अखिल भारतीय हिजाब आंदोलन का सच
बलबीर पुंज
कर्नाटक पीयूसी कॉलेज से उपजा हिजाब विवाद देश के अन्य प्रदेशों में भी पहुंच गया है। इसमें हिजाब समर्थक ‘मजहबी स्वतंत्रता’, ‘असहिष्णुता’, ‘फासीवाद’, ‘हिंदू-राष्ट्र’ और ‘हिंदुत्व’ आदि शब्दावली युक्त जुमलों के साथ प्रदर्शन कर रहे है। एक सुनियोजित एजेंडे के माध्यम से विश्व में यह स्थापित करने का प्रयास हो रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के सत्ता (केंद्र और कर्नाटक) में आने के बाद से और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव के कारण भारत में ‘लोकतंत्र का गला घोंटा’ जा रहा है, तो ‘पंथनिरपेक्षता-संविधान पर खतरा आ गया है’, ‘असहिष्णुता चरम पर है’ और ‘बहुसंख्यकों में इस्लामोफोबिया बढ़ गया है’। क्या वाकई ऐसा है या मामला कुछ और है?
कर्नाटक के उडुपी स्थित जिस सरकारी कॉलेज से यह पूरा हिजाब विवाद प्रारंभ हुआ, वहां 11वीं-12वीं के छात्रों को ‘प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स’ (पीयूसी) पढ़ाया जाता है। कुछ हिंदी न्यूज़ चैनलों से बात करते हुए इसी कॉलेज के प्रधानाचार्य रुद्र गौड़ा ने बताया कि पिछले 35-37 वर्षों से हिजाब न ही कॉलेज की निर्धारित परिधान-संहिता का अंग है और न ही किसी ने इसकी मांग की। छात्राओं को केवल कॉलेज परिसर तक हिजाब पहनकर आने की अनुमति थी और यह कक्षा के भीतर प्रतिबंधित था। पूरा झगड़ा 27 दिसंबर 2021 के बाद तब शुरू हुआ, जब कुछ छात्राएं अचानक हिजाब पहनकर कक्षा के भीतर आ गईं। इनमें 12 छात्राओं को कॉलेज प्रशासन ने मना लिया, जबकि शेष चार कक्षा में हिजाब पहने रहने पर अड़ी रहीं। बकौल गौड़ा, इन छात्राओं को कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) नामक संगठन का समर्थन प्राप्त है। सीएफआई कट्टरपंथी इस्लामी संगठन ‘पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया’ (पीएफआई) से संबद्ध है, जिस पर हाल के वर्षों में कई सांप्रदायिक हिंसाओं को भड़काने का आरोप लगा है। स्पष्ट है कि हिजाब विवाद किसी बहुत बड़े षड़यंत्र का हिस्सा है।
हिजाब के नाम पर देश का बहुलतावादी वातावरण किसने दूषित किया? क्या इसका उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव से कोई संबंध है? क्या यह सत्तारुढ़ भाजपा के विरुद्ध मुस्लिम समाज को लामबंद करने का षड़यंत्र है? क्या यह सत्य नहीं कि इस मामले से दुनियाभर में भारत की सहिष्णु छवि को फिर से कलंकित करने का प्रपंच बुना जा रहा है? ये सभी प्रश्न इसलिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि कर्नाटक सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में समरूपता को अक्षुण्ण रखने हेतु जो आदेश पारित किया, जिसे हिजाब समर्थकों द्वारा संवैधानिक अधिकारों का हनन बताया जा रहा है- ठीक वैसा ही निर्णय कर्नाटक के पड़ोसी राज्य केरल में गत माह लिया गया था।
केरल की वामपंथी सरकार ने कोझिकोड़ स्थित कुट्टियाडी निवासी और आठवीं कक्षा की मुस्लिम छात्रा रिज़ा नाहन के उस अनुरोध को निरस्त कर दिया था, जिसमें उसने राज्य पुलिस आधारित ‘स्टूडेंट पुलिस कैडेट’ (एसपीसी) की पोशाक-संहिता को इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप नहीं मानते हुए हिजाब और पूरी बांह का परिधान पहनने की स्वीकृति मांगी थी। बकौल केरल सरकार, “…यह मांग विचारणीय नहीं है… यदि एसपीसी में इस तरह की छूट दी गई, तो ऐसी ही मांग अन्य समानबलों में भी उठेगी, जो पंथनिरपेक्षता को प्रभावित करेगी…।” रिज़ा ने याचिका पहले केरल उच्च न्यायालय में दाखिल की थी, जिसे उसने सरकार के पास भेज दिया था। एसपीसी ने भी इसपर अपने विचार रखे थे, जिसके अनुसार, “हमारा उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है, जो कानून का सम्मान और दृढ़ता से उसमें विश्वास करता है… हमें ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना है, जो राष्ट्र को सभी मतभेदों से ऊपर रखे… इसके लिए एसपीसी परियोजना में समान प्रशिक्षण कार्यक्रम और समान वर्दी रखने का निर्णय लिया गया… उसमें किसी भी मजहबी प्रतीक की अनुमति नहीं है।” ऐसे कई उदाहरण हैं।
क्या इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि केरल की वामपंथी सरकार ‘हिंदुत्व’ या ‘हिंदू-राष्ट्र’ का समर्थन कर रही है? केरल के हिजाब प्रकरण पर मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने विरोध तो किया, किंतु कोई सड़क पर नहीं उतरा। क्या केरल सरकार के हिजाब संबंधित प्रतिकूल रुख पर जिहादियों ने इसलिए चुप्पी बरती, क्योंकि प्रदेश में सत्ता वामपंथियों की है, जो वैचारिक रूप से भारत की सनातन संस्कृति-परंपराओं से घृणा करते हैं और वे रिज़ा हिजाब मामले को एक ‘कोलेटरल डैमेज’- अर्थात् किसी बड़े लक्ष्य की पूर्ति हेतु छोटी कुर्बानी के रूप में देख रहे हैं?
केरल में चुप्पी और कर्नाटक में हंगामा स्पष्ट करता है कि हिजाब प्रकरण का उद्देश्य पांच राज्यों में जारी चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के विरुद्ध गोलबंद करना है। अदालत में हिजाब समर्थित याचिकाओं की पैरवी करने वालों में, कर्नाटक उच्च न्यायालय में कुरान की आयतों को आधार बनाकर तर्क रखने वाले अधिवक्ता देवदत्त कामत कांग्रेस के निकटवर्ती हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय से हिजाब प्रकरण का तुरंत संज्ञान लेने की मांग करने वाले कपिल सिब्बल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं। वास्तव में, यह वोटबैंक की खातिर मुस्लिम समाज के रुढ़िवादी-कट्टरपंथी तत्वों की तुष्टिकरण नीति का हिस्सा है, चाहे इसके लिए देश को कोई भी कीमत चुकानी पड़े। 1986 में शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में बहुमत के बल पर पलट दिया था। ऐसा करके कांग्रेस जहां मुस्लिम महिलाओं को शताब्दियों पीछे धकेला था, तो दशकों तक रामजन्मभूमि मामले से हिंदू-मुस्लिम समाज में व्याप्त वैमनस्य को और गहरा करने का काम किया था।
प्रश्न सोशल मीडिया पर वायरल उस वीडियो को लेकर भी उठ रहे है, जिसमें छात्रों की भीड़ ‘जय श्रीराम’, तो बुर्का पहनी एकमात्र छात्रा ‘अल्लाह…हू…अकबर’ का नारा लगा रही है। वीडियो को देखने के बाद दो में एक बात स्थापित सत्य है। पहली- यह वीडियो ‘प्रायोजित’ है, क्योंकि बुर्काधारी छात्रा को कॉलेज परिसर की पार्किंग में स्कूटी खड़ी करने से लेकर मजहबी नारा लगाने तक पेशेवर तरीके से फिल्माया गया है और इस वीडियो को तुरंत लपकने वालों को उनका भाजपा/आरएसएस विरोध एकसूत्र में बांधता है। दूसरी- यदि यह वीडियो सच है, तो छात्रा का विरोध करने वाले छात्र कही भी कोई मर्यादा और सीमा लांघते नहीं दिख रहे है। स्वयं पाकिस्तान में बात उठ रही है कि यदि कोई हिंदू लड़की, इस्लामी भीड़ के सामने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा देती, तो उसका क्या हश्र होता? स्पष्ट है कि उकसावे के बाद भी उन छात्रों ने संयम नहीं खोया।
अदालत में हिजाब समर्थक तर्क दे रहे है कि हिजाब का उल्लेख कुरान की आयतों में है। अब मैं कुरान का आलीम नहीं हूं। यदि इसे एक बार स्वीकार भी कर लिया जाए, तो कुरान की अन्य आयतों, जिसमें ‘महिलाओं’, ‘मोमिन’, ‘शिर्क’, ‘काफिर-कुफ्र’ आदि के संबंध में जो बातें दर्ज है- क्या उनसे हमारे राष्ट्र का मूल पंथनिरपेक्षी, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी चरित्र अक्षुण्ण रहेगा?
अब कुछ लोगों का तर्क है कि स्कूलों में हिजाब की अनुमति देने में क्या समस्या है? क्या इसी आधार पर स्कूल में टोपी, धोती, माता की चुनरी, चिवार (बौद्ध) पहनने या फिर निवस्त्र नहीं आने के लिए मना कर पाएगा? कुछ दिन पहले कर्नाटक के कोलार स्थित एक सरकारी स्कूल में नमाज पढ़ने के मामले में प्रधानाध्यापिका को निलंबित किया जा चुका है। आज स्कूल-कॉलेज में हिजाब को लेकर लोग सड़कों पर है, कल वे शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश, रमजान पर मासिक छुट्टी आदि के लिए प्रदर्शन कर सकते है। क्या इसका कोई अंत है?
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)