स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता के पुरोधा डॉक्टर भीमराव आंबेडकर

निखिलेश माहेश्वरी
स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता के पुरोधा डॉक्टर भीमराव आंबेडकर
भारतीय सनातन संस्कृति अनादि, अनंत और चिर पुरातन है। अपनी सनातन संकृति ने अनेक उतार चढाव, संघर्ष के साथ अपने को सुरक्षित और जीवित रखा। सनातन संस्कृति के अनंत प्रवाह के बीच अनेक आयातित बुराइयां भी पनपीं। पर जैसे नदी के प्रवाह में कोई गंदगी आती है, तो उसे स्वच्छ करने का प्रयत्न भी होता है। उसी प्रकार सनातन हिन्दू संस्कृति में आयातित बुराइयों को दूर करने के प्रयत्न भी निरंतर हुए हैं। गत दो हजार वर्षो में शक, हूण, यवन, मुस्लिम और अंग्रेजों के आक्रमण से अनेक कुरीतियों ने इस सनातन संस्कृति को ग्रसित करने का प्रयास किया। लेकिन इन से मुक्ति दिलाने के लिए अनेक महापुरुषों ने इस भू-धरा पर जन्म लेकर उसको निर्दोष करने के निरंतर प्रयत्न किए। बाल विवाह, नारी शिक्षा निषेध, पर्दा प्रथा, समुद्र पार नहीं जाना, अशिक्षा, अंधविश्वास और अस्पृश्यता, भेदभाव जैसी कुरीतियों ने समाज में असमानता का वातावरण निर्मित किया। लेकिन इन सब से मुक्ति दिलाने के लिए शंकराचार्य, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, गुरु नानक, संत रामानंद, कबीर, महर्षि दयानंद, डॉक्टर हेडगेवार और डाक्टर आंबेडकर आदि ने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
समाज में निर्मित कुरीतियों में सबसे बड़ा अभिशाप सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता हैं। इस अस्पृश्यता नाम की महामारी को दूर करने का प्रयास संत रामानंद, वीर सावरकर, महात्मा गाँधी एवं डाक्टर हेडगेवार आदि ने किया। ये सभी सामान्य वर्ग से थे, लेकिन जिनके साथ भेदभाव हुआ उनमें से किसी व्यक्ति ने उसका पुरजोर विरोध कर कथाकथित अस्पृश्य समाज को सम्मान से जीने का अधिकार दिलाया तो वो हैं डाक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर।
इस आधुनिक भारत के दधीचि, आधुनिक मनु या कहें स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के पुरोधा डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर भारतीय मनों की आसंदी पर विराज कर भारतीय समाज के हृदय पर निर्बाध शासन कर रहे हैं। आज जब समरस समाज के निर्माण की बात चलती है, तो स्वभाविक रूप से आंबेडकर का नाम सबसे ऊपर आता है, उनका जीवन प्रेरक है लेकिन कुछ लोग उन्हें केवल एक वर्ग तक सीमित कर देते हैं, जो उस महान विभूति का अपमान है। उनका जीवन तो संपूर्ण मानव जाति के लिए समर्पित था।
डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर के बारे में निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो वह सर्वांग पुरुष थे। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक सभी दृष्टि से एक उच्च कोटि के कृतित्व और व्यक्तित्व थे। साहित्य की दृष्टि से देखा जाए तो उनका लिखा साहित्य आज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। आंबेडकर एक उच्च कोटि के संपादक थे। उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, प्रबुद्ध भारत जैसे समाचार पत्रों का कुशलता पूर्वक संपादन किया। राजनीतिक दृष्टिकोण से उन्होंने ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ नाम का दल बनाया और बाद में उसका नाम बदलकर रिपब्लिक पार्टी कर दिया। अपने समाज को राजनीतिक अधिकारों के लिए जागृत किया।आंबेडकर मूल रूप से अर्थशास्त्री थे। उनके विचार के अनुसार ही अपने देश में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई। आंबेडकर हिन्दू धर्म की कुरीतियों से देश को मुक्त करना चाहते थे। वह हिन्दू धर्म के नहीं बल्कि उसकी कुरीतियों के विरुद्ध लड़े। इसलिए उन्होंने 1935 में घोषणा की – “मैं हिन्दू के रूप में जन्मा हूँ, मगर मरूँगा नहीं।” यह घोषणा एक चुनौती थी। उनको लगता था, इस घोषणा के पश्चात शायद हिन्दू धर्म का नेतृत्व हिन्दू धर्म की कुरीतियों को हटाने का प्रयत्न करेगा और वह समरस समाज के निर्माण में उनके विचार को मान्यता देगा।
लेकिन दुर्भाग्य ही कहेंगे, इस घोषणा के पश्चात हिन्दू समाज का नेतृत्व आंबेडकर के अनुरूप समाज को उचित सम्मान न दिला सका। इसके विपरीत मुस्लिम उलेमा एवं ईसाई पादरियों ने उनसे संपर्क करना प्रारंभ कर दिया। कई स्थानों पर तो आंबेडकर जी के लिए धन संग्रह भी प्रारंभ किया गया, ताकि बड़ी मात्रा में रिलीजियस कन्वर्जन किया जा सके। गाडफ्रे ने ‘दि अनटचेबल्स क्लेस्ट’ नामक पुस्तक प्रकाशित की और उसने ईसाई मिशनरियों से आह्वान किया कि यदि उन्होंने डॉक्टर बाबासाहेब के आंदोलन का उपयोग कर लिया तो लाखों अस्पृश्य ईसाई बन जाएंगे।
लेकिन इनके बारे में आंबेडकर का स्पष्ट मत था, मुस्लिम और ईसाई हिन्दुस्तान में विधर्मी हैं। इनकी निष्ठा भारत में नहीं, बाहर है। वह अपने समाज को अराष्ट्रीय बनाना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने बहुत प्रतीक्षा, धैर्य के साथ अपनी मृत्यु के दो माह पूर्व एवं अपनी घोषणा के 21 वर्ष पश्चात भारत की धरती पर उत्पन्न और हिन्दू विचार से उपजे बौद्ध पंथ में दीक्षा ग्रहण की। उनकी हिन्दू धर्म के प्रति कितनी आस्था थी यह इस बात से पता चलता है कि दीक्षा भूमि में हिन्दू धर्म का त्याग करते समय उनका गला भर आया था। एक स्थान पर बाबासाहब ने कहा था–“मैने यह सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न पहुंचे।”
आंबेडकर संविधान निर्माण में सभी समाज और जिस जाति को वह सम्मान दिलाना चाहते थे, उसे उन्होंने कानूनी रूप से मान्यता दिलाई। जिस प्रकार के विधान की आवश्यकता भारत को थी, उसकी रचना उन्होंने की, सुशासन कैसा हो तो राम दरबार का चित्र संविधान की मूल प्रति में जोडकर उन्होंने भारत की आदर्श राज्य व्यवस्था को दर्शाया, कई स्थानों स्थानों पर वेदों की ऋचाओं का उल्लेख कर भारतीय जीवन मूल्य को मान्यता दी। इस प्रकार हम देखें तो भारत के संविधान निर्माता के रूप में वह आधुनिक मनु बन गए।
आंबेडकर ने समाज को समता, समरसता युक्त बनाने के लिए लड़ाई लड़ी थी। उनके समकालीन महात्मा गाँधी के यरवडा जेल में अनशन के कारण कई छोटे-बड़े मंदिरों के दरवाजे अनुसूचित समाज के लिए खुल गए। पंढरपुर का विठ्ठल मंदिर सभी के लिए खुला रहे इसके लिए साने गुरुजी ने सत्याग्रह किया। वीर सावरकर ने रत्नागिरी में अनुसूचित समाज को मंदिर प्रवेश दिलाया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार बिना भेदभाव के हिन्दुओं को एकत्रित लाते है और आंबेडकर को बुलाकर उसके दर्शन भी कराते हैं। आंबेडकर के जाने के पश्चात भी देश में समरसता और समता मूलक समाज के निर्माण के लिए अनेक प्रयत्न आज भी जारी हैं। इन प्रयासों को तीव्र गति देते हुए सभी ने भेदभाव नाम की खाई को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के शब्द सभी के लिए एक दिशा बोध हो सकते हैं – “एक ही मंदिर, एक जलाशय, सबका एक श्मशान हो”। आंबेडकर ने जिस स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के लिए कार्य किया, वैसा ही भाव हम सब लेकर कार्य करें और उनके सपनों का भारत निर्मित कर पाएं, यह उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।