ब्यूरोक्रेसी हिन्दी में सोचना कब शुरू करेगी…?
मुरारी गुप्ता
हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हिन्दी दुनिया भर में तीसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है। दुनियाभर में हिन्दी को बोलने, लिखने, समझने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। कंप्यूटर की दुनिया के दिग्गज हिंदी के अनुरूप अपने सॉफ्टवेयर तैयार कर रहे हैं। बड़ी कंपनियां अपने उत्पादों पर लिखी जाने वाली सामग्री को अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी लिखने लगे हैं। क्रिकेट की हिंदी कमेंट्री के लिए अलग से चैनल शुरु हुआ है। मजेदार बात यह भी कि कई बड़े राजनेताओं को इस बात का दुख रहा है कि उन्हें हिंदी आती तो वे भी प्रधानमंत्री बन सकते थे। लेकिन इसके बावजूद भारत की स्वतंत्रता के लगभग तिहत्तर साल बाद भी हमारी ब्यूरोक्रेसी में अंग्रेजीयत अब भी जस की तस रची बसी है। औपनिवेशिक मानसिकता वाली ब्यूरोक्रेसी में अभी तक हिंदी दखल नहीं दे सकी है! क्या नई शिक्षा नीति के माध्यम से मैकाले की उस मानसिकता से मुक्ति का कोई मार्ग निकल पाएगा। यह भविष्य का सवाल है, जिसका जबाव आने वाले दशकों में ही ढूंढ़ा जा सकेगा।
आखिर क्यों ब्यूरोक्रेसी के डीएनए में अभी तक अंग्रेजी और अंग्रेजीयत बनी हुई है? आंकड़ों की जुबानी देखेंगे, तो इस पर बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होगा। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित 2019 के बैच के 326 सिविल सेवकों में से सिर्फ आठ ऐसे उम्मीदवार थे जिनका परीक्षा देने का माध्यम हिन्दी था, जबकि 315 का परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। शेष तीन का भारत की अन्य भाषाएं। इसी प्रकार वर्ष 2018 में प्रशासनिक सेवा के 370 अभ्यर्थियों में से 357 का परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी और मात्र आठ ने हिन्दी भाषा के माध्यम से यह परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वर्ष 2016 में प्रशासनिक सेवा के 377 में से मात्र 13 ने, वर्ष 2015 में 350 में से केवल 15 ने और वर्ष 2014 में 284 उत्तीर्ण उम्मीदवारों में से मात्र छह ने हिन्दी माध्यम से देश की यह तथाकथित प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण की थी। देश की अनेक भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें परीक्षा का माध्यम बनाकर शायद ही कभी कोई प्रशासनिक सेवा अधिकारी बना है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस तथाकथित प्रतिष्ठित परीक्षा के माध्यम से देश का प्रशासन चलाने वालों में हिन्दी और भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व कैसे और कहां से आ पाएगा?
क्या हिन्दी भाषा में पढ़ाई करने वाले अभ्यर्थियों की योग्यताओं, क्षमताओं या उनके सामान्य ज्ञान में कहीं कोई कमी दिखती हैं? अगर भाषा के माध्यम को ही श्रेष्ठता का मापयंत्र बनाकर संघ लोकसेवा आयोग अभ्यर्थियों का चयन करता है, तो बाकी सारी योग्यताएं और क्षमताओं का कोई मूल्य ही नहीं है! फिर क्यों हम हिंदी के तथाकथित गर्व का दुनियाभर में डंका पीटा करते हैं? क्या सचमुच हिंदी माध्यम से इतने गए गुजरे अभ्यर्थी सिविल सेवा परीक्षा में शामिल होते हैं कि उनकी रैंकिंग ही तीन सौ के बाद से शुरू होती है?इलिटिज्म से ग्रस्त प्रशासनिक सेवा परीक्षा की चयन प्रणाली में सी-सैट का विवाद कई महीनों तक चला था। उस समय हिंदी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों ने सिविल सेवा परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता के विरुद्ध लंबा आंदोलन किया था। थोड़ी बहुत जीत जरूर मिली थी। लेकिन फिर भी सिविल सेवा परीक्षा को अंग्रेजी के इलिटिज्म से मुक्त नहीं करवा सके।
आखिर हम क्यों अंग्रेजी को खुद ही अपने सिर पर लादे हुए हैं? हम क्यों इस हीन ग्रंथी से ग्रसित है कि अंग्रेजी पढ़ने वाला ही विद्वान और चतुर हो सकता है? संघ लोकसेवा आयोग और उन सभी बोर्ड और आयोगों को इस हीन ग्रंथी से मुक्त करना ही होगा। क्यों नहीं इन बोर्ड और आयोगों में ऐसे विद्वानों को नियुक्त किया जाए जो समझते हैं कि अंग्रेजी माध्यम के बाहर भी एक आकाश है जिसमें ढेरों योग्यताओं और असीम क्षमताओं वाले मस्तिष्क विकसित हो सकते हैं?
असल में समस्या अंग्रेजी भाषा या अंग्रेजी माध्यम की भी नहीं है। भाषा के तौर पर अंग्रेजी अन्य भाषाओं की तरह समृद्ध भाषा है, जिसका अध्ययन और अध्यापन पर सबको समान अधिकार है। और रुचि रखने वालों को उसका अध्ययन और उसे माध्यम बनाना चाहिए। समस्या अंग्रेजी की मानसिकता से ग्रस्त और उससे बनी पूर्वाग्रह की ग्रंथी की है, जिसमें कथित तौर पर यबह मानकर ही चला जाता है कि कोई व्यक्ति अंग्रेजी भाषी है तो वह परमज्ञानी होगा ही है और हिंदी या अन्य भारतीय भाषी है तो उस पर सिर्फ विचार किया जा सकता है!
हम क्यों उन विद्यार्थियों के अभिभावकों पर इस बात के लिए जोर डालें कि वे अपने बच्चों को हिंदी या स्थानीय भाषा माध्यम वाले विद्यालयों में पढ़ाएं? जब हमने पूरी व्यवस्था ही हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विरोधी और ‘इंग्लिश फ्रेंडली’कर रखी है। इस तथाकथिक अंग्रेजी के आकर्षण ने गैर अंग्रेजी भाषी अभिभावकों को अपने बच्चों को मजबूरन अंग्रेजी भाषी स्कूलों में दाखिले के लिए बाध्य कर रखा है। राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहे तो इस वातावरण को पूरी तरह बदल भी सकती है। लेकिन समस्या यह है कि उस वातावरण को यथास्थित बनाए रखने वाली अंग्रेजी मानसिकता वाली ब्यूरोक्रेसी क्या ऐसा होने देगी? कितने आश्चर्य की बात है कि वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े के अनुसार गैर सूचीबद्ध भाषाओं में मात्र ढाई लाख लोग अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताते हैं लेकिन फिर भी देश में सत्तर प्रतिशत से ज्यादा स्कूलें अंग्रेजी भाषा माध्यम की हैं और उनमें पढ़ने वाले निन्यावें प्रतिशत विद्यार्थी गैर अंग्रेजी भाषी परिवारों से हैं।
बड़ा सवाल यह है कि जब अंग्रेजी भाषा का भारतीय जनमानस से संपर्क और संवाद में कहीं भी उपयोग नहीं हो रहा है, तो ऐसी क्या परिस्थितियां है कि हमने हर अखिल भारतीय परीक्षाओं में अंग्रेजी का फिल्टर लगा रखा है। फिल्टर लगाने के और भी कई रास्ते हैं। अंग्रेजी ही क्यों? क्यों अंग्रेजी के नाम पर गैर अंग्रेजी भाषी अभ्यर्थियों के दिमाग में एक अनावश्यक डर पैदा किया जा रहा है? अभ्यर्थियों की योग्यता को जांचने और मापने के और भी कई मनोवैज्ञानिक पैमाने हो सकते हैं जिन पर काम किया जाना चाहिए। सिर्फ अंग्रेजी के अनसुने, अनदेखे और अव्यवहारिक शब्दों को आधार पर अभ्यर्थियों की योग्यता मांपने का चक्रव्यूह कब खत्म होगा?
कोरोना कालखंड में ब्यूरोक्रेसी के बुरी तरह विफल होने का बड़ा कारण भी यही रहा है। यह तथ्य है कि भारतीय समाज, विविध सेवा संगठन, चिकित्सक और भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों ने भारत को कोरोना के भयंकर दुष्प्रभाव से बचा लिया है, वरना ब्यूरोक्रेसी के नियमित अंतराल पर उलटने-पलटने और बदलने वाले निर्णय भारतीय समाज को एक भयंकर चक्र में फंसा सकते थे। समाज विज्ञानी स्वीकारते हैं कि वैसे तो अंग्रेजी मानसिकता के साथ तैयार होने ब्यूरोक्रेसी का देश के विकास में योगदान रेखांकित योग्य नहीं है, लेकिन कोरोना के कालखंड में तो उनकी भूमिका बिलकुल भी अच्छी नहीं रही।
ब्यूरोक्रेसी और आम लोगों के बीच की दूरी की एक बड़ी वजह अंग्रेजीयत मानसिकता में परीक्षा से लेकर प्रशिक्षण भी है। अंग्रेजी में सोचने विचारने वाली ब्यूरोक्रेसी अक्सर धरातल की वास्तविकता से अनजान रहती है और अपने राजनैतिक संरक्षकों को अपने तथाकथित ज्ञान से आंकड़ों के भ्रम में उलझाकर रखते हैं। तथाकथित अंग्रेजीयत के पैरोकारों की ओर से यह भ्रम भी जानबूझकर पैदा किया गया है कि अंग्रेजी में कहीं गई बातों का असर प्रभावशाली होती है और दुर्भाग्य से इसे ही मान लिया गया है। कई अकादमिक विद्वान सिविल सेवकों की तुलना इसी आधार पर आधुनिक सामंतवाद से भी करते हैं।
केंद्र ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की है। इसमें प्राथमिक शिक्षा यानी आठवी क्लास तक की लिखाई-पढ़ाई हिंदी या स्थानीय भाषा में करवाने का प्रावधान किया गया है। निश्चित ही सैद्धांतिक रूप से यह क्रांतिकारी कदम है। लेकिन अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त लालफीताशाही के माध्यम से इसे लागू करवाना इतना आसान होगा, यह कहना कठिन है। लेकिन फिर भी उम्मीद है कि समाज जिस भाषा में सोचता और विचार करता है नई शिक्षा व्यवस्था उसे पल्लवित करेगी और आने वाले कुछ दशकों में समाज की व्यवस्था को संभालने वाली एक ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जो समाज की ही भाषा बोलती है और समझती भी है।