अमेरिका कितना ‘सेकुलर’ है?

अमेरिका कितना 'सेकुलर' है?

बलबीर पुंज

अमेरिका कितना 'सेकुलर' है?अमेरिका कितना ‘सेकुलर’ है?

दुनिया के देशों को मानवाधिकारों पर उपदेश देने वाला अमेरिका कितना ‘सेकुलर’ है, यह उसके हालिया घटनाक्रम ने पुन: स्पष्ट कर दिया। 24 जून (शुक्रवार) को अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में सुनवाई करते हुए गर्भपात संबंधित 50 वर्ष पुराना निर्णय पलट दिया। इसमें चर्च की भूमिका स्पष्ट रूप से उभरी है। जैसे ही अमेरिका में गर्भपात पर प्रतिबंध लगा, वहां कैथोलिक बिशपों और इंजीलवादियों ने इसका स्वागत किया। वे इसे लेकर दशकों से आंदोलित थे। अब जिस देश के सामाजिक सरोकारों में मजहबी अवधारणा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हो, क्या वह दूसरों को ‘सेकुलर’ होने या न होने का प्रमाणपत्र दे सकता है?

ईसाई बहुल अमेरिका स्वयं को चर्च के हस्तक्षेप से मुक्त ‘राज्य’ होने का दावा करता है, किंतु उसके सत्ता-अधिष्ठान और चर्च के बीच सामांजस्य अब भी न केवल व्याप्त है, अपितु प्रगाढ़ भी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि वर्ष 1789 से एक-दो अपवादों को छोड़कर सभी राष्ट्रपतियों (वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन सहित) ने ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबल पर हाथ रखकर शपथ ली है। यही नहीं, हाल ही अमेरिकी शीर्ष अदालत ने एक मामले में अपना रुख फिर से स्पष्ट करते हुए कहा था कि चर्च प्रेरित संस्थानों में छात्रों के लिए सार्वजनिक धन का उपयोग किया जा सकता है। क्या यह सब किसी सेकुलर-व्यवस्था में स्वीकार्य हो सकता है?

यूं तो अमेरिका में गर्भपात को उचित ठहराने वाला कोई कानून नहीं है, किंतु इस देश के शीर्ष अदालत द्वारा वर्ष 1973 में दिए गए एक फैसले के अंतर्गत इसे परोक्ष रूप से वैध ठहरा दिया था। तत्कालीन घटनाक्रम ‘रो बनाम वेड’ मामले से जुड़ा है, जिसमें नोर्मा मैककॉर्वी, जो दुनिया में ‘जेन रो’ नाम से अधिक विख्यात हैं- उन्होंने वर्ष 1969 में टेक्सास के उस कानून को चुनौती दी, जिसके अंतर्गत गर्भपात अवैध था। तब इस कानून को ऊर्जा चर्च प्रेरित दर्शन से मिल रही थी। जब जेन रो इसके खिलाफ सर्वोच्च अदालत पहुंचीं, तब उन्हें सफलता प्राप्त हुई। अब पांच दशक बाद जिन न्यायाधीशों ने इस निर्णय को पलटकर बहुमत (6-3) के फैसले पर हस्ताक्षर किए, उनमें एमी कोनी बैरेट भी शामिल हैं, जिन्होंने वर्ष 2015 में ‘जीवन की पवित्रता’ के लिए चर्च की शिक्षाओं का समर्थन करने वाले और कैथोलिक बिशपों द्वारा लिखित पत्र पर हस्ताक्षर किए थे।

विडंबना देखिए कि भारत के कई स्वयंभू उदारवादी, बुद्धिजीवी और स्वघोषित ‘संविधान-रक्षक’ अमेरिका, ब्रिटेन या कई यूरोपीय देशों के ‘सेकुलरवाद’ को आदर्श और अनुकरणीय मानते है। किंतु हिंदू बहुल और ‘सेकुलर’ भारत में इसी प्रकार के निर्णय या सरकारी फैसले लिए जाने पर उसी जमात को देश का ‘सेकुलरवाद’ खतरे में आता दिख जाता है। जब कर्नाटक और गुजरात सरकार द्वारा स्कूलों में श्रीमद्भागवत गीता पढ़ाए जाने की चर्चा शुरू हुई, तब इसका विरोध करने वालों में यही ‘सेकुलर कुनबा’ अग्रणी भूमिका निभा रहा था। ऐसा ही परिदृश्य अक्टूबर 2019 में तब भी देखने को मिला था, जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने फ्रांस में राफेल लड़ाकू विमान की शस्त्र-पूजा करते हुए उस पर ॐ लिखा था। इसी वर्ग का आक्रोश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अयोध्या स्थित राम मंदिर के पुनर्निर्माण और दिल्ली में नए संसद भवन के भूमि पूजनों के दौरान भी नजर आया था।

‘सेकुलर’ संबंधित विकृति केवल अमेरिका तक सीमित नहीं। ब्रिटेन- दुनिया के उन 16 देशों में से एक है, जिनका राजकीय मजहब या तो ईसाई है या फिर चर्च प्रेरित। वहां चर्च कितना प्रभावशाली है, यह इस बात से स्पष्ट है कि ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’, जिसके संरक्षण हेतु ब्रितानी राजघराना प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है- उसके कुल 42 बिशप-आर्कबिशप में से 26 के लिए ब्रितानी संसद के उच्च सदन- ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ में स्थान आरक्षित हैं। शासकीय वरिष्ठता की सूची में कैंटरबरी के आर्कबिशप निर्वाचित ब्रितानी प्रधानमंत्री से पहले आते हैं। चर्च द्वारा संचालित हजारों स्कूलों में पढ़ने वाले लाखों बच्चों की शिक्षा का खर्च ब्रितानी सरकार उठाती है। इन विद्यालयों का पाठ्यक्रम भी स्वाभाविक रूप से चर्च ही तैयार करता है। ऐसी सुविधा अन्य किसी मजहब को प्राप्त नहीं है।

भले ही अमेरिका और ब्रिटेन के सत्ता-अधिष्ठान पर चर्च का प्रभाव हो, किंतु उसके नागरिकों का विश्वास चर्च से लगातार उठ रहा है। वर्ष 2019 में अमेरिका के 65 प्रतिशत नागरिकों ने स्वयं को ईसाई बताया था, जो कि बीते एक दशक की तुलना में 12 प्रतिशत कम है। प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक ईसाई समाज- दोनों ही इस स्थिति से गुजर रहे हैं। वहीं ब्रिटेन में ईसाइयत को मानने वाले 3.3 करोड़ लोगों में से नियमित रूप से चर्च में प्रार्थना करने वालों की संख्या घटकर 10 लाख रह गई है। ऐसा कई ईसाई बहुल देशों का हाल है।

इस ‘त्रासदी’ का एक बहुत बड़ा कारण चर्च के भीतर महिला-बच्चों के यौन-उत्पीड़न के हजारों-लाखों मामलों में छिपा है। गत वर्ष अक्टूबर में फ्रांस स्थित चर्चों में दो तिहाई फ्रांसीसी पादरियों द्वारा 3,30,000 बच्चों के यौन शोषण का खुलासा हुआ था, जिस पर पोप फ्रांसिस ने दुख व्यक्त करते हुए इसे “शर्म की बात” कहा था। चर्च का दागदार इतिहास केवल एक भंडाफोड़ तक भी सीमित नहीं। सदियों पहले हुए मजहबी क्रूसेड युद्ध से लेकर गोवा, स्पेन, पुर्तगाल, मैक्सिको और पेरू में ‘इंक्विजीशन’ करने, असंख्य महिलाओं को ‘विच’ (चुड़ैल) बताकर जीवित जलाने और यहूदियों आदि गैर-ईसाइयों की हत्याओं आदि का भी चर्च अपराधी है।

अक्सर, कई देशों की हिंसक घटनाओं को लेकर उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने वाले अमेरिका का स्वयं का रिकॉर्ड कैसा है, यह इस बात से स्पष्ट है कि बंदूक हिंसा के लिए कुख्यात इसी देश में 2022 में अब तक 18 हजार लोगों की मौत हो चुकी है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं। अमेरिका में श्वेत पुलिसकर्मियों को निरपराध अश्वेतों को निर्ममता के साथ मौत के घाट उतारने की प्रेरणा ‘व्हाइट मैन्स बर्डन’ मानसिकता से मिलती है। वर्ष 1555 से लेकर 1865 तक, अधिकांश अफ्रीकियों को गुलामी के लिए जबरन अमेरिका में लाया गया था, जहां उनसे पशु तुल्य व्यवहार किया गया। अमेरिका में दासता के पैरोकार अपने अमानवीय कृत्यों के समर्थन में प्राय: बाइबल को उद्धृत करते थे। इसमें ऐसे कई संदर्भ हैं, जो दासता का समर्थन और दास-स्वामी के बीच के संबंधों को परिभाषित करते हैं।

इसी प्रकार अमेरिका में चर्च का महिलाओं के प्रति उदासीन दृष्टिकोण के पीछे ईसाई मत, दर्शन और संबंधित वांग्मय है। इसी चिंतन के कारण दुनिया के कई ईसाई बहुल देशों, जिनमें फ्रांस, ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड आदि शामिल हैं- वहां संविधान लिखे जाने के कई दशकों बाद महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हुआ था। बात यदि अमेरिका की करें, तो यहां महिलाओं को संविधान लिखे (1787) जाने के 133 वर्ष बाद 1920 में वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ था। इस पृष्ठभूमि में अमेरिकी अदालत द्वारा गर्भपात पर पुन: प्रतिबंध लगाने का चर्च, बिशपों और रूढ़िवादी ईसाई समाज द्वारा स्वागत करना स्थापित करता है कि भले ही अमेरिका स्वयं के ‘सेकुलर’ होने का नगाड़े बजाए, परंतु सच तो यही है कि वहां का सत्ता-अधिष्ठान (अदालतें सहित) और समाज का एक वर्ग चर्च से प्रेरणा पाता है। ऐसे में भारत सहित किसी भी लोकतांत्रिक देश को भविष्य में ‘सेकुलर’ या ‘मानवाधिकार’ संबंधित ‘प्रमाणपत्र’ देने से पहले अमेरिका को खुद के गिरेबां में झांक लेना चाहिए।

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