भारत का पहला आतंकवादी था अब्दुल रशीद, की थी एक महात्मा की हत्या, गांधी ने बताया था उसे अपना भाई
भारत का पहला आतंकवादी था अब्दुल रशीद, की थी एक महात्मा की हत्या, गांधी ने बताया था उसे अपना भाई
प्रसिद्ध लेखक शहादत हसन मंटो कहते थे, मजहब जब दिलों से निकल कर दिमाग पर चढ़ जाए तो जहर बन जाता है। और यह जहर किस तरह जानलेवा होता है, इसके उदाहरण हम सदियों से देख रहे हैं। भारत में इस्लाम की नींव हो, देश का विभाजन हो, कश्मीर या बंगाल हो या फिर आज ईशनिंदा के नाम पर कन्हैया और उमेश की हत्या, इन सबके पीछे एकेश्वरवादी कट्टरपंथी सोच ही है। पहले तो इस्लामिक आक्रांता देश में आते थे और कभी लूटमार तो कभी अपना राज स्थापित करने और कभी मतांतरण के लिए हिन्दुओं की हत्याएं करते थे। लेकिन 19वीं सदी में पहली बार अपनी कट्टरपंथी सोच के चलते एक मुसलमान नागरिक ने एक हिन्दू की हत्या की थी, वह थे एक महात्मा– संत स्वामी श्रद्धानंद। उन्होंने 18 हजार मुसलमानों की घर वापसी कराई थी और उस हत्यारे का नाम था अब्दुल रशीद।
वह 1920 का दौर था। स्वामी श्रद्धानंद हिन्दुओं के सबसे बड़े धर्म गुरु थे। वे आर्य समाज के प्रमुख होने के साथ–साथ महान स्वतन्त्रता सेनानी भी थे। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने ही मोहनदास करमचंद गांधी के लिए सबसे पहले महात्मा शब्द का प्रयोग किया था। गांधी के कहने पर स्वामी श्रद्धानंद असहयोग आंदोलन में भी भाग ले रहे थे। लेकिन जब असहयोग आंदोलन के साथ साथ खिलाफत आंदोलन भी असफल होने लगा तो केरल के मालाबार क्षेत्र में मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्लेआम शुरु कर दिया। इसे मोपला नरसंहार के नाम से जाना जाता है।स्वामी जी मोपाल नरसंहार से अंदर तक हिल गये। मोपला में हज़ारों हज़ार हिन्दुओं को जबरन मतांतरित करवा कर मुसलमान बना दिया गया। ऐसी कई घटनाओं से व्यथित होकर स्वामी श्रद्धानंद ने आर्य समाज के जरिए शुद्धि आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने 11 फरवरी 1923 को ‘भारतीय शुद्धि सभा‘ की स्थापना की। अपने इस आंदोलन के माध्यम से स्वामी श्रद्धानंद ने उन मतांतरित हिन्दुओं को वापस हिन्दू धर्म में लाना शुरू कर दिया था। शुद्धि आंदोलन की सफलता से कट्टरपंथी तबलीगी मुसलमानों की नींव हिल गई। स्वामी जी ने उस समय के यूनाइटेड प्रोविंस यानि आज के यूपी में 18 हज़ार मुस्लिमों की हिन्दू धर्म में वापसी करवाई, और यह सब कानून के अनुसार हुआ। गैर मुसलमानों को मुसलमान बनाना अपना एक मात्र अधिकार और मजहबी कर्तव्य समझने वाले कट्टरपंथियों को यह अच्छा नहीं लगा। परिणामस्वरूप स्वामी श्रद्धानंद पर हर तरफ से हमले शुरू हो गये। आखिरकार वो मनहूस दिन आ गया, जब इस महान संत की निर्मम हत्या कर दी गई। वो 23 दिसंबर 1926 की बात है। दिल्ली के चांदनी चौक क्षेत्र में दोपहर के समय स्वामी श्रद्धानंद अपने घर में आराम कर रहे थे। उस समय वे बेहद बीमार थे। तभी मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद वहॉं पहुंचा, उसने स्वामी जी से मिलने का समय मांगा और कहा कि वो धार्मिक मामलों पर उनसे चर्चा करना चाहता है। विश्वास करके स्वामी जी ने उसे समय दे दिया, लेकिन अब्दुल रशीद ने भरोसा तोड़ने में देर नहीं की। उसने स्वामी जी पर हमला करके उनकी जान ले ली।
लेकिन जैसा कि आज होता है, तब भी भारत का सेक्युलरिज्म अंगड़ाइयां लेने लगा। तब भारत की जनता जिसे आतंकवादी कह रही थी, स्वामी जी की हत्या के दो दिन बाद गांधी जी ने उसी कट्टरपंथी हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना भाई बता दिया। उन्होंने 25 दिसंबर 1926 को गुवाहाटी में कांग्रेस के अधिवेशन में कहा कि –
“मैं अब्दुल रशीद को अपना भाई मानता हूं। मैं यहॉं तक कि उसे स्वामी श्रद्धानंद की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूं। वास्तव में दोषी वे लोग हैं, जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना पैदा की। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए।”
सोचिए जिस स्वामी श्रद्धानंद ने मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी का नाम दिया। उस असली संत–महात्मा की मौत पर गांधी ने इतना बेतुका बयान दिया। बात यहॉं पर भी नहीं रुकी, भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद को जब स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के आरोप में फांसी सुना दी गई तो कांग्रेस के नेता आसफ अली ने उसे फांसी की सज़ा से बचाने के लिए पैरवी की। 1927 में जब उसे फांसी दे दी गई तो उसके जनाजे में हज़ारों की संख्या में भीड़ उमड़ी। यहां तक कि पूरे भारत की कई मस्जिदों में उसके लिए विशेष दुआएं भी मांगी गईं। 30 नवम्बर, 1927 के ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अंक में छपे एक समाचार के अनुसार, स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद की रूह को जन्नत में स्थान दिलाने के लिए देवबंद के प्रसिद्ध मदरसे दारुल उलूम में छात्रों और आलिमों ने कुरान की आयतों का पांच बार पाठ किया। उन्होंने दुआ मांगी कि “अल्लाह मरहूम अब्दुल रशीद को अला–ए–इल्ली–ईल (सातवें आसमान की चोटी) पर स्थान दें।“
मुस्लिम कट्टरता से घबरा गये थे गुरुदेव टैगोर
स्वामी श्रद्धानंद की हत्या पर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर बेचैन हो गए थे। प्रसिद्ध लेखक दिनकर जोशी अपनी पुस्तक गुरुदेव में लिखते हैं कि तब टैगोर ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि –
“मैं हर तरह की सांप्रदायिकता का कड़ा विरोध करता हूं, लेकिन मैं यह साफ–साफ कहना चाहूंगा कि ऐसी मुस्लिम आक्रामकता को अगर हम गंभीरता से नहीं लेंगे और इसे सहन कर लेंगे तो इसका अर्थ आक्रामक तत्वों को बढ़ावा देना ही होगा।”
कांग्रेस के नेता और बाद में देश के राष्ट्रपति बने डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक “इंडिया डिवाइडेड” (पृष्ठ संख्या 117) में स्वामी जी के पक्ष में लिखा कि “यदि मुसलमान अपने मजहब का प्रचार और प्रसार कर सकते हैं तो उन्हें कोई अधिकार नहीं है कि वो स्वामी श्रद्धानंद के गैर हिन्दुओं को हिन्दू बनाने के आंदोलन का विरोध करें।”
उस दौर में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर या राजेंद्र प्रसाद की ये बातें हमारे बड़े नेताओं को समझ आ जातीं तो आज ये हालात नहीं होते। इस्लामिक कट्टरवाद की वह मानसिकता आज भी जिंदा है, जो दूसरों के धर्म का तो सम्मान नहीं करती, लेकिन बात जब अपने मजहब की आती है तो खूनखराबे की बातें शुरु कर देती है। इसे समझने की आवश्यकता है।