हिंद के गौरव इतिहास पुरुष महाराणा प्रताप

                  महाराणा प्रताप जयंती पर विशेष


प्रणय कुमार

महाराणा की जयंती पर यह प्रश्न सर्वथा उपयुक्त होगा कि क्या हमारे इतिहासकारों ने उनके विराट व्यक्तित्व के साथ न्याय किया? क्या अकबर के साथ ‘द ग्रेट’ का स्थायी विशेषण जोड़कर, जान-बूझकर महाराणा को संकुचित और छोटा सिद्ध करने की चेष्टा नहीं की गई? मातृभूमि की मान-मर्यादा, स्वाभिमान-स्वतंत्रता के लिए जंगलों-बीहड़ों की ख़ाक छानने वाले महाराणा के संघर्ष, साहस, त्याग और बलिदान की तुलना साम्राज्य-विस्तार की लपलपाती-अंधी लिप्सा से भला कैसे की जा सकती है?

जिनका नाम लेते ही नस-नस में बिजलियाँ-सी कौंध जाती हों; धमनियों में उत्साह, शौर्य और पराक्रम का रक्त प्रवाहित होने लगता हो, मस्तक गर्व और स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता हो- ऐसे परम प्रतापी महाराणा प्रताप को नमन। आज का दिवस मूल्यांकन-विश्लेषण का दिवस है। क्या हम अपने गौरव, अपनी धरोहर, अपने अतीत को सहेज-सँभालकर रख पाए? क्या हम अपने महापुरुषों, उनके द्वारा स्थापित मानबिन्दुओं, जीवन-मूल्यों की रक्षा कर सके? क्या हमने अपनी नौजवान पीढ़ी को साहस, शौर्य और पराक्रम का पाठ पढ़ाया, क्या त्याग और बलिदान की पुण्यसलिला भावधारा को हम अबाध आगे ले जा सकेंगें? ऐसे अनेक प्रश्न आज भी राष्ट्र के सम्मुख यथावत खड़े हैं।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात जिनके कंधों पर इस राष्ट्र को आगे ले जाने का भार था, क्या उन्होंने जान-बूझकर इन प्रश्नों के समाधान की दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया? गुलामी की ग्रन्थियाँ उनमें गहरे पैठी थीं, उन्होंने इन्हीं ग्रन्थियों को पालने-पोसने-सींचने-फैलाने का काम किया। इन ग्रन्थियों के रहते क्या हम अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा कर सकेंगे? जो पीढ़ी अपने मान बिन्दुओं, जीवन-मूल्यों, महापुरुषों के गौरव आदि की रक्षा न कर पाए, क्या उसका कोई भविष्य होता है? स्वाभिमान शून्य पीढ़ियों के निर्माण का दोष हम किनके माथे धरें? किसने उनके मन-मस्तिष्क में यह भर दिया कि भारत का इतिहास तो पराजय का इतिहास है? इस सच्चाई को कौन बताएगा कि हमारा इतिहास पराजय का नहीं अपितु संघर्ष, साहस, शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान का इतिहास रहा है। क्या यह सत्य नहीं कि जिन-जिन देशों पर विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं ने आक्रमण किया वहाँ की संस्कृति समूल नष्ट हो गई? पर भारत अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा। क्या पराजय का वृत्तांत सुना-सुना हम उत्साहहंता नहीं बन रहे? महाभारत के महासमर में हम क्यों भूल जाते हैं कि कर्ण जैसे महारथी की पराजय में शल्य द्वारा उसे बार बार निरुत्साह किया जाना भी था।

महाराणा की जयंती पर यह प्रश्न सर्वथा उपयुक्त होगा कि क्या हमारे इतिहासकारों ने उनके विराट व्यक्तित्व के साथ न्याय किया? क्या अकबर के साथ ‘द ग्रेट’ का स्थायी विशेषण जोड़कर, जान-बूझकर महाराणा को संकुचित और छोटा सिद्ध करने की चेष्टा नहीं की गई? मातृभूमि की मान-मर्यादा, स्वाभिमान-स्वतंत्रता के लिए जंगलों-बीहड़ों की ख़ाक छानने वाले और अपने जाँबाज सैनिकों के बल पर दुश्मन के छक्के छुड़ा देने वाले महाराणा के संघर्ष, साहस, त्याग और बलिदान की तुलना साम्राज्य-विस्तार की लपलपाती-अंधी लिप्सा से भला कैसे की जा सकती है? वह भी तब जब उसने संधि के अत्याकर्षक प्रस्ताव को ठुकराकर स्वेच्छा से संघर्ष और स्वाभिमान का पथ चुना हो!

इतिहास में महाराणा का नाम इसलिए भी स्वर्णाक्षरों में अंकित होना चाहिए कि युद्ध-कौशल के अतिरिक्त उनका सामाजिक-सांगठनिक कौशल भी अनुपमेय था। उन्होंने भीलों के साथ मिलकर ऐसा सामाजिक गठजोड़ बनाया था, जिसे भेद पाना तत्कालीन साम्राज्यवादी ताकतों के लिए असंभव था। ऊँच-नीच का भेद मिटाए बिना समरसता का ऐसा दिव्य रूप साकार-संभव न हुआ होगा। मिथ्या अभिमान पाले जातियों में बंटे समाज के लिए महाराणा का यह उदाहरण आज भी प्रासंगिक और अनुकरणीय है। यह विचारणीय है कि उनकी प्रजा का उन पर कितना अपार विश्वास होगा कि भामाशाह ने उन्हें अपनी सेना का पुनर्गठन करने के लिए सारी संपत्ति दान कर दी। कहते हैं कि यह राशि इतनी बड़ी थी कि इससे 25000 सैनिकों के लिए 5 साल तक निर्बाध रसद की आपूर्त्ति की जा सकती थी। क्या महाराणा के व्यक्तित्व के इन धवल-उज्ज्वल पक्षों को प्रखरता से सामने नहीं लाया जाना चाहिए? क्यों कथित इतिहासकार इस पर मौन रह जाते हैं? क्या बिना किसी रणनीतिक कौशल के हल्दी घाटी के युद्ध में हारे भूभाग को पुनः प्राप्त कर पाना महाराणा के लिए संभव था? शासन के अंतिम दिनों में न केवल मेवाड़ के अधिकांश भूभाग पर उनका आधिपत्य था, बल्कि उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं में पर्याप्त विस्तार भी किया था।

चारित्रिक शुचिता की दृष्टि से अकबर महाराणा के समक्ष कहीं नहीं टिकता। एक घटना का उल्लेख ही इसे सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होगा। एक बार उनके पुत्र शत्रु पक्ष की बेग़मों को बंदी बनाकर ले आए थे। प्रसन्न होने की बजाय महाराणा इससे क्षुब्ध और क्रोधित हुए। सहिष्णुता एवं सच्ची उदारता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने शत्रु-पक्ष की महिलाओं को ससम्मान उनके शिविर वापस भिजवाने का आदेश दिया। कवि रहीम ने इस प्रसंग का सादर उल्लेख भी किया है। महाराणा की जयंती पर यह विचार आवश्यक है कि वर्तमान पीढ़ी को कैसा और कौन-सा इतिहास पढ़ाया जाए, वह जो पराजय की ग्रन्थियाँ विकसित और मज़बूत करे या वह जो विजय का पथ प्रशस्त करे?

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