युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द ने कहा था दरिद्र की सेवा भगवान की सेवा है
डॉ. प्रहलाद कुमार गुप्ता
आज स्वामी विवेकानन्द का जन्म दिवस है। भारत सरकार प्रति वर्ष 12 जनवरी उनकी जयन्ती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाती है।
प्रश्न यह है कि स्वामी विवेकानन्द को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है। इस देश में संत तो बहुत हुए हैं। महापुरुष भी बहुत हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि 11 सितंबर, 1893 को शिकागो में आयोजित धर्म सभा में स्वामीजी के उद्बोधन ने पूरी दुनिया को अचम्भित कर दिया था। उन्होंने भारत की गौरवमयी संस्कृति से सम्पूर्ण विश्व को परिचित करवाया। स्वामी विवेकानन्द के जीवन से हमें बहुत प्रेरणा और ऊर्जा मिलती है।
भारत के गौरव स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 (मकर संक्रान्ति संवत् 1920) को कलकत्ता के कायस्थ परिवार में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेन्द्र था जिन्हें घर पर प्यार से नरेन कह कर पुकारा जाता था। इनके पिता विश्वनाथदत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं जिनका अधिकांश समय भगवान शिव की आराधना में व्यतीत होता था। घर में अक्सर पूजा पाठ, कथा आदि के कार्यक्रम होते रहते थे।
परिवार से भी आपको अच्छे संस्कार मिले। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक बार अपने पिताजी से बहस करते हुए उन्होंने पूछा पिताजी आपने मुझे दिया ही क्या है? तब पिताजी ने उन्हें प्रेमपूर्वक एक दर्पण के सामने खड़ा करके कहा कि देखो मैने तुम्हें क्या दिया है। एक बलिष्ठ शरीर, तेज दिमाग, प्रखर बुद्धि आदि। नरेन्द्र क्षण भर में ही समझ गये और उन्होंने पिताश्री से क्षमा मांग ली।
मूर्ति पूजा और भगवान के अस्तित्व के बारे में उन्होंने अनेकों लोगों से बात की किन्तु उन्हें संतोषजनक उत्तर केवल संतरामकृष्ण परमहंस से मिला। नरेन्द्र ने परमहंस से पूछा क्या आपने भगवान को देखा है तो उत्तर मिला, हां देखा है। अगला प्रश्न हुआ, किस प्रकार देखा है? उत्तर मिला – जैसे मैं तुम्हें देख कर तुमसे बात कर रहा हूं। बल्कि इससे भी अधिक पास से। फिर प्रश्न हुआ, क्या मुझे दिखा सकते हो? फिर उत्तर मिला हां दिखा सकता हूं।
रामकृष्ण परहंस ने जब यह समझ लिया कि इस बालक में ईश्वर को देखने की तीव्र जिज्ञासा है। तब काली माता के दर्शन करके उनसे कुछ भी मांगने के लिये कहा। नरेन्द्र 3-4 बार काली माता के दर्शन करने यह सोच कर गये कि अपने परिवार की सुख सुविधाओं के लिये कुछ मांगूगा। किन्तु अन्दर जैसे ही काली माता के दर्शन करते, उनके मुख से यही निकला कि मां मुझे भक्ति और वैराग्य दो। यह अनुभूत कर ईश्वरीय शक्ति पर उनका विश्वास अटल हो गया और वे निरंतर संत रामकृष्ण परमहंस से शिक्षा लेते रहे।
शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने गुरु से कहा कि मुझे कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके। इस पर गुरूजी नाराज हो गये और बोले नरेन्द्र मैने जो तुझे शिक्षा दी वह सब बेकार हो गई। मैने कभी सोचा भी नहीं था कि तू इतना स्वार्थी निकलेगा जो अपने हित की सोच रहा है। यहां की गरीब जनता तेरी प्रतीक्षा कर रही है। तुझे तो दरिद्र लोगों की सेवा करनी है। तभी गुरूजी ने उन्हें विवेकानन्द नाम देकर लोगों के बीच जाने की आज्ञा दी।
विवेकानन्द ने पूरे देश का भ्रमण करके देखा कि यहां एक ओर सम्पन्न वर्ग है तो दूसरी ओर अपेक्षित और पीड़ित लोग हैं, जिनके पास पेट भरने के लिये भी साधन नहीं हैं। विकलांग, अंधे, लूले लंगड़े लोग हैं जिनकी बहुत दुर्दशा है। यहां छुआछूत की बुराई भी है। इन सब बुराइयों को दूर करने के लिये उन्होंने कहा– दरिद्रः देवो भवः। अर्थात दरिद्र व्यक्ति की सेवा भगवान की सेवा है। उन्होंने नर सेवा नारायण सेवा का नारा दिया।
छुआछूत को दूर करने की शुरुआत उन्होंने स्वयं से ही की।एक बार वे किसी गांव से गुजर रहे थे तो एक मोची से पीने का पानी मांगा। मोची ने कहा महाराज आपको पानी पिलाना तो दूर हमने अगर आपको छू भी दिया तो हमें पाप लगेगा। इस पर स्वामी विवेकानन्द ने उस मोची को अपने हाथ से छूकर पूछा! अब किसे पाप लगेगा? तुमने मुझे नहीं छुआ है बल्कि मैने तुम्हें छुआ है। यदि पाप लगेगा तो मुझे लगेगा। और उन्होंने उस मोची के यहां रखा पानी पी लिया।
अपने मठ में उन्होंने देखा कि वहां बड़े पुजारियों का खाना अलग स्थान पर परोसा जाता है और सेवकों का खाना अलग स्थान पर। एक दिन उन्होंने कहा कि हम सब एक साथ एक जगह बैठ कर खाना खायेंगे। बड़े पुजारियों ने इसका विरोध किया तो स्वामीजी ने कहा कि ठीक है आप अपना खाना अलग खायें परन्तु मैं तो इस सेवकों के साथ बैठ कर ही खाऊंगा। तब से मठ में ऊंच नीच का भेद मिट गया।
स्वामी विवेकानन्द का राजस्थान से गहरा सम्बन्ध था।राजस्थान के झुंझनू जिले में स्थित खेतड़ी शहर में स्वामी विवेकानन्द का स्मृति मंदिर है जो कभी राजा अजीत सिंह का गढ़ था। खेतड़ी के महाराजा अजीत सिंह उनके शिष्य थे। इन गुरु शिष्य का सम्पूर्ण जीवन देश के उत्थान और मानवता के कल्याण को समर्पित था। खेत़ड़ी नरेश ने ही उन्हें विवेकानन्द नाम दिया और उन्होंने ही राजस्थानी साफा पहनने की सलाह दी। शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में जाने के लिये विवेकानन्द जी को खेतड़ी नरेश ने ही धन उपलब्ध कराया था। रामकृष्ण मिशन के माध्यम से शिक्षा और सेवा की अलख जगाने की शुरुआत भी खेतड़ी से ही हुई थी। खेतड़ी के राजमहल में स्वामीजी अतिथि बन कर ठहरे। उस दौरान उन्होंने भारत का भ्रमण किया और देशवासियों की दुर्दशा को देख कर उन्हें बहुत पीड़ा हुई। उसी समय से उन्होंने देश के गरीब व असहायों की सेवा करने का मन बना लिया।