विश्व वक्ष पर उभरते हिन्दू संस्कृति के हस्ताक्षर
डॉ. ऋतुध्वज सिंह
विश्व वक्ष पर उभरते हिन्दू संस्कृति के हस्ताक्षर
‘सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा’ कहकर यजुर्वेद ने जिस हिन्दू संस्कृति के प्रथम आविष्कृत होने, तत्पश्चात् विश्वव्यापी बनने की बात स्वीकारी है। आज भी विश्व वक्ष पर उसके अमेट हस्ताक्षर संसार के कोने-कोने में अंकित हैं। समय के गर्त में उन पर कुछ धूल अवश्य जम गई है, परंतु जैसे ही यह धूल हटती है, हमारे पदचिह्न स्पष्ट हो उठते हैं। सनातन संस्कृति को देव संस्कृति कहकर सम्मानित किया गया है। आज मानवता अपने सबसे कठिनतम दौर से गुजर रही है। विश्व देवासुर संग्राम की भांति दो विपरीत पंक्तियों में आबद्ध हो चला है, ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि विश्व में सनातन संस्कृति का वह सुंदरतम स्वरूप जिसमें, वसुधैव कुटुम्बकम का भाव निहित है, प्रतिस्थापित हो।
अक्सर सुनते रहते हैं, कि भूतकाल में हमारे पूर्वज सारे विश्व का मार्गदर्शन करने में सफल हुए थे। संसार के कोने-कोने में संस्कृति, समृद्धि और व्यवस्था की स्थापना करने को ही हमारे पूर्व पुरुषों ने अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य माना था। यहाँ के महापुरुषों ने अपने को तप, साधना और संयम की अग्नि में तपाकर खरा सोना बनाया तथा विद्या, प्रतिभा व शालीनता के माध्यम से ज्ञान का आलोक – सुसंस्कारिता के तत्वदर्शन को जन-जन तक पहुँचाने के लिए विश्वभर में उसके विस्तार के लिए घोर परिश्रम किया। जब से सभ्यता के अवशेष चिन्हों को खोजने की विधाएँ विकसित हुई हैं, भग्नावशेष, वस्तु प्रमाण, फॉसिल्स, शिलालेख, काष्ठ फलकलेख, चर्मपट्ट लेख, भोजपत्र लेख, भित्ति लेखों आदि प्रमाणों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा की प्रामाणिकता ही सिद्ध हुई है।
मैक्समूलर अपनी पुस्तक “इण्डिया – व्हाट इट कैन टीच अस” में लिखते हैं- “भाषा, धर्म, पुराण- कथा, तत्वज्ञान, न्याय कानून, नीति-रीति, कला एवं प्राचीन शास्त्र इत्यादि जो भी मानव मस्तिष्क के विकास क्षेत्र माने गए हैं, उनमें से किसी भी एक विषय का अध्ययन आरंभ करने के बाद, आगे बढ़ने के लिए इच्छा या अनिच्छा से तुम्हें भारत की यात्रा करनी ही होगी। क्योंकि मानव इतिहास की सर्वाधिक मूल्यवान, महत्वपूर्ण ज्ञानदायक सामग्री का विपुल भण्डार तो सिर्फ भारत में और भारत में ही संग्रहीत है।”
भारतीय विद्वान पूरी दुनिया में गए। उन्होंने सुदूर देशों में सनातन संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। सुव्यवस्था जुटाने व वहाँ के नागरिकों को अविद्या व अशिक्षा से छुटकारा दिलाकर वैयक्तिक व सामाजिक समर्थता का पथ उनके लिए प्रशस्त करने के कारण उन्हें “जगद्गुरु” सम्मान मिला। विश्व में जहाँ जहाँ भी मानव सभ्यता विकसित हुई, उसके मूल में हिन्दू संस्कृति का ही आधार था। राजतंत्र और धर्मतंत्र का लाभ समस्त विश्व को निरन्तर पहुँचाते रहने के कारण भारत की भौगोलिक मर्यादाएँ समस्त भूमण्डल में संव्याप्त थीं। लंका, नेपाल, भूटान, बर्मा पाकिस्तान, बंगलादेश इन दिनों भारत से अलग कट गए हैं, किन्तु इसी शताब्दी तक यह अपने देश के अविच्छिन्न अंग रहे हैं। कुछ शताब्दियों पूर्व की स्थिति देखें तो पाते हैं कि भारत का विस्तार पूरे एशिया महाद्वीप में था पूर्व एशिया में इण्डोनेशिया, इन्डोचीन ( वियतनाम, लाओस, कंबोडिया) मलेशिया तथा थाईलैण्ड ( स्याम देश) के अंदर आने वाले समस्त देश और द्वीप भारतवर्ष के ही अंग थे। पश्चिम एशिया में ईरान, ईराक, अरब, अफगानिस्तान आदि देश जो इन दिनों इस्लाम के केन्द्र हैं, उन दिनों भारत की सांस्कृतिक सीमा के अंतर्गत ही आते थे। एशिया से जुड़े पुराने सोवियत संघ के कजाकिस्तान, अजरबेजान, तजाकिस्तान आदि सभी राष्ट्र बृहत्तर भारत के ही अंग थे। निरन्तर सघन संपर्क, प्रखर आदान-प्रदान संबंधी सूत्रों से पूरा एशिया महाद्वीप एक ही सांस्कृतिक चेतना के सूत्रों में बंधा हुआ था। यह प्रभाव क्षेत्र यूरोप, अफ्रीका आदि समीपवर्ती महाद्वीपों को भी छूता था और उसकी कुछ किरणें अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अर्जेन्टीना तक पहुँचती थीं।
विश्व परिवार से संपर्क बनाने के लिए प्राचीनकाल में भारत ने अपने जलयान अधिकाधिक सुविकसित किये थे। प्रसिद्ध यात्री मैगस्थनीज ने अपने यात्रा विवरणों में भारत की समुन्नत जलशक्ति का विस्तार से उल्लेख किया है। “इण्डिया इन ग्रीस” पुस्तक के विद्वान लेखक का मत है कि ईसा से 400 वर्ष पूर्व भारतीय दार्शनिक उस देश में धार्मिक शिक्षा देने पहुँचे थे।
पुराणों पर दृष्टि डालने पर पता चलता है कि विश्वामित्र की शापित संततियों को देश निकाला मिला तो वे आस्ट्रेलिया चले गए और उसे नये सिरे से बसाया। ऋषि पुलस्त्य के भी भारतीय ज्ञान-विज्ञान के विस्तार हेतु उस देश में जाने का विवरण मिलता है। बूमेरंग अस्त्र (शब्द बेधी बाण) से लेकर बोलचाल तथा अन्यान्य रीतिरिवाजों से आस्ट्रेलियाई अबरिजिन कोल, भील, संथाल से बहुत मिलते जुलते हैं। अमेरिका पुराणों का पाताललोक या नागलोक है, वहाँ प्राप्त प्रतिमाओं और अवशेषों में नागदेवताओं की आकृतियाँ मिलती हैं। भारत के पूर्व और पूर्वोत्तर में बसने वाली नाग जाति ही वहाँ जाकर बसी थी। रावण के भाई अहिरावण का भी पाताल लोक ही निवास था। तत्कालीन सभ्यता बड़ी विकसित स्तर की थी। दक्षिण अमेरिका के पेरू, बोलीविया आदि देशों में जो अवशेष मिले हैं, वे सूर्यवंशी इंका राजाओं के शासन का प्रमाण हैं। मैक्सिको की एक जनजाति जिसका नाम अपाच्य है, ऋग्वेद के ऐतरेय ब्रह्मण के रुद्रमहविशेक प्रकरण में सुदूर पश्चिम में अपाच्य एवम निच्य जातियों का उल्लेख मिलता है। राजा इक्ष्वाकु के पौत्र शक से जन्मी शक जातियां भी पुराणों में शाकद्वीप में रहने वाली बताई गई हैं। साम्ब पुराण में इनके सूर्योपासक होने व वर्णाश्रम धर्म को मानने का विवरण है। भारत की मंग जातियों से ही मंगोलिया बना है।
‘हिस्टोरियन हिस्ट्री ऑफ दि वर्ल्ड’ में बेविलोनिया के प्राचीन निवासियों को भारतीय वंश का ही माना गया है। वे लोग भारत में पूजे जाने वाले देवताओं की ही आराधना करते थे।
पीकॉक की ‘इंडिया इन ग्रीस’ ग्रंथ में जो प्रमाण और आधार प्रस्तुत किए गए हैं, उनसे सिद्ध होता है कि मिश्र के प्राचीन निवासी अपने को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहते थे और अपने को आदि मनु की संतान मानते थे।
अमेरिका में पुरातत्ववेत्ताओं ने शोध कर यह निष्कर्ष निकाला की यूरोपियन्स के आने से पहले ईसा से लगभग एक शताब्दी पूर्व वहां पर माया, कुज्का और एंड्रिस सभ्यताएं विकसित व समुन्नत थीं। रेड इंडियन्स उन्हीं की उत्पत्ति हैं। मैक्सिकन विद्वान जेम्स चर्चमूर ने लिखा है कि उनके पूर्वज सुदूर पूर्व से आए थे और जल विद्या में निपुण थे। महाभारत में माया नगरी का उल्लेख पाताल में ही मिलता है जो वर्तमान अमेरिका ही सिद्ध होता है।
लैली मिचल द्वारा लिखित ‘कांकेस्ट ऑफ दि माया’ ग्रंथ में मैक्सिको में ऐसे अनेक प्रमाणों का संग्रह है, जिनसे पुरातन भारत और मैक्सिको की सांस्कृतिक घनिष्ठता सहज सिद्ध होती है। मैक्सिको के प्राचीन मंदिर ‘कोपन’ की दीवारों पर हाथी पर सवार महावत के भित्ति चित्र में भारतीय चित्र कला की अमिट छाप है । ‘निकल’ में मुंडधारी शिव की प्रतिमा एक भव्य वेदी पर प्रतिष्ठित मिली है। अनंत, वासुकि और तक्षक सर्प देवताओं की प्रतिमाएँ मंदिर की दीवारों व स्तंभों पर मिलती हैं। प्राचीन अवशेष यह बताते हैं कि अमेरिका कभी भारत का सांस्कृतिक उपनिवेश था।
प्राचीन मिस्र में भारतीय ऋषियों के प्रवास आदि का वर्णन पहले हो चुका है। मिस्र में पिरामिडों के भीतर सूर्य की प्रतिमाएं और ताम्र या स्वर्ण पत्रों पर गाय के चिह्न यह बताते हैं कि ये गो पूजक भी थे, जो मूलतः भारतीय संस्कृति के ही हस्ताक्षर हैं।
सुमात्रा जिसका प्राचीन नाम श्रीविजय द्वीप था, उसके अनेक शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि सातवीं शताब्दी में वहां नाग वंश का शासन था। सन 724 में वहां श्रीचंद वर्मा का शासन था।
भारतीय संस्कृति के ध्वजारोहण का इतिहास मानव के अस्तित्व काल से है। विश्व वसुधा के किसी भी कोने में, जहां मानव सभ्यता रही है, वहां हमारे पद चिह्न अवश्य मिले हैं। हाल में तो सऊदी अरब में भी खुदाई के दौरान 8000 वर्ष पुराना मंदिर, वेदी व मानव बस्ती के प्रमाण मिले हैं। कहना केवल इतना है कि अपनी सांस्कृतिक विरासत के विस्तार से गौरवान्वित होने तथा इसके पुनर्स्थापन के लिए उसी प्राणप्रण से कटिबद्ध पुरुषार्थ हेतु तत्पर होने की आवश्यकता है, जैसा कभी इसके प्रणेताओं ने किया था ।