हिंदू-मुस्लिम संबंध में सुधार का ‘उत्तरप्रदेश मॉडल’
बलबीर पुंज
बीते कुछ दिनों से पूजा-स्थलों में लगे लाउडस्पीकर राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बने हुए हैं। जहां उत्तरप्रदेश में बिना किसी बल प्रयोग और विरोध-प्रदर्शन के विभिन्न धार्मिक स्थलों से 45 हजार से अधिक लाउडस्पीकरों को हटाया जा चुका है और 58 हजार की ध्वनि को धीमा कर दिया गया है, वहीं जब बिहार में इस प्रकार की कार्रवाई की मांग उठी, तो इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘फालतू’ बता दिया। 30 अप्रैल को पूर्णिया में प्रेस से बात करते हुए उन्होंने कहा, “ये सब बेकार की बातें हैं। क्या बिहार में हमारा व्यू (दर्शन) जानते नहीं है? हम लोग किसी भी धर्म के बीच में हस्तक्षेप करते हैं- कभी नहीं। सबको अपना अधिकार है, करते रहते हैं अपना काम।” क्या कोई अधिकार असीम हो सकता है? क्या यह सत्य नहीं कि लाउडस्पीकर मुद्दा दशकों से सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता बढ़ाने के साथ ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण रखने और लोगों की ‘निजता में व्यवधान’ को रोकने से भी संबंधित है?
यह किसी से छिपा नहीं है कि स्वतंत्र भारत में उत्तरप्रदेश और बिहार सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील रहे हैं। महाराष्ट्र के बाद देश में सबसे अधिक सांप्रदायिक हिंसा का शिकार ये दोनों ही राज्य हुए हैं। साथ ही भारत के रक्तरंजित विभाजन में इन दोनों ही तत्कालीन क्षेत्रों के मुसलमानों की भी एक बड़ी भूमिका रही है। 1946 का प्रांतीय चुनाव इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जो वामपंथी-जिहादी-सेकुलर कुनबे के भ्रामक ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की वास्तविकता को उजागर भी करता है। रामनवमी पर गुजरात, झारखंड, प.बंगाल, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों के साथ दिल्ली स्थित जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती पर हिंदुओं द्वारा निकाली गई शोभायात्राओं पर मुस्लिम भीड़ द्वारा पथराव- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मीडिया के एक वर्ग के साथ उपरोक्त जमात तथ्यों को विकृत करके इस घटनाक्रम को मोदी कार्यकाल की ‘आक्रामक हिंदुत्व’ नीति की परिणति घोषित करने में लगा है। क्या ऐसा है? यदि इसका उत्तर एक बार ‘हां’ में मान भी लिया जाए, तो वामपंथी-जिहादी-सेकुलरवादी संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ.भीमराव रामजी अंबेडकर के विचारों पर क्या कहेंगे?
डॉ.अंबेडकर ने अपने लेखन-कार्य ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में हिंदू-मुस्लिम तनाव के तीन मुख्य कारणों की पहचान की थी, जिसमें उन्होंने- गोहत्या, मस्जिदों के बाहर संगीत और मतांतरण को चिन्हित किया था। बकौल बाबासाहेब, “दोनों समुदाय में व्याप्त तनाव को कम करने और सामाजिक एकता स्थापित करने का ‘पहला-प्रयास’ वर्ष 1923 में तब किया गया, जब ‘भारतीय राष्ट्रीय संधि’ प्रस्तावित हुआ था, जो विफल हो गया।” स्पष्ट है कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों में ‘शत्रुभाव’ हालिया नहीं, बल्कि एक सदी से अधिक पुराना है। यहां तक, गांधीजी ने भी मजहबी खिलाफत आंदोलन (1919-24) का नेतृत्व करके दोनों समुदायों में सदियों पुराने संकट को दूर करने प्रयास किया था, जिसकी कीमत समाज ने मोपला हिंदू नरसंहार के रूप में चुकाई। इससे आक्रोशित गांधीजी ने मुस्लिमों को ‘दंगाई’ (Bully) और हिंदुओं को ‘कायर’ (Coward) कहकर संबोधित किया था। अब इन संदर्भों को उत्तरप्रदेश की योगी सरकार द्वारा हिंदू-मुस्लिम संबंधों को समरस बनाने के हालिया प्रयासों को ‘बेकार’ या ‘इस्लामोफोबिया’ या फिर ‘आक्रामक हिंदुत्व का नतीजा’ बताने वाले क्या कहेंगे?
यक्ष प्रश्न उठता है कि जो काम गांधीजी नहीं कर पाए, वह कार्य करने में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कैसे सफल हुए? इसका उत्तर सरकार के इकबाल में छिपा है, जिस पर वर्ष 2017 से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हर बार खरे उतरे हैं। संगठित अपराध के प्रति उत्तरप्रदेश सरकार की सख्त नीतियों के कारण अपराधी और आपराधिक मानसिकता से जकड़े लोगों में इतना खौफ है कि योगी सरकार के बहुमत से पुन: सत्ता में लौटने के तुरंत बाद कई अपराधियों ने आत्मसमर्पण कर दिया, जिनमें कई ने तो गले में “मैं सरेंडर कर रहा हूं, कृपया गोली न चलाएं” लिखी तख्ती लटकाकर स्वयं को कानून के हवाले किया। पहले कार्यकाल में योगी सरकार ने 22,259 अपराधियों के विरूद्ध गैंगस्टर अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही करते हुए 1128 करोड़ रुपये की संपत्ति भी जब्त की थी।
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि जब देश के कई क्षेत्रों में रामनवमी और हनुमान जयंती पर निकाली शोभायात्राओं पर काफिर-कुफ्र चिंतन प्रेरित भीड़ आगजनी के साथ पथराव कर रही थी, तब उत्तरप्रदेश, जहां की 24 करोड़ की अनुमानित जनसंख्या में लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या मुस्लिम समाज की है, वहां शांति, सद्भावना और समरसता बनी रही। चाहे जनहित योजनाओं का लाभ लाभार्थियों तक पहुंचाना हो या फिर अपराधियों-आरोपियों के विरुद्ध विधिसम्मत कानूनी कार्रवाई- मजहबी और जातिगत पहचान इसमें रोड़ा नहीं बन रही है। जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 23 अप्रैल 2022 को लाउडस्पीकर संबंधित आदेश लागू किया, तब बतौर गोरक्षपीठाधीश्वर, उन्होंने गोरखपुर स्थित गोरखनाथ मंदिर परिसर और इससे संबंधित मंदिरों में लगे लाउडस्पीकरों की आवाज कम करके उनके मुंह मंदिर परिसर के भीतर करवा दिए। अब गोरखनाथ मंदिर में बजने वाले भजनों की आवाज मंदिर परिसर से बाहर नहीं जा रही। मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि से भी लाउडस्पीकर को हटा लिया गया। सोशल मीडिया पर वायरल कई वीडियो इस बात का प्रमाण हैं कि मस्जिदों से लाउडस्पीकर स्वयं उसके प्रबंधक उतारते दिखाई दे रहे हैं और जहां लाउडस्पीकर लगे हैं, वहां आवाज को ध्वनि प्रदूषण के सामान्य स्तर 45 डेसीबल के आसपास रखा जा रहा है।
फिर भी विकृत कुनबा योगी सरकार की कार्रवाई को मुस्लिम विरोधी अभियान के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। क्या इसमें कोई सच्चाई है? वास्तव में, यह कार्रवाई वर्ष 2018 के सरकारी आदेश के अनुरूप है, जो 20 दिसंबर 2017 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ द्वारा एक मामले में जारी दिशानिर्देश पर पारित हुआ था। इसमें एक जनहित याचिका के अंतर्गत, “मनुष्यों के बीच ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए मंदिरों, मस्जिदों, चर्च, गुरुद्वारों से सभी लाउडस्पीकरों/सार्वजनिक संबोधन प्रणाली को हटाने और ‘ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) 2000’ के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु एक आदेश पारित करने का अनुरोध किया था।” तब अदालत ने कहा था कि नागरिकों द्वारा बार-बार जनहित याचिका दाखिल करना बताता है कि वर्ष 2000 के नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है। कटु सत्य तो यह है कि जिस प्रकार अपने अनुकूल चुनावी नतीजे नहीं आने पर यह कुनबा चुनाव आयोग या ईवीएम को संदेहास्पद बता देता है, ठीक उसी तरह का व्यवहार यह जमात स्वतंत्र अदालती विवेक के प्रति भी करता है। हिजाब प्रकरण इसका एक हालिया उदाहरण है।
वास्तव में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भांति ही उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रति टुकड़े-टुकड़े गैंग और स्वयंभू सेकुलरिस्टों-उदारवादियों की घृणा का कारण- उनका हिंदू हितों की भी बात करना, आस्थावान हिंदू महंत होना और भगवाधारी वस्त्र पहनना है। ऐसा सोचने वाले अक्सर भूल जाते है कि सांप्रदायिक दंगों की मार सबसे अधिक गरीब झेलता है- चाहे वह जानमाल का नुकसान हो या फिर सख्त पहरेदारी से होने वाली आर्थिक क्षति। तनावग्रस्त और हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में रोजगार के अवसर भी क्षीण होने लगते है। इस पृष्ठभूमि में योगी सरकार की नीतियां विगत पांच वर्षों से संगठित अपराध को कमजोर, तो सामाजिक समरसता को सुदृढ़ बना रही है। उत्तरप्रदेश का आर्थिक-सामाजिक मापदंडों में सुधार- इसका प्रमाण है। आशा है कि देश के पिछड़े राज्य- बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस दिशा में गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे।