हिजाब विवाद : पीएफआई का शिगूफा जिसे कांगी-वामी-जिहादी हवा दे रहे
डॉ. शुचि चौहान
कर्नाटक के उडुपी से शुरू हुआ हिजाब विवाद केरल, महाराष्ट्र होते हुए बंगाल पहुंच गया। इसके अन्य राज्यों में भी फैलने की आशंका है। यह सिर्फ हिजाब विवाद नहीं है, यह हिजाब जिहाद है। जिसे पीएफआई (PFI) ने शुरू किया है और कांगी-वामी-जिहादी हवा दे रहे हैं। सबसे बड़ी बात, यह मामला यहीं तक सीमित रहता नहीं दिख रहा। कांगी-वामी-जिहादी गठबंधन किसी न किसी तरह से भारत में अराजकता फैलाए रखना चाहता है। वैमनस्य फैलाकर वह विश्वपटल पर भारत की बढ़ती साख को गिराना चाहता है और किसी न किसी तरह से सत्ता हासिल करना चाहता है।
जब तक भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं होगी तब तक ऐसे मुद्दे उठते रहेंगे। आज कक्षा में हिजाब पहनने दो, कल कहेंगे स्कूल / कॉलेज में नमाज अदा करने दो, परसों कहेंगे नमाज अदा करने के लिए अलग स्थान चाहिए। उसके बाद नमाज के समय कक्षा में जाने से छूट दो, फिर रविवार को छुट्टी क्यों है, शुक्रवार को क्यों नहीं? फिर पाठ्यक्रम में कृष्ण, बुद्ध और राम के चैप्टर क्यों हैं, इन्हें हटाया जाए। स्कूल में मिड डे मील और कॉलेज कैंटीन में हलाल गोमांस ही परोसा जाए। मुसलमान गोमांस खाते हैं, यह हमारा मजहबी अधिकार है और फिर हो सकता है मई, जून के बजाय रमजान के महीने में वार्षिक अवकाश की भी मांग कर दी जाए…. इस तरह यह क्रम रुकने वाला नहीं है। जिनका उद्देश्य ही देश में शरिया कानून लागू करना है, जो संविधान की बात ही तब करते हैं जब इन्हें कुछ हासिल करना होता है, वरना संविधान तो क्या उस देश तक को अपना नहीं मानते जहॉं रहते हैं, सारी सुख सुविधाएं भोगते हैं। ऊपर लिखी बातों को कुछ लोग बतंगड़ बनाना कह सकते हैं, परंतु समय समय पर कहीं न कहीं से ऐसी आवाजें उठती रही हैं। कांग्रेस राज में तो नमाज के लिए ऑफिस से छुट्टी दिए जाने की घोषणाएं होती रही हैं। अघोषित रूप से यूपी के कई सरकारी स्कूलों में शुक्रवार को अवकाश भी होने लगा था और तो और इन स्कूलों के नाम के आगे से राजकीय शब्द हटा कर इस्लामिया लिख तक दिया गया। योगी राज में जब यह मामला खुला तब जाकर राजकीय विद्यालय इस्लामिया से वापस राजकीय बन पाए। इस्लाम दीमक की तरह फैलता है, यह अंदर ही अंदर किसी भी देश और उसकी संस्कृति को चाटता रहता है और जिस दिन इसके अनुयायी बहुसंख्यक हो जाते हैं वह देश अपना मूल स्वरूप व संस्कृति ही खो देता है। अफगानिस्तान, ईरान जैसे देश इसका उदाहरण हैं।
भारत को भी यह दीमक लग चुकी है। जिसे खाद पानी देने का काम कांगी, वामी, जिहादी, आंदोलनजीवी और टुकड़े टुकड़े गैंग के लोग करते हैं। आज ये लोग भले ही मुट्ठीभर हों परंतु इनका ईको सिस्टम मजबूत है। तभी तो इधर हिजाब विवाद होता है और उधर नोबल पुरस्कार प्राप्त मलाला जैसों का बुर्के के पक्ष में ट्वीट वायरल होने लगता है। यह वही मलाला हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘आय एम मलाला’ में बुर्के को गलत और घुटन भरा बताया था। उन्होंने लिखा था, ‘बुर्का पहनना एक बड़े कपड़े से बनी शटलकॉक के अंदर घुसकर वॉक करने जैसा है, जिसमें बाहर देखने के लिए सिर्फ एक ग्रिल है, जो गर्मी के दिनों में एक ओवन की तरह हो जाता है।’ यही मलाला अब लिखती हैं कि ‘कॉलेज हम पर दबाव डाल रहे हैं कि हम हिजाब या शिक्षा में से किसी एक चीज को चुन लें। हिजाब के साथ लड़कियों को स्कूल में एंट्री न देना भयानक है। महिलाओं पर कम या ज्यादा कपड़े पहनने को लेकर दबाव डाला जा रहा है। भारतीय नेताओं को मुस्लिम महिलाओं को किनारे लगाने की कोशिश पर रोक लगानी चाहिए।’
नोबल लॉरेट मलाला को पाकिस्तान में आए दिन अपहृत होने वाली हिन्दू लड़कियां, उनके साथ रेप, और उनका जबरन मतांतरण शायद ‘जस्टीफाइड’ लगता है, इसीलिए इन मामलों पर वे चुप रहती हैं। काफिर-कुफ्र दर्शन वाले इस्लाम के मूल में ही ऐसा है कि एक मुस्लिम देश तक ऐसे कृत्यों की भर्त्सना करने आगे नहीं आता। उल्टे सऊदी अरब व टर्की जैसे अनेक मजहबी देश भारत में मतांतरण व मजहबी कट्टरता को बढ़ावा देने वाले संगठनों की फंडिंग करते हैं। जिनमें पीएफआई और जमात ए इस्लामी हिंद जैसे संगठन प्रमुख हैं।
कर्नाटक के उडुपी के सरकारी महिला इंटर कॉलेज (Government Pre-University College for Girls, Uddupi) में कक्षा में हिजाब पहन कर आने की मांग करने वाली छात्राएं भी पीएफआई की ही छात्र इकाई कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया (CFI) से जुड़ी बताई जा रही हैं।
भारत में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होने वाले होते हैं। मुसलमानों को अपना वोट बैंक मानने वाली राजनीतिक पार्टियां इस तरह के मुद्दों को समर्थन देकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगी रहती हैं। आज कई जगह ऐसे पोस्टर लगे हैं जिनमें लिखा है पहले हिजाब फिर किताब, यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे पहले मौत फिर जिंदगी। इन पोस्टर्स में यह भी लिखा है कि हर कीमती चीज पर्दे में होती है। इस पर समाजसेवी फातिमा (बदला हुआ नाम) कहती हैं ‘हम सिर्फ चीज नहीं हैं, हम भी हाड़ मास के बने हैं, हमारे जिस्म में भी एक दिल धड़कता है। हम भी जीना चाहती हैं, हमारे भी सपने होते हैं, लेकिन अक्सर वे कुचल दिए जाते हैं, मुस्लिम समाज में सबसे ऊपर कुछ है तो वह है मजहब।’ ऐसे में मुस्लिम महिलाओं को लेकर बाबा साहब अम्बेडकर की चिंता आज भी प्रासंगिक है। अपनी पुस्तक पाकिस्तान या भारत विभाजन में वे लिखते हैं कि ‘पर्दा प्रथा के कारण मुस्लिम महिलाएं अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं। वो किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पातीं, जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है। उनमें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहती क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि वे घर की चारदीवारी के बाहर किसी बात में रुचि न लें। मुस्लिम महिलाओं में पर्दे की समस्या व्यापक और गंभीर है।’
आज सऊदी अरब भी, जहॉं से इस्लाम की शुरुआत हुई, अपनी अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए विजन 2030 लेकर चल रहा है, जिसके अंतर्गत महिलाओं को गाड़ी चलाने, अबाया से मुक्ति देने जैसे अधिकार दिए जा रहे हैं। लाउड स्पीकर पर अजान बैन है, नमाज के समय मॉल व दुकानें खुली रहती हैं, मस्जिद गिराकर मॉल बनाए जा रहे हैं। लेकिन भारत के मुसलमान जो दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत में सबसे उन्मुक्त, स्वच्छंद और खुले वातावरण में जीते हैं, जिन्हें बहुसंख्यकों से अधिक अधिकार प्राप्त हैं, वे सत्ता लोलुप राजनेताओं और मुल्लों-मौलवियों के छलावे / बहकावे में आकर अपने समाज की प्रगति में तो रोड़ा बनते ही हैं, सामाजिक सद्भाव भी बिगाड़ते हैं। हिजाब विवाद / मांग भी इसी का परिणाम है।