भाग तीन- पवित्र तीर्थ हल्दीघाटी में प्रताप की विश्व विख्यात विजय

पवित्र तीर्थ हल्दीघाटी में प्रताप की विश्व विख्यात विजय

भाग -3

अनमोल

पवित्र तीर्थ हल्दीघाटी में प्रताप की विश्व विख्यात विजय

विश्व के प्रसिद्ध युद्धों में हल्दीघाटी युद्ध की गिनती होती है।18 जून 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफख़ां के नेतृत्व में मुग़ल सेना को अकबर ने आक्रमण के लिए भेजा। हल्दीघाटी यानी एक किलोमीटर लंबी और एक व्यक्ति अथवा एक घुड़सवार एक समय में जा सके मात्र इतनी ही संकरी, ऐसी घाटी जहाँ कि मिट्टी का रंग हल्दी जैसा पीला है। आज भी देशभक्त इस रज को अपने माथे पर चंदन के समान लगाकर गौरवान्वित होते हैं।

महाराणा प्रताप के विरुद्ध इस युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व सेनापति मानसिंह कर रहे थे और महाराणा प्रताप के सेनापति थे हकीम ख़ाँ सूरी अर्थात यह युद्ध हिंदू मुसलमान का नहीं अपितु राष्ट्रभक्त एवं राष्ट्रविरोधियों का था। प्रताप के पास मुगलों की तुलना में मात्र एक चौथाई सेना थी लेकिन मनोबल हज़ारों गुना अधिक। इससे भयभीत अकबर का पुत्र सलीम (जहांगीर) युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया।हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ की हर जाति बिरादरी से सैनिक थे। वे सब इसे महाराणा का युद्ध नहीं बल्कि अपना युद्ध मानकर लड़ रहे थे।

प्रताप की सेना ने गुरिल्ला नीति से युद्ध करके अकबर की सेना में भगदड़ मचा दी। इस पद्धति में वननिवासी भील जनजाति का सर्वाधिक योगदान था। अकबर की विशाल सेना बौखलाकर लगभग पांच किलोमीटर पीछे हट गई। शाहीबाग में जहां मुगलों का पड़ाव था, वहाँ से तलाई बहुत पीछे है यानी लोसिंग के पहाड़ों से निकल कर मेवाड़ी सेना  शाही बाग को पार करते हुए मुगल सेना को तलाई तक खदेड़कर ले गई। जहां खुले मैदान में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच पांच घंटे तक निरन्तर भयंकर युद्ध हुआ। इतना रक्त बहा कि तलाई का नाम ही रक्ततलाई पड़ गया। इस युद्ध में एक दिन में लगभग 18 हज़ार सैनिक खेत रहे।

चेतक के महान बलिदान की चर्चा किए बिना हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन अधूरा है। इस युद्ध में महाराणा अपने वीर घोड़े चेतक पर सवार होकर रणभूमि में आए थे, जो बिजली की तरह पवन वेग से दौड़ता था और पल भर में एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाता था। चेतक पर सवार प्रताप एक के बाद एक दुश्मनों का सफाया करते हुए सेनापति मानसिंह तक पहुँचे। वहाँ हाथी की सूंड़ पर बंधी तलवार से चेतक घायल हो गया था। लेकिन घायलावस्था में भी वह नाला सुरक्षित पार कर गया। आज भी वह नाला और खोडी इमली का वृक्ष हल्दीघाटी में स्थित है वहीं चेतक की समाधि भी बनी है। जहॉं लोग श्रद्धा से अपना माथा टेकते हैं।

हल्दीघाटी युद्ध में झालामन का अद्भुत समर्पण था। राणा को शत्रुओं से घिरता देख सादड़ी सरदार झाला उन तक पहुंच गए और उन्होंने राणा की पगड़ी और छत्र बिना देर किए धारण कर लिए। उनको सुरक्षित भेजकर स्वयं मृत्यु के समक्ष आत्म बलिदान को प्रस्तुत हो गए व मुग़ल सेना पर काल बन कर टूट पड़े।

इस युद्ध में मेवाड़ की तरफ से तोपों का उपयोग न के बराबर हुआ था। खराब पहाड़ी रास्तों से भारी तोपें नहीं आ सकती थीं। जबकी मुगल सेना के पास ऊंट के ऊपर रखी जा सकने वाली तोपें थीं।

उदयपुर के मीरा कन्या महाविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर डॉ. चंद्रशेखर शर्मा ने एक शोध किया है। इस शोध में उन्होंने पाया कि हल्दीघाटी की लड़ाई में महराणा प्रताप ने अकबर को हराया था। डॉ. शर्मा ने अपनी रिसर्च में प्रताप की जीत के पक्ष में ताम्र पत्रों के प्रमाण, जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय में जमा कराए हैं। उनके अनुसार युद्ध के अगले एक वर्ष तक महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के आस-पास के गांवों की भूमि के पट्टे ताम्र पत्र पर लिखकर जारी किए थे, जिन पर एकलिंगनाथ के दीवान प्रताप के हस्ताक्षर हैं।

उस समय पट्टे जारी करने का अधिकार राजा को ही होता था जो सिद्ध करता है कि प्रताप ही हल्दीघाटी युद्ध के विजेता थे। यह युद्ध हारने के कारण ही अकबर अपने सेनापति मानसिंह व आसिफ खां से नाराज हुआ था। दोनों को छह महीने तक दरबार में नहीं आने की सजा दी गई थी। यदि इस युद्ध में अकबर विजयी हुआ होता तो अपने प्रिय सेनापतियों को दंडित नहीं करता। इससे प्रमाणित होता है कि महाराणा ने हल्दीघाटी के युद्ध को निश्चित ही जीता था।

क्रमश:

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