अरब साहित्य में वेदों की स्तुति
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-15)
अरब साहित्य में वेदों की स्तुति
गुंजन अग्रवाल
उसी प्राचीन अरबी काव्य-संग्रह ‘शायर-उल्-ओकुल’ में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कविता है। इस कविता का रचयिता ‘लबी-बिन-ए-अख़्तर-बिन-ए-तुर्फ़ा’ है। यह मुहम्मद साहब से लगभग 2300 वर्ष पूर्व (18वीं शती ई.पू.) हुआ था। इतने लम्बे समय पूर्व भी लबी ने वेदों की अनूठी काव्यमय प्रशंसा की है तथा प्रत्येक वेद का अलग-अलग नामोच्चार किया है—
अया मुबारेक़ल अरज़ युशैये नोहा मीनार हिंद-ए। वा अरादकल्लाह मज़्योनेफ़ेल ज़िकरतुन ॥1॥
वहलतज़ल्लीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन ज़िकरा। वहाज़ेही योनज़्ज़ेलुर्रसूल बिनल हिंदतुन ॥2॥
यकूलूनल्लहः या अहलल अरज़ आलमीन फुल्लहुम। फ़त्तेवेऊ ज़िकरतुल वेद हुक्कुन मानम योनज़्वेलतुन॥3॥
वहोवा आलमुस्साम वल यजुरम्निल्लाहे तनजीलन। फ़ए नोमा या अरवीयो मुत्तवेअन मेवसीरीयोनज़ातुन॥4॥
ज़इसनैन ह%Eमारिक अतर नासेहीन का-अ-ख़ुबातुन। व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन ॥5॥ (1)
अर्थात् ‘हे हिंद (भारत) की पुण्यभूमि! तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझे चुना॥1॥ वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश जो चार प्रकाश-स्तम्भों (चार वेद) सदृश सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है। यह भारतवर्ष में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुए॥2॥ और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान हैं, इनके अनुसार आचरण करो॥3॥ वे ज्ञान के भण्डार ‘साम’ और ‘यजुर्’ हैं, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए हे मेरे भाइयो! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं॥4॥ और इनमें से ‘ऋक्’ और ‘अथर्व हैं, जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते हैं, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अंधकार को प्राप्त नहीं होता॥5॥’
एक अति प्राचीन (1800 ई.पू.) अरबी-कवि द्वारा रचित वेदों के नामोल्लेखवाली कविता, क्या वेदों की प्राचीनता, उनकी श्रेष्ठता व हिंदुओं के अन्तरराष्ट्रीय प्रसार को सिद्ध नहीं करती? क्या यह कविता उन तथाकथित इतिहासकारों को तमाचा नहीं लगाती, जो वेदों को 1500-1200 ई.पू. के अत्यन्त संकुचित दायरे में ठूँसते रहे हैं? इस विषय पर निष्पक्षतापूर्वक शोधाध्ययन की आवश्यकता है।
इस कविता के सन्दर्भ में एक और तथ्य महत्त्वपूर्ण है। इस कविता के रचयिता ‘लबी-बिन-ए-अख़्तर-बिन-ए-तुर्फ़ा’ का नाम किसी व्यक्ति का अपनी तीसरी पीढ़ी तक परिचय देने की संस्कृत-पद्धति का स्मरण कराता है। भारतीय विवाहों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण धार्मिक कर्मकाण्डों में पूजा करनेवाले व्यक्ति का नामोल्लेख अमुक का पुत्र व अमुक का पौत्र कहकर ही किया जाता है। अभिलेखों में राजाओं के परिचय में उनकी तीन पीढ़ियों के नाम देने की प्रथा बारहवीं शती तक प्रचलित रही है। भारतीय संस्कृति में पले होने के कारण अरबों ने भी किसी व्यक्ति को उनके पिता व पितामह के सन्दर्भ में कहने की पद्धति को अपना लिया। ‘बिन’, ‘का बेटा’ का द्योतक है। इस प्रकार लबी ‘अख़्तर’ का पुत्र था और अख़्तर ‘तुर्फ़ा’ का।
ये तो उदाहरणमात्र हैं। इस प्रकार की 64 कविताएँ अब तक प्राप्त हुई हैं जिनमें ऐसी ही चमत्कारी बातों का वर्णन है। इन कविताओं से यह पूर्णतया सिद्ध हो जाता है कि प्रागैस्लामी अरबवासी हिंदू-धर्म को माननेवाले तथा आर्य-सभ्यता के पक्के अनुयायी थे।
उक्त तथ्य के आलोक में यह धारणा भी निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि अरब लोग अपरिचितों की भाँति यदा-कदा भारत आते रहे, यहाँ की पुस्तकों का अनुवाद करते रहे और यहाँ की कला एवं विज्ञान के कुछ रूपों को अनायास ही धारण करके उन्हें अपने देशों में प्रचलित करते रहे। बहुविध ज्ञान यदा-कदा यात्रा करनेवालों को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता। पाण्डित्य के लिए गम्भीर अध्ययन, निष्ठापूर्वक प्रयत्नों तथा ध्यानपूर्वक बनाई गई योजना की आवश्यकता होती है। (2)
इस्लामी तवारीख़ों और कतिपय विश्वकोशों के अनुसार मक्का क्षेत्र में 360 देवी-देवताओं की पूजा होती थी। इनमें बृहस्पति, मंगल, सोम, शुक्र शनि आदि नवग्रहों, अश्विनीकुमार, गरुड़, नृसिंह, गणपति, दुर्गा, दशहरा, सरस्वती, अल्लः, बुद्ध, बलि आदि प्रमुख थे। ये निःसन्देह मक्केश्वर तीर्थ के निर्माता भगवान् ब्रह्मा के 360-दिवसीय एक वर्ष का प्रतिनिधित्व करते थे। पुस्तक ‘शायर-उल्-ओकुल’ स्पष्ट रूप से वर्णन करती है कि इन मन्दिरों के बीच में एक विशाल अर्द्धवृत्ताकार काला पत्थर स्थापित है (था), जिसे ‘मक्केश्वर महादेव’ कहा जाता है (था)। उसकी पूजा ‘आब-ए-ज़मज़म’ तथा खजूर के पत्तों से की जाती है (थी)। पुजारी लोग अरब के प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली ‘कुरैश’ जाति के थे। यह कुरैश जाति निश्चय ही भारतीय ‘कुरु’ वंश है। महाभारत-युद्ध के बाद कौरवपक्षीय कुरुओं को भारतीय सीमा छोड़नी पड़ी थी। देश से निकाले गए यही कुरुवंशी पूरी दुनिया में फैले हैं।(3) इन्हीं कुरुओं की एक शाखा अर्वस्थान में बसकर ‘कुरैशी’ कहलायी। मुहम्मद साहब भी ‘कुरैश’ जाति की एक सम्मानित शाखा ‘हाशिम’ (Hashemites) के आदि-पुरुष हाशिम (Hashim) के प्रपौत्र थे— हाशिम > अब्दुल मुत्तलिब (‘Abdul Muttalib) > अब्दुल्ला (‘Abdulla) > मुहम्मद। उनके पिता अब्दुल्ला उनके जन्म से पूर्व ही गुजर चुके थे। जब मुहम्मद साहब छह वर्ष के हुए, तब उनकी माता भी गुजर गयीं। तब उनके ताऊ अबू तालिब (Abu Talib) ने उन्हें गोद ले लिया, जो काबा-मन्दिर में एक स्थायी पुजारी थे। मुहम्मद साहब निरक्षर थे और ऊँट चराया करते थे। इसलिए धर्मस्थान पर जमा चढ़ावे में उनको हिस्सा नहीं दिया गया। इससे मुहम्मद साहब उत्तेजित हुए और उन्होंने घोषणा की कि वह ‘बुतशिक़न’ (मूर्तिभंजक) होंगे।(4)
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)
संदर्भ सामग्री
1. Kurush I (Cyrus I)640-600 BC
2. Kambujiya I (Cambyses I)600-559 BC
3. Kurush (Cyrus) II the Great
(Shahanshah Persia 550-529 BC)559-529 BC
4. Kambujiya II (Cambyses II)529-522 BC
4. ‘…But as he was an illiterate camel driver he was not given his share in the big offerings gathered in the shrine. This obviously infuriated him and he declared that from this moment he would become a ‘But-Shikan’ (Idol-Breaker).’ —Influence of Hindu Culture on Various Religion, pp.7-8