अंग्रेज सेना को धूल चटाने वाला लोहागढ़ दुर्ग
गुलाब बत्रा
अंग्रेज सेना को धूल चटाने वाला लोहागढ़ दुर्ग
अंग्रेजों के औपनिवेशिक साम्राज्य में, जहां कभी सूर्य अस्त नहीं होने की दुहाई दी जाती थी, ऐसी महापराक्रमी शक्ति को भरतपुर की मिट्टी ने धूल चटाकर विश्वविख्यात ‘अजेय लोहागढ़’ का गौरव प्राप्त किया।
भारतीय संस्कृति में प्राण–प्रण से शरणागत की रक्षा के वैशिष्ट्य की अनुपालना में भरतपुर के संस्थापक महाराजा सूरजमल ने जो अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया, उनके वंशज रणजीत सिंह ने अपने युद्ध कौशल से उसे जीवंत किया।
शरणदाता महाराजा सूरजमल
औरंगजेब की 1707 में मृत्यु एवं विदेशी आक्रान्ता नादिरशाह–अहमदशाह अब्दाली के हमलों से मुगल सल्तनत की कमर टूट गई थी। उधर महाराष्ट्र के पेशवा राजस्व वसूली का अधिकार जताने लगे। दिल्ली–आगरा के मध्य बृज प्रदेश में एक नई शक्ति का उद्भव हुआ, जिसने महाराजा सूरजमल की अगुवाई में नया इतिहास लिखा। एकाधिक बार दिल्ली का भाग्य सूरजमल की मुट्ठी में रहा। पानीपत में 1761 के आरम्भ में सूरजमल की युद्ध रणनीति को अनदेखा करने वाले मराठा सदाशिव भाऊ को अंतिम निर्णायक युद्ध में शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। इसके बावजूद पराजित मराठा सेना को भरतपुर में शरण मिली और अब्दाली के संभावित आक्रमण को महाराजा सूरजमल ने कूटनीतिक पत्र से विफल करने में सफलता प्राप्त की।
अंग्रेजों ने की संधि
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की पृष्ठभूमि में ईस्ट इंडिया कंपनी ने सेनापति लॉर्ड लेक के नेतृत्व में वर्ष 1803 में आगरा पर अधिकार कर लिया था। देशी राजा–महाराजाओं को अंग्रेजों का मित्र बनाने की रणनीति के अंतर्गत लॉर्ड लेक ने लगे हाथ पड़ोसी रियासत भरतपुर के महाराजा रणजीत सिंह (1775-1805) से संधि करना उचित समझा।
मराठा सरदार को दी शरण
मराठा सरदार जसवंत राव होल्कर ऐसी संधि के जाल से बाहर था। उसने लगभग बीस हजार सैनिकों तथा 130 तोपों के बल पर दिल्ली जीतनी चाही, लेकिन लॉर्ड लेक की सेना से पराजित होकर डीग–भरतपुर की ओर रूख कर लिया। याचक शरणागत की रक्षा से जुड़ी संस्कृति का निर्वाह करने के लिए जसवंत राव होल्कर को डीग किले में शरण दी गई, लेकिन लॉर्ड लेक की सेना ने उसे 25 दिसम्बर, 1804 को वहां से खदेड़ दिया। ऐेसी परिस्थिति में महाराजा रणजीत सिंह ने होल्कर को भरतपुर के मैदानी दुर्ग में शरण दी। होल्कर का लगातार पीछा कर रही लॉर्ड लेक की सेना ने डीग से कूच कर जनवरी 1805 के प्रथम सप्ताह में भरतपुर किले को घेरने की रणनीति अपनाई जो उसके माथे का कलंक सिद्ध हुई।
अजेय भरतपुर दुर्ग
लगभग अठारहवीं शताब्दी के मध्य में बने भरतपुर के अभेद्य दुर्ग को जीतने का श्रेय किसी को नहीं मिला। अनोखी समझ बूझ से निर्मित मिट्टी के इस सुदृढ़ दुर्ग के चारों ओर करधनी के समान कमर से लिपटने वाली सुजान गंगा नहर ने सुरक्षा कवच के रूप में उसका मान बढ़ाया।
दुर्ग एवं भरतपुर की अतिरिक्त सुरक्षा के उद्देश्य से बाहरी क्षेत्र में मिट्टी से परकोटे के रूप में मोटी दीवार बनाई गई, जिसे लोकभाषा में ‘डंडा’ नाम मिला। इस परकोटे में प्रवेश के लिए ऐसे दस द्वार बनाए गए थे, जो बाहर से किसी को दिखाई नहीं देते थे। परकोटे के सहारे खाई बनाई गई जिसमें पानी भरा जाता था। यह दीवार उस जमाने के रक्षा प्रबंधन का अद्भुत उदाहरण थी। लोहागढ़ विकास परिषद् द्वारा भरतपुर के स्थापना दिवस (19 फरवरी) पर 2015 में प्रकाशित स्मारिका में प्रकाशित आलेख में मूर्धन्य पत्रकार आदित्येन्द्र चतुर्वेदी ने लिखा था– ‘यह अद्भुत कौशल था, एक ही दीवार से दो विपरीत भौगोलिक लाभ– दूर से लड़ो तो हारो, निकट से लड़ो तो भी हारो। आत्मरक्षा और प्रहार दोनों का ही अस्त्र यह दीवार थी। उस कालखण्ड का अध्ययन करने वाले इतिहासज्ञ और युद्ध कौशल मर्मज्ञ इस दीवार निर्माण में निहित बुद्धि बल से चकित थे। इसी दीवार पर जगह–जगह रखी हुई भरतपुर की बजरंगी तोपें नीचे उतरकर निकट आने वाले शत्रु के परखच्चे उड़ा देती थीं।
अंग्रेजों का हमला हुआ विफल
भरतपुर के पश्चिम की ओर डेरा डाले अंग्रेज सेना ने पूरी तैयारी करके 7 जनवरी, 1805 को पहला हमला बोला। जाट इतिहास के लेखक ठाकुर देशराज तथा रामवीर सिंह वर्मा की पुस्तक ‘लोहागढ़ की यशोगाथा’ में इस युद्ध का रोमांचक वर्णन किया गया है। दो दिन की गोलाबारी से दीवार में हुए सुराख से अंग्रेज सेना ने तीन हिस्सों में विभक्त होकर हमला बोला। बाईं ओर लेफ्टिनेंट रिपन, दक्षिण से सेनापति मिस्टर हाकस तथा मध्य से लेफ्टिनेंट मेटलेण्ड ने तोपों से हमला बोला। भरतपुर के योद्धाओं ने अंग्रेजों के इस हमले को विफल कर दिया।
अंग्रेजों ने दुबारा किया आक्रमण
हताशा से उबरी अंग्रेज सेना ने तैयारी करके 16 जनवरी को दूसरा आक्रमण किया और भारी भरकम तोपों का सहारा लिया। उधर दीवार के टूटे हिस्सों की मरम्मत कर ली गई। गोलों के धमाकों से दीवार का एक हिस्सा टूटने के बावजूद गोलों की बौछार के दौरान ही लकड़ी एवं पत्थरों से सुराख को पाट दिया गया। चार दिन तक दीवार तोड़ने और उसकी मरम्मत की कशमकश जारी रही।
गोलों की लगातार मार से दीवार में बड़ा छिद्र हो गया। तब भरतपुर की सेना ने मोती झील से दीवार के सहारे खाई को पानी से लबालब भर दिया। महाराजा रणजीत सिंह के बुलावे पर पिण्डारी अमीर खां भी सहायता के लिए आ पहुंचा। इस बीच अंग्रेजों ने चाल चली। उन्होंने अपने तीन देशी सैनिक किले की ओर दौड़ाए, जिन्होंने फिरंगियों से बचाने की प्रार्थना की। उदार जाट सेना ने इन देशी सैनिकों को शरण दी। लेकिन ये छलिए सैनिक दीवार तथा भीतरी हालात की टोह लेकर वापस लौट गए।
भेदी सिपाहियों की सहायता से कप्तान लिण्डसे ने 21 जनवरी को खाई पार करने के लिए पुल और सीढ़ियां बनाईं जो अधूरी रहीं। तैर कर खाई पार करने वाले डेढ़ हजार से अधिक अंग्रेज सैनिकों को रणजीत सिंह के बहादुरों ने गोली का निशाना बनाया।
उधर अमीर खां ने मथुरा से आने वाली रसद को लूट लिया।लेकिन 28 जनवरी को आने वाली रसद अंग्रेजों की सावधानी से बच गई। दक्षिण दिशा से खाई पार करने के लिए 40 फीट लम्बे और 16 फीट चौड़े बेड़े बनाने तथा सुरंग बनाने के प्रयास को विफल कर दिया गया।
तीसरे आक्रमण में भी विफल रहे अंग्रेज
सेनाध्यक्ष मि.डेन की अगुवाई में 20 फरवरी को फिर हमला बोला गया। तोपों की धुंआधार मार से दीवार का कुछ हिस्सा टूट गया। 14 अंग्रेज सैनिकों ने दीवार पर चढ़ने का प्रयास किया, लेकिन महाराजा के सैनिकों ने उनकी दुर्गति करने के साथ टूटे हुए स्थान पर रखी गई बारूद को आग लगा दी।
चौथी बार अंग्रेजी आक्रमण
लॉर्ड लेक ने 21 फरवरी को चौथा बड़ा आक्रमण किया। अंग्रेज सेना के सिपाही एक दूसरे के कंधे का सहारा लेकर दीवार पर चढ़ने लगे। भरतपुर के सैनिकों ने ऊपर से लकड़ी, ईंट व पत्थर फेंककर उनके प्रयास को निष्फल कर दिया। इसी दौरान ले.टेम्पल्टन ने दीवार के एक बुर्ज पर चढ़कर अंग्रेज सेना के झण्डे को फहराने का प्रयास किया। हमारे वीरों ने उन्हें मारकर नीचे खाई में फेंक दिया। निकट मार से त्रस्त अंग्रेज सेना मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई।
अंग्रेज सेना को हुई भारी हानि
अंग्रेज लेखकों के अनुसार लॉर्ड लेक की सेना के 103 सैन्य अधिकारियों सहित 3200 से अधिक सैनिक मारे गए। घायलों की संख्या इससे कई गुना थी।
फिर हुई संधि
युद्ध के दौरान महाराजा रणजीत सिंह से संधि वार्ता के सुझाव को अनदेखा करने वाले लॉर्ड लेक ने लगातार पराजय से निराश होकर उत्तर–पूर्व में छः मील दूरी पर फौज का डेरा डाला। उधर पिछले पांच–छः वर्षों से युद्धों के चलते महाराजा रणजीत सिंह का खजाना भी खाली हो चला था। दोनों पक्षों की इस पृष्ठभूमि में संधि का मार्ग प्रशस्त हुआ। कम्पनी सरकार ने भी अपनी विजय यात्रा स्थगित करने की मजबूरी भांप ली थी। 10 अप्रैल, 1805 को दोनों पक्षों में संधि पर हस्ताक्षर हुए।
लॉर्ड लेक की हुई किरकिरी
भरतपुर रियासत से संधि के बावजूद लॉर्ड लेक की काफी किरकिरी हुई, जिसके नेतृत्व में अंग्रेज सेना को परास्त होना पड़ा। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली के भाई ड्यूक ऑफ वेलिंग्टन ने लॉर्ड लेक की पराजय पर टिप्पणी की कि उन्हें नगर–वेष्टन (परकोटे) का कुछ ज्ञान न था, इसलिए असफलता हुई।
स्वाधीन भारत में दुर्ग की दुर्दशा
विडम्बना यह है कि जिस परकोटे की विशिष्टता से लॉर्ड लेक को परास्त होना पड़ा, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लोगों ने जन प्रतिनिधियों की शह पर धरोहर को मटियामेट कर दिया। इस धरोहर के कुछ भग्नावशेष अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाने को अभिशप्त हैं, लेकिन इस युद्ध ने भरतपुर दुर्ग को लोहागढ़ नाम से अमर कर दिया।
(लेखक यूनीवार्ता के पूर्व समाचार सम्पादक हैं)