सिनेमाई पर्दा
शुभम वैष्णव
सिनेमाई पर्दे की चमक सबको पसंद है। सिनेमा का जादू हर किसी के सिर चढ़कर बोलता है। सिनेमा सिर्फ बोलता ही नहीं बल्कि व्यक्ति के विचारों को भी प्रभावित करता है।
नायक की एंट्री से लेकर खलनायक की पिटाई तक लोगों को सब कुछ भाता है। लेकिन सिनेमाई पर्दे की चमक दमक मेंडल के वंशानुगत के प्रयोग के अनुरूप ही है। आज सिनेमा जगत का एक ही नारा है सिनेमाई कुटुंबकम का भाव अर्थात अभिनेता, डायरेक्टर, एवं अभिनेत्रियों के पुत्रों को बनाओ हीरो और हुनरबाज कलाकारों का ग्राफ कर दो जीरो।
अब बॉलीवुड बॉलीवुड नहीं बल्कि कॉलिवुड बन गया है जिसके काले कारनामे रहस्यपूर्ण हैं। बॉलीवुड एक ऐसा समुद्र है जिसका ऊपरी भाग तो बिल्कुल स्वच्छ दिखता है, परंतु इसके भीतर अथाह कीचड़ है। जिसमें कई छोटी-छोटी मछलियां तड़प रही हैं। इन छोटी-छोटी मछलियों का जीवन बड़े-बड़े मगरमच्छों के डर के साए में बीत रहा है। मगरमच्छों की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं छोटी मछलियों के लिए खतरा बन चुकी हैं।
लोगों को सिर्फ और सिर्फ सिनेमाई पर्दे की चमक दिखाई देती है जबकि इस पर्दे के पीछे एक काली दुनिया है। जिसमें सांठगांठ, नेपोटिज्म, नकली जर्नलिज्म का बोलबाला है। मी टू मूवमेंट से चरित्र अभिनेताओं, निर्देशकों एवं संगीतकारों की चरित्रहीन संगत की रंगत अब सबके सामने आ चुकी है।
बॉलीवुड के कई लोग कहते हैं कि बॉलीवुड एक परिवार है। यहां कोई भेदभाव नहीं परंतु जब एक अभिनेता सुशांत सिंह ने आत्महत्या की तो मात्र कुछ गिने-चुने लोगों ने ही उसकी मौत पर दुख जताया। बाकी सब मौन रहे। उनका यह मौन समझ से परे है। बॉलीवुड की काली दुनिया का सच सबके सामने आना ही चाहिए।