अनाज भंडारण की प्राचीन भारतीय पद्धति, लुप्त होते कोठ्यार
सुनील कुमार महला
भारत एक कृषि प्रधान और अनाज के मामले में आत्मनिर्भर देश है। अनाज भंडारण आज भी हमारे देश में एक विकट समस्या है। भंडारण की समुचित व्यवस्था न होने के कारण बहुत सा अनाज खराब हो जाता है। अन्न को भारतीय संस्कृति में ब्रह्म का दर्जा दिया गया है। आइए हम जानते हैं कि प्राचीन समय में हमारे यहाँ के किसान किस प्रकार से बुआई-कटाई से ले कर अनाज के भंडारण तक की समुचित व्यवस्था करते थे, जिसे आज भी अपनाये जाने की आवश्यकता है।
प्राचीन समय में कृषि व पशुपालन के साथ ही हमारे देश की अनाज भंडारण व्यवस्था बहुत ही विकसित और उन्नत थी। सिंधु घाटी सभ्यता में अन्न भंडारण की विकसित प्रणाली के प्रमाण मिलते हैं। 2600 ईसा पूर्व आते आते नगरों की शुरुआत हो गई थी और इसी काल में लोगों ने बड़ी-बड़ी दीवारें और चारदीवारी बनाकर अनाज के भंडारण की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। यहाँ तक कि मिट्टी के बर्तन बनना भी अब तक शुरू हो चुके थे। वास्तव में, हमारी प्राचीन सभ्यता आहड़ में अनाज रखने के बड़े मृदभांड (मिट्टी से बने बरतन) प्राप्त हुए हैं। इन मृदभांडों को ‘गोरे बंकोठ’ कहा जाता था। वैसे कालीबंगा पुरास्थल में ‘जुते हुए खेत’ मिले हैं। समय, काल व परिस्थितियों के साथ साथ हमारे देश की प्राचीन संस्कृति, धार्मिक परम्परा व रीति रिवाजों में आमूल चूल परिवर्तन आए हैं। लेकिन गांवों में आज भी कई रीति रिवाज व परम्पराएं सदियों से चली आ रही हैं। अनाज भंडारण परंपरा भी इनमें से एक है।
अनाज भंडारण के लिए प्राचीन समय में टोकरियों, बोरियों और मृदभांड आदि का उपयोग किया जाता था। कुछ समुदायों के पास एक अलग गोदाम (मिट्टी, गोबर, चिकनी मिट्टी के लेप से बना) होता था, जहाँ वे एक बड़े ढेर में अनाज रखते थे। प्राचीन काल में, और आज भी बहुत से गांवों में बाजरा, गेहूं, मोठ, मूंग व अन्य अनाजों को गोबर, चिकनी मिट्टी व लकड़ियों, घास-फूस से बनी कोठियों, जिन्हें राजस्थान के ग्रामीण इलाकों विशेषकर चूरू, झुंझुनूं, सीकर (शेखावाटी) में ‘कोठी’ या ‘कुठला’ के नाम से जाना जाता है, में वर्षों तक सुरक्षित भंडारण करके रखा जाता था। कोठी के निचले हिस्से में एक छेद रखा जाता था ताकि अनाज को आवश्यकतानुसार उपयोग में लिया जा सके। प्राचीन काल में अनाज में राख मिलाकर कीट-कीटाणुओं से बचाव किया जाता था। राजस्थान के गांवों में आज भी मिट्टी, गोबर के लेप से बनी कोठियां मिल जाएंगी। इन्हें बीच में पेट की तरह मोटा और ऊपर व नीचे से पतला रखा जाता है। इनका आधार जमीन पर टिका रहता है। प्राचीन समय में ‘ओबरी’ या ‘ओबरों’ में भी अनाज रखा जाता था। ओबरी में चार या पांच पाए होते थे। ये पाए अंदर से थोथे (यानी कि खाली) रखे जाते थे और इनमें अनाज भर दिया जाता था। ओबरी में एक किवाड़ भी रखा जाता था। इन ओबरियों, कुठलों में बारिश व आंधी में भी अनाज सुरक्षित रहता था। चूहे व अन्य जीव-जंतु भी अनाज तक नहीं पहुंच पाते थे। स्थानीय भाषा में इन्हें ‘कोठ्यार’ भी कहा जाता था। आज भी गांवों में शादी-ब्याह में मिठाई रखे जाने वाले कमरों, स्थान को भी कोठ्यार कहा जाता है। राजस्थान ही नहीं पहाड़ी क्षेत्रों में भी कुठलों, कोठ्यारों, ओबरों में धान, गेंहू, कोदू, झंगोरा, चौलाई या दालें सुरक्षित रखी जाती थीं। पहाड़ों पर आज भी अनाज को सुरक्षित रखने का यही पारंपरिक तरीका है। पहाड़ी क्षेत्रों व राजस्थानी क्षेत्र के कोठ्यार में फर्क सिर्फ़ इतना होता है कि राजस्थान में ये मुल्तानी मिट्टी, गोबर, घास फूस, हल्की लकड़ी के बने होते हैं, जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में ये देवदार की लकड़ी से बनाए जाते हैं। इन कोठ्यारों की भंडारण क्षमता भी अद्भुत होती है, क्योंकि देखने में ये बहुत छोटे लगते हैं, लेकिन इनमें काफी मात्रा में अनाज का भंडारण किया जा सकता है। इन कोठ्यारों का दरवाजा बहुत ही छोटा होता है और ताला भी होता है। ताला खोलने के लिए एक लंबी छड़नुमा आकर की चाबी होती है। इन कोठ्यारों का ताला खोलना हर किसी की वश की बात नहीं होती है और ताला बड़ी तरकीब के साथ खोलना होता है। कोठ्यार या कोठार अथवा कुठार की विशेष बात यह होती है कि इसके दरवाजे से घर के मुख्य स्थान तक एक सांकल/चेन बंधी रहती है। उसमें बीच-बीच में घंटियां बंधी रहती हैं ताकि यदि कोई चोर चोरी करने की नीयत से कुठार में घुसने का प्रयास भी करे तो घर के लोगों को पता चल जाए। इस प्रकार से सुरक्षा की यह अनोखी तरकीब होती थी। आज कुठार बहुत कम देखने को मिलते हैं। वास्तव में, प्राचीन समय में अनाज, खाद्यान्न आदि के भंडारण का जो तरीका हमारे बुजुर्गों ने आविष्कृत किया था वह अद्भुत था। आज इनका स्थान लोहे व प्लास्टिक के ड्रमों / टंकियों आदि ने ले लिया है। बड़ी मात्रा में अनाज संग्रहित करने के लिए कॉन्क्रीट के गोदाम बन गए हैं।
वैसे यहाँ यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि बिहार की राजधानी पटना में प्रसिद्ध ‘गोलघर’ स्तूप (अनाज भंडारण हेतु) स्थित है जो कि लगभग 125 मीटर व्यास का है, जिसकी ऊंचाई 29 मीटर है। विकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1770 में आई भयंकर सूखे के दौरान लगभग एक करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हुए थे। तब के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग ने गोलघर के निर्माण की योजना बनाई थी। ब्रिटिश इंजीनियर जॉन गार्स्टिन ने अनाज के (ब्रिटिश फौज के लिए) भंडारण के लिए इस गोल ढाँचे का निर्माण 20 जनवरी 1784 को शुरु करवाया था, जो 20 जुलाई 1786 को संपन्न हुआ था। इसमें एक साथ 1 लाख 40 हजार टन अनाज़ रखा जा सकता है। अनाज भंडारण का यह बहुत बड़ा स्तूप अपने आप में अद्भुत व अनोखा है, क्योंकि इसमें कोई स्तंभ नहीं है। इसकी दीवारें आधार में 3.6 मीटर मोटी हैं। गोलघर के शिखर पर लगभग तीन मीटर तक ईंट की जगह पत्थरों का प्रयोग किया गया है। गोलघर के शीर्ष पर दो फीट 7 इंच व्यास का छिद्र अनाज डालने के लिये छोड़ा गया था, जिसे बाद में भर दिया गया। इसमें 145 सीढ़ियां बनी हुई हैं। यह अपने आप में स्थापत्य कला का भी अद्वितीय व अनोखा नमूना है। अंत में, यही कहूंगा कि आज हमारी सनातन संस्कृति-सभ्यता में निहित हमारी परंपराओं, विभिन्न व्यवस्थाओं, पुरातन तकनीकों जिसमें अनाज भंडारण तकनीक/व्यवस्था भी शामिल है, को सहेजकर रखने की आवश्यकता है, क्योंकि ये धीरे धीरे विलुप्ति/समाप्ति की कगार पर पहुंच गई हैं।