दुनिया भर में मुस्लिम हितों की चिंता करने वाले अफगानिस्तान में तालिबानी बर्बरता पर चुप क्यों?
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
पटकथा लिख चुकी है, अभी सरकार नहीं बनी। लेकिन यह तय हो गया है कि प्रारंभ से ही कौन से देश आतंकी तालिबानियों के साथ हैं। इसमें सबसे ज्यादा खतरा यदि किसी देश को है तो वह भारत है और जो देश अफगानिस्तान में बने वर्तमान हालातों में सबसे अधिक लाभ देख रहा है, वह चीन है। हालांकि चीन के साथ ही अभी पाकिस्तान, टर्की और रूस ने अफगानिस्तान में अपने दूतावास बंद नहीं करके यह साफ संकेत दे दिए हैं कि वे नई तालिबानी हुकूमत के साथ जाएंगे।
वस्तुत:, यह सर्वविदित है कि तालिबान की सोच इस्लाम का दुनिया भर में परचम फैलाना है। हर हाल में इस्लाम की सत्ता और हर जगह शरिया कानून लागू करने का सपना तालिबान के हुक्मरानों का है। इसके लिए अपनी शक्ति से भी आगे तक जाने के लिए तालिबानी तैयार रहते हैं। दीन के प्रति समर्पण और मरने के बाद तमाम हूरों का सपना इन पर पूरी तरह से हावी है।
यही कारण है कि जब पिछली बार अफगानिस्तान में सत्ता आई थी, तब उन्होंने शरिया कानूनों के नाम पर कहर ढाया था। इस्लाम की सत्ता का अहंकार इस कदर हावी हुआ कि इन्होंने अमेरिका तक को चुनौती दे डाली और 9/11 की घटना घटी। अमेरिका में 2001 को हुए इस आतंकी हमले में तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हुई और हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक संगठन अल-क़ायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन ने ली थी।
पूरी योजना अफगानिस्तान से संचालित थी। जहां कट्टरपंथी इस्लामिक समूह तालिबान का ही शासन था। तालिबान ने जब ओसामा को अमेरिका के हवाले करने से इनकार किया, तब मजबूरन 11 सितंबर की घटना के एक माह बाद से अमेरिका आतंकवादियों के इन दोनों ही संगठनों को समाप्त करने की मंशा से सीधे सामने आकर लड़ाई लड़ने लगा। उसने अफगानिस्तान में हवाई हमले शुरू किए। असर भी व्यापक दिखा, लेकिन फिर क्या?
20 सालों के लम्बे संघर्ष के बाद हालत फिर वहीं आकर ठहर गए हैं। इसका जो सबसे बड़ा कारण सीधे तौर पर नजर आता है, वह है अफगानिस्तान की अधिकांश जनता का तालिबान के सामने समर्पण कर देना, शरिया कानूनों को अमल में लाने का उनका आग्रह, जिसमें अफगान की सेना का तीन लाख की संख्या में होने के बाद भी 70 हजार तालिबानियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया जाना। ऐसे में विचार करें कि वर्तमान परिस्थितियों में भारत कहां है, उसके अफगानिस्तान से जुड़े हित क्या हैं और वर्तमान हालातों में उनका क्या होगा?
इस संदर्भ में देखा जाए तो अफगानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान की सीधी भागीदारी अब तक रहती आई है। 1999 में आईसी-814 विमान का अपहरण आज भी हर देशभक्त भारतीय को चुभता है। जिसमें जैश-ए -मोहम्मद के प्रमुख मौलाना मसूद अजहर, अहमद ज़रगर और शेख अहमद, उमर सईद को छोड़ने के बदले कंधार विमान अपहरण कांड में यात्रियों को सकुशल भारत को लौटाने की शर्त तालिबान की ओर से रखी गई थी।
दरअसल, तालिबानी सत्ता को लेकर भारत के समक्ष सबसे बड़ा संकट वैचारिकी का भी है। एक तरफ भारत है जो सर्वपंथ सद्भाव एवं धर्म आधारित व्यवस्था को समान रूप से देखता है। जबकि इसके उलट तालिबान है, जिसके लिए इंसानियत से भी ऊपर उसका मजहब है, हदीस की शिक्षाएं हैं और शरीयत कानून है। कुरान के आइने से वह पूरी दुनिया बना देना चाहता है, फिर इसके विरोध में यदि कोई इस्लाम को मानने वाला खड़ा हो जाए या तार्किक रूप से यदि कोई उनसे प्रश्न करेगा तो वह तालिबानियों के हाथों तुरन्त मार दिया जाएगा। ऐसे में उनके लिए अपने मजहब का होना भी मायने नहीं रखता।
इस सब में दुःखद पक्ष यह है कि फ्रांस, भारत या अन्य देश में घटी किसी घटना पर दुनिया भर में शोर मचाने वाली इस्लामिक भीड़ आज अफगानिस्तान के समूचे घटनाक्रम पर मौन नजर आ रही है। भारत में पिछले एक दिन भी तालिबानियों की बर्बरता को लेकर जुलूस नहीं निकाला गया और ना ही किसी अन्य देश से ही ऐसी तस्वीरें सामने आईं हैं। जबकि वास्तविकता यही है कि जिन लोगों पर तालीबान अभी कहर ढा रहा है, वे सभी इस्लाम को ही मानने वाले हैं। हां, किंतु शरिया कानून के पक्ष में पूरी तरह से नहीं हैं।
ये सभी आधुनिक मुसलमान महिलाओं को भी बहुत हद तक सामान्य रूप से स्वतंत्रता देने एवं शिक्षा के समान अधिकार देने की वकालत करते आए हैं। सोचने वाली बात है, क्या अफगानिस्तान और फिलिस्तीन में मरने वाले अलग-अलग तरह के सलीम और अब्दुल है? जो अब तक काबुल बचाओ, अफगानिस्तान बचाओ जैसा कोई हैशटैग नजर नहीं आया?
हाल ही में एक अध्ययन सीधे तौर पर इसी खतरे की ओर इशारा भी करता है। अमेरिकी थिंक टैंक “प्यू रिसर्च सेंटर” की एक स्टडी में यह बात खुलकर सामने आई है. “रिलिजन इन इंडिया: टॉलरेंस एंड सेपरेशन” टाइटल से प्रकाशित रिपोर्ट में इसका खुलासा बहुत स्पष्टता के साथ किया गया है।
रिपोर्ट बताती है कि भारत में 74 प्रतिशत मुस्लिम आबादी इस्लामी अदालतों यानि कि शरीयत के कानून को लागू करने के पक्ष में है। 59 प्रतिशत मुसलमानों ने भी विभिन्न धर्मों के अदालतों का समर्थन किया है, इसका मतलब यह हुआ कि भारत में हर चार मुसलमान में से तीन शरिया अदालत चाहते हैं। यही सोच वास्तव में आज भारत के लिए संकट की घंटी बजा रही है।
वस्तुत: भारत जैसे देश जहां बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय रहता है, जब धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ, तब इस बहुसंख्यक समाज ने यही कहा था कि जो भी मुसलमान विभाजित भारत में रहना चाहता है। वह यहां उतने ही अधिकार के साथ रहे जितना कि एक हिन्दू का यहां अधिकार है, कानून बनाते वक्त, संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय भी बहुसंख्यक हिन्दुओं के तंत्र ने हर उस अल्पसंख्यक का ध्यान रखा, जिनकी संख्या बहुसंख्यक समाज से कम थी।
इतना ही नहीं तो धार्मिक स्थानों पर जहां एक तरफ मंदिरों का सरकारीकरण करते हुए उनके लाभ को सरकार लेने में जरा भी देरी नहीं करती तो दूसरी तरफ उन्हें (अल्पसंख्यक को) हर तरह का शिक्षा संस्थानों के साथ, धार्मिक संस्थानों का लाभ वर्ष 1947 से आज तक दिया जा रहा है।
बहुसंख्यक समाज के टैक्स पर अल्पसंख्यकों के लिए तमाम जनकल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं, किंतु इसके बाद भी देश का बहुसंख्यक समाज यह नहीं कहता कि हमारे लिए भारतीय संविधान में स्वीकृत व्यवस्था से अलग कोई व्यवस्था बनाई जाए। जबकि यह अध्ययन (प्यू) एक चुनौती देता है, खासकर मुसलमानों के संदर्भ में जो भारत में भी 74 प्रतिशत की संख्या में शरिया कानून को अमल में लाने की इच्छा रखते हैं।
अब तय हम सभी को करना है। कहीं इस सहमति से तालिबान सोच तो भारत में नहीं बलवती हो रही? यदि ऐसा है तो अफगानिस्तान का यह घटनाक्रम भारत के लिए एक संकेत है, जिसे हर देशभक्त को आज पंथ और धर्म से ऊपर उठकर समझने की आवश्यकता है।