उन्हें ऐसे परम बलिदान के लिए याद किया जाता है, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। उन्हें प्रायःसरबंस दानीके रूप में जाना जाता है क्योंकि उनके पिता, मां और चारों बेटों सहित पूरे परिवार ने औरंगजेब के विरुद्ध धर्म युद्ध में वीरगति प्राप्त की। औरंगजेब का आदेश था कि सभी सिख इस्लाम में मतांतरित (कन्वर्ट)  हो जायें अन्यथा उन्हें मार दिया जाएगा। दिसंबर 1705 में चमकौर की लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े बेटों अजीत सिंह और जुझार सिंह को युद्ध में संघर्ष करते हुए वीरगति प्राप्त हुई। गुरु के छोटे बेटों जोरावर सिंह (आयु 9 वर्ष) और फतेह सिंह (आयु 7 वर्ष) माता गुजरी को सरहिंद के सूबेदार वजीर खान द्वारा पकड़ लिया गया। तीनों को इस्लाम में कन्वर्ट होने या मृत्यु का सामना करने में से एक चुनने के लिए कहा गया। किन्तु वे धर्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में दृढ़ रहे। 11, दिसंबर, 1705 को गुरु के दोनों बेटों को एक दीवार में जिंदा चिनवाने का आदेश दिया गया, किन्तु दीवार की ईंट उनके सिर को ढंकने से पहले ही ढह गई, जिसके बाद उन्हें अगले दिन मार डाला गया। माता गुजरी जी को दिसंबर के ठंडे महीने में बिना गर्म कपड़ों के चारों तरफ से खुले एक बुर्ज के ऊपर कैद कर लिया गया था। माता गुजरी जी ने भी सिख परंपरा का निर्वहन करने हुए बिना किसी शिकायत के गुरु की बानी गाते हुए अपने पोतों के साथ वीरगति प्राप्त की।

गोबिंद सिंह, गुरु तेग बहादुर (नौवें सिख गुरु) और माता गुजरी देवी के इकलौते पुत्र थे। उनका जन्म पटना, बिहार में हुआ था।

उनका जन्म का नाम गोबिंद राय था और तख्त श्री पटना हरिमंदर साहिब नाम का तीर्थस्थल, उस घर/स्थल को चिन्हित करता है, जहाँ उनका जन्म हुआ और उन्होंने अपने जीवन के पहले चार साल बिताए थे।

1670 में, उनका परिवार पंजाब लौट आया, और मार्च 1672 में वे उत्तर भारत के हिमालय की तलहटी, शिवालिक श्रेणी, में चक्क नानकी में चले गए, जहां उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की। जब वे नौ वर्ष के थे, तभी उनके पिता नौवें गुरु तेगबहादुर की इस्लाम स्वीकार करने पर मुगलों ने हत्या कर दी। उनके बाद वे दसवें सिख गुरु बने।

सिख धर्म में अपने उल्लेखनीय योगदान के बीच, उन्होंने 1699 में खालसा नाम के सिख योद्धा समुदाय की स्थापना की।

कैसे हुई खालसा पंथ की स्थापना

1699 में, गुरु गोबिंद सिंह ने सिखों से वैशाखी पर आनंदपुर में एकत्र होने का अनुरोध किया। हाथ में तलवार के साथ गुरु ने भीड़ में से एक स्वयंसेवक को बुलाया जो अपने सिर का बलिदान करने के लिए तैयार हो। उनकी तीसरी आवाज पर दया राम (जिसे बाद में दया सिंह नाम दिया गया) नाम का एक स्वयंसेवक आगे आया। गुरु उसे एक तम्बू में ले गए और खून से सनी तलवार के साथ भीड़ में वापस लौट आए। एक अन्य स्वयंसेवक को गुरु द्वारा बुलाया गया, जिसे फिर से तम्बू के अंदर ले जाया गया और कुछ समय बाद गुरु खूनी तलवार के साथ अकेले लौट आए। उन्होंने अन्य  तीन और स्वयंसेवकों के साथ यही  प्रक्रिया जारी रखी, लेकिन पांचवें स्वयंसेवक के तम्बू के अंदर जाने के बाद, गुरु सभी पाँच स्वयंसेवकों के साथ बाहर आए। गुरु ने भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई साहिब सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई हिम्मत सिंह नामक पांच स्वयंसेवकों को आशीर्वाद दिया और उन्हें पंज प्यारे (पांच प्यारे) और सिख परंपरा में पहला खालसा कहा।

इसके बाद गुरु ने लोहे का कटोरा लेकर पानी और शक्कर लेकर दोधारी तलवार से उसे हिलाते हुए एक घोल तैयार किया और उसे अमृत नाम दिया। पांचों दीक्षित स्वयंसेवकों को गुरु नेसिंहका एक नया उपनाम दिया जिसका अर्थ हैशेर। तब गुरु ने पांच दीक्षा लेने वाले सिखों को स्वयं उन्हें खालसा के रूप में दीक्षा देने को कहा और इसी के साथ गुरु छठवें खालसा बन गए और इसी से वह गुरु गोबिंद सिंह के नए नाम से पुकारे जाने लगे। खालसा का अर्थ हैपवित्रता उन्होंने खालसा की पांचककारोंकी परंपरा की शुरुआत की, केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कछेरा। ये आस्था के पाँच स्तम्भ हैं जिन्हें सिख हर समय धारण करते हैं और खालसा परंपरा का परिचय देते हैं। उन्‍होंने खालसा पंथ की रक्षा के लिए मुगलों और उनके सहयोगियों से 14 युद्ध लड़े थे।

गुरु गोबिंद सिंह की गिनती महान लेखकों और रचनाकारों में होती है। उन्‍होंनेजापसाहिब, ‘अकाल उस्‍तत‘, ‘बिचित्रनाटक‘, ‘चंडी चरित्र‘, ‘शास्‍त्र नाम माला‘, ‘अथ पख्‍यां चरित्र लिख्‍यते‘, ‘ज़फ़रनामाऔरखालसामहिमाजैसी रचनाएं लिखीं।बिचित्र नाटकको उनकी आत्‍मकथा माना जाता है, जोकिदसम ग्रन्थका एक भाग है। वह कहते थेसवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊंतबै गोबिंद सिंह नाम कहाऊं!!’ उनकी शिक्षाएं आज हम सब के लि अनुकरणीय हैं।

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