जबलपुर में सेना के आंदोलन ने अंग्रेजों का मनोबल तोड़ दिया था
अंग्रेज़ भारत से क्यों भागे – 2
प्रशांत पोळ
मुंबई के नौसैनिकों के आंदोलन से अंग्रेजी शासन दहल गया था। नौसेना में इतना असंतोष होगा और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति सैनिकों में इतना ज्यादा आकर्षण होगा, इसका अंदाज ब्रिटिश शासन को नहीं था। इसलिये भारत में अभी 5-10 वर्ष और रहना या फिर वापस ब्रिटेन चले जाना इस विषय पर उनमें मंथन चल रहा था।
तभी एक और घटना हुई और अंग्रेजों का भारत छोड़ने का निर्णय पक्का हुआ…!
जबलपुर में सेना के सिग्नल कोर के जवानों ने आंदोलन छेड़ दिया !
मुंबई का आंदोलन शनिवार 23 फरवरी 1946 को थमा। और एक सप्ताह भी गुजरा नहीं कि जबलपुर से समाचार आया, ‘सेना के जवानों ने आंदोलन छेड दिया है’। अंग्रेज अधिकारियों को बैरकों में बंधक बना कर रखा है, और अस्त्र शस्त्रों पर कब्जा कर लिया है !
जबलपुर यह देश के बीचों बीच बसा एक सुंदर सा शहर है। सन् 1818 में मराठों को परास्त कर अंग्रेजों ने जबलपुर में प्रवेश किया था। यहां का वातावरण, हरियाली, पहाड़ियां और आबोहवा देखकर अंग्रेजों ने यहां सैन्यतल बनाने का निर्णय लिया।
सन् 1911 में, प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभ में, अंग्रेजों ने संचार सेवा की महत्ता समझी थी। उन्हीं दिनों बेतार (Wireless) संचार का आविष्कार हुआ था। इसलिये संचार सेवा के प्रशिक्षण की एक कोर, अंग्रेजों ने 15 फरवरी 1911 को जबलपुर में स्थापित की, जिसे ‘Signal Training Centre’ नाम दिया गया। तब से आज तक, सेना के सिग्नल कोर में आने वाले प्रत्येक जवान और अधिकारी को प्रशिक्षण के लिये जबलपुर आना ही पड़ता है।
सन् 1946 में जबलपुर में इंडियन सिग्नल कॉर्प्स के दो बडे केंद्र थे। एक था सिग्नल ट्रेनिंग सेंटर (STC), जिसमें नंबर 1 सिग्नल ट्रेनिंग बटालियन (सेना) और नंबर 2 और 3 सिग्नल ट्रेनिंग बटालियन (तकनीकी) ये तीन यूनिट शामिल थे।
दूसरा था ‘इंडियन सिग्नल डेपो एंड रेकॉर्ड्स’। एसटीसी के कमांडेंट थे कर्नल एलसी बॉईड और कर्नल आरटीएच गेलस्टन, सिग्नल डेपो एंड रेकॉर्ड्स के कमांडेंट थे। ये दोनों आस्थापनाएँ जबलपुर में स्थित ब्रिगेडिअर एचयु रिचर्ड्स के अधीन थीं, जो 17 इंडियन इन्फेंट्री ब्रिगेड के प्रमुख थे। उन दिनों, जबलपुर का सैन्य क्षेत्र नागपुर मुख्यालय के अंतर्गत आता था। नागपुर के मुख्यालय में बैठे मेजर जनरल एचएफ स्किनर इस सारे परिक्षेत्र के प्रमुख थे और उनकी रिपोर्टिंग रहती थी, आगरा में स्थित सेंट्रल कमांड प्रमुख को।
संचार प्रशिक्षण के इस मुख्यालय के सैनिकों ने, मुंबई का सैनिकी आंदोलन थमने के ठीक चार दिन बाद, अर्थात बुधवार 27 फरवरी 1946 को, अचानक आंदोलन की घोषणा की। इसकी शुरुआत की, नंबर 2 सिग्नल ट्रेनिंग बटालियन की G कंपनी ने, सुबह ठीक 9.20 बजे। इस दिन सुबह 7 बजे की परेड ठीक से हुई जो सुबह 8.30 बजे समाप्त हुई। इसके बाद, जब सब लोग नाश्ता ले रहे थे, तभी लगभग 200 वर्कशॉप ट्रेनी कतार में खडे होकर घोषणाएँ देने लगे। ये सभी आर्मी यूनिफॉर्म में थे और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘जय हिंद’ की घोषणाएँ दे रहे थे। इनमें से कुछ लोगों ने कांग्रेस का झंडा भी उठाया था।
इनके सूबेदार मेजर अहमद खान ने जब इन्हें रोकने का प्रयास किया, तो जवानों ने मना किया। खान ने नाश्ता कर रहे अफसरों को टेलिफोन किया। वे भी दौड़े भागे आए। कंपनी कमांडर डीसी डेशफिल और ट्रेनिंग ऑफिसर जे नॉल्स भी पँहुच गए थे। लेकिन ये जवान किसी की भी सुनने के मूड में नहीं थे।
इन जवानों की बुलंद आवाज, नंबर २ सिग्नल ट्रेनिंग बटालियन में पहुंच रही थी। वहां के बाकी बचे जवानों को साथ लेकर यह जुलूस नंबर 3 सिग्नल ट्रेनिंग बटालियन पहुंचा। अब तक डेढ़ हजार से ज्यादा जवानों का, अनुशासित जुलूस तयार हो गया था।
इन सब के असंतोष के कारण वही थे जो, मुंबई के नौसैनिकों के थे। इन्हें भी अंग्रेज अफसरों का भारतीय जवानों के प्रति दुर्व्यवहार अखरता था। इन्हें भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ‘आजाद हिंद फौज’ के सेनानियों को सजा देना, मृत्युदंड देना मंजूर नहीं था।
ये सभी रेडियो सिग्नल यूनिट के जवान थे। संचार के क्षेत्र में होने के कारण, इन सभी को मुंबई में नौसेना के जवानों ने जो हिम्मत दिखाई थी, उसकी जानकारी थी। बाद में इन नौसैनिकों को अपने हथियार ब्रिटिश अफसरों के सामने डालने पड़ेंगे, ये भी उन्हें मालूम था। इन सब के बावजूद जबलपुर के इन सैनिकों नें आंदोलन छेड़ा था।
ये जवान जब रास्तों पर आ गए, तो उनकी संख्या बढ़ने लगी थी। धीरे धीरे यह 1700 तक जा पहुंची। ये जवान अहिंसक थे। देशभक्ति के, आजाद हिंद सेना के और सुभाष बाबू के ये नारे लगा रहे थे। इनका प्रिय नारा था – ‘जय हिंद’ !
लगभग 4 दिनों तक यह आंदोलन चला। दूसरे दिन अर्थात 28 फरवरी 1946 को सिग्नल डिपो और रिकॉर्ड्स में भी आंदोलन की आग भड़क चुकी थी। लगभग 200 क्लर्कों ने जुलूस की शक्ल में डिपो बटालियन पर धावा बोला। 1946 का फरवरी, 28 दिनों का था। दिनांक 1 मार्च को सिग्नल बटालियन और सिग्नल डिपो के जवानों ने सदर की सडकों पर नारे लगाते हुए जुलूस निकाला।
2 मार्च को अंग्रेजों ने ‘सोमरसेट लाईट इंफेंट्री’ को इन आंदोलनकारी जवानों के सामने खडा किया। यह पूर्णत: अंग्रेज सिपाहियों की फौज थी। इसे प्रिंस अल्बर्ट की सेना भी कहा जाता था। (ठीक २ वर्ष बाद यह सेना, दिनांक 28 फरवरी 1948 को इंग्लैंड वापस लौट गई थी)
सोमरसेट लाईट इंफेंट्री के अंग्रेज सैनिकों को इन आंदोलनकारी सिग्नल्स के जवानों के प्रति सहानुभूति होने का प्रश्न ही नहीं था। उन्होंने अत्यंत बर्बरता से जवानों के इस आंदोलन को कुचला। इस आंदोलन के 8 प्रमुख नेताओं को गोलियों से जख्मी किया। 32 जवान गंभीर रूप से घायल हो गए।
इन आंदोलनकारी जवानों ने स्थानीय काँग्रेस से आंदोलन को समर्थन देने के लिये संपर्क किया था। किंतु उन्हें निराशा हाथ लगी। काँग्रेस के नेताओं ने उनका समर्थन करने से साफ मना किया। उन्होंने आंदोलन कर रहे जवानों से मिलकर, उन्हें तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद का पत्र दिखाया। जिसमें उन्हें बैरकों में वापस जाकर सामान्य व्यवहार करने के लिये कहा गया था।
3 मार्च 1946 को एक पत्रकार वार्ता में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘जबलपुर विद्रोह’ का उल्लेख किया और कहा – “There were also some political demands. Such demands should not normally be made on the basis of a strike. We have seen recently strikes by American and British servicemen.”
उन दिनों जबलपुर से ‘सेंट्रल असेंब्ली’ में सेठ गोविंददास प्रतिनिधित्व करते थे। जबलपुर का यह आंदोलन जब चल रहा था, तब दिल्ली में ‘सेंट्रल असेंब्ली’ का सत्र भी चल रहा था। शुक्रवार दिनांक 15 मार्च को सेठ गोविंददास ने यह मुद्दा दिल्ली की सेंट्रल असेंब्ली में उठाया। सरकार के वॉर सेक्रेटरी फिलिप मेसन ने इस पूरे घटनाक्रम का सरकारी निवेदन किया। उनके अनुसार जबलपुर के इस ‘विद्रोह’ में 1716 सिग्नल के जवान शामिल थे। इनमें से 35 जवान गंभीर रूप से घायल हुए। इन्होंने किसी भी गोली चलने की घटना से इंकार किया।
3 मार्च 1946 की रात होते होते, बचे खुचे सिग्नल्स के जवान अपने अपने बैरकों में लौट गए और जबलपुर की सेना का यह आंदोलन शांत हो गया। बाद में 80 जवानों का कोर्ट मार्शल होकर उन्हें पगार और पेंशन से हाथ होना पड़ा। ४१ जवानों को जेल भेजा गया।
लेकिन इसका परिणाम गहरा था, बहुत ज्यादा गहरा। अंग्रेजी हुकूमत ऊपर से नीचे तक हिल गई। नौसेना के आंदोलन से, अंग्रेजी हुकूमत को जबरदस्त धक्का अवश्य लगा था। फिर भी उनको लग रहा था कि, नौसेना में यदि असंतोष बढ़ता भी है, तो भी वह देश की बाहरी सीमा तक ही सीमित रहेगा। लेकिन यदि थल सेना के किसी भी यूनिट में असंतोष पनपता है, तो वह पूरे देश में और देश की सेना में फैलेगा। आज नहीं तो कल हमें वापस इंग्लैंड जाना ही है। किंतु यदि इस प्रकार से सेना में असंतोष पनपेगा, तो हमें बेईज्जत होकर लौटना पड़ेगा और शायद अनेक अंग्रेज अफसरों / जवानों का जीवित वापस लौटना भी संभव न हो !
इसलिये उस समय के अखंड भारत के आर्मी चीफ जनरल सर क्लॉडे आचिनलेक ने लंदन में अनेक गोपनीय केबल (टेलिग्राम) भेजे। 5 सितंबर 1946 को उन्होंने स्पष्ट रूप से ब्रिटिश प्रशासन से और प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली से यह आग्रह किया कि जितनी जल्दी हो सके भारत का सत्तातंरण (Transfer of Power) कर दें !
जनरल वी के सिंग ने भारत की स्वतंत्रता में सैन्य शक्ति का योगदान इस विषय पर एक विस्तृत पुस्तक लिखी है, “Contribution of the Armed Forces to the Freedom Movement of India.” इस पुस्तक में उन्होंने जबलपुर में सिग्नल्स के जवानों ने किये हुए आंदोलन के महत्व को अधोरेखित किया है।
विंग कमांडर (रिटायर्ड) प्रफुल बक्शी ने भी जबलपुर के इस आंदोलन के बारे में विस्तृत लिखा है। वे लिखते हैं, “There is little information about the mutiny in the Army’s Signals Training Centre in Jabalpur, in February 1946. A series of mutinies took place and the British thought it’s time to leave. They, in fact, brought Independence forward and left the country in a hurry.”
Sunday Guardian के १८ अक्तूबर २०१५ के अंक में छपे लेख में नवतन कुमार लिखते हैं, “The Jabalpur mutiny, taking place soon after the Naval mutiny, became a matter of grave concern for the British. It is believed that around 40-50 soldiers were court-martialled and dismissed without pay and pension. Many others were sent to prison. The British hushed up the incident and destroyed most records.
जबलपुर का यह आंदोलन, जिसने तत्कालीन आर्मी चीफ आचिनलेक को भी, सोचने में विवश कर दिया, इतिहास में लुप्त क्यों है, इसका बहुत ज्यादा उल्लेख नहीं मिलता। इसका कारण है, अंग्रेज इस आंदोलन के समाचार को दबाना चाहते थे। इसलिये सॉमरसेट लाइफ इंफेंट्री के अंग्रेज अफसरों ने, इस आंदोलन को शांत करने के बाद पहला काम किया, तो इस आंदोलन से संबंधित सभी कागज / दस्तावेज नष्ट कर दिये। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि जबलपुर का यह समाचार, सेना की अन्य यूनिट्स में पँहुचे और वहां असंतोष निर्मित हो।
स्वाभिमानी और स्वतंत्र रहे गोंडवाना की राजधानी जबलपुर (पुराना नाम गढ – मंडला) ने अंग्रेजों को तय समय से पहले भागने के लिये विवश करने में अपनी भूमिका निभाई थी, जो अभी तक इतिहास के पन्नों में कहीं गुम सी हो गयी थी..!
(क्रमशः)
1 thought on “जबलपुर में सेना के आंदोलन ने अंग्रेजों का मनोबल तोड़ दिया था”