बंद होना चाहिये आपराधिक मामलों में मीडिया ट्रायल एवं राजनीतिक हस्तक्षेप
डाॅ. प्रहलाद कुमार गुप्ता
न्याय का सर्वमान्य सिद्धांत है, चाहे 100 अपराधी सजा से बच जाएं किन्तु किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिये। किन्तु यह भी कि गम्भीर अपराधों में दोषी को शीघ्रातिशीघ्र ऐसी कड़ी से कड़ी सजा होनी चाहिये कि दूसरे लोगों को उससे सीख मिले और वे अपराध करने से डरें।
कतिपय मामलोें में पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने के नाम पर अथवा आरोपी को निर्दोष सिद्व करने के नाम पर अनेक व्यक्ति, संस्थाएं, राजनीतिक दलों के नेता–कार्यकर्ता एवं मीडियाकर्मी घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं। ये लोग पीड़ित व्यक्ति एवं उसके परिवार व सगे–संबंधियों, गवाहों से बार–बार पूछताछ करते हैं और अपने–अपने निष्कर्ष निकाल कर वक्तव्य जारी करते हैं। मीडियाकर्मी भी न्याय व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेते हैं और अपना निर्णय भी घोषित कर देते हैं कि कौन दोषी है और कौन नहीं। कई लोग तो पक्षकारों को यह भी सिखाते हैं कि उन्हें अपने बयानों में क्या कहना है, क्या छिपाना है और क्या बताना है। इस प्रकार किये जाने वाले गैर–न्यायिक मीडिया ट्रायल से घटना के प्रमाण और साक्षियों के बयान प्रभावित होते हैं। ये लोग पुलिस, सरकार और सत्ताधारी नेताओं के पक्ष अथवा विपक्ष में बयान जारी कर पुलिसकर्मियों और सरकार के विरोध में ऐसा वातावरण पैदा कर देते हैं जिसके कारण पुलिसकर्मी अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाते हैं जिससे न्याय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
देश में अनेकों गम्भीर आपराधिक घटनाएं होती हैं किन्तु ये लोग केवल वहां जाते हैं जहां इनको अपने हित दिखाई देते हैं। ऐसे मामलों में अपराधी व पीड़ित व्यक्ति की जाति, धर्म, राजनीतिक स्थिति, प्रभाव आदि के साथ यह भी देखा जाता है कि केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार पर इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है। कश्मीर के कठुआ में बलात्कार का मामला, मुंबई में सुशांत राजपूत का मामला, राजस्थान के अलवर में जनजाति समाज की युवती के साथ दुष्कर्म व करौली के बूकना गांव में पुजारी की हत्या का मामला, दिल्ली में मुस्लिम युवती से प्रेम करने वाले राहुल की मुस्लिमों द्वारा पीट–पीट कर हत्या करने का मामला इन सबमें यही देखने को मिला है। किस मामले को हवा देनी है और किसमें चुप रहना है, यह निर्णय जनहित को देख कर नहीं अपितु अपने निहित स्वार्थों को देख कर लिया जाता है।
अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में दो घटनाएं एक जैसी घटी हैं। एक हाथरस के भूलगढ़ी गांव में और दूसरी बलरामपुर में।प्रदेश मेॉ भाजपा की सरकार है, दोनों जगहों पर सामूहिक दुष्कर्म के बाद पीड़िता की हत्या के आरोप हैं, दोनों ही जगहों पर पीड़िता का दाह संस्कार रात को किये जाने के समाचार हैं। किन्तु हाथरस में न्याय की दुहाई देने वाले बलरामपुर में न्याय का साथ देने नहीं पहुंच पाए। ऐसा क्यों? इसका उत्तर है कि बलरामपुर में इनके कोई स्वार्थ नहीं थे, वहां पीड़िता हिन्दू धर्म की तथा आरोपी मुस्लिम हैं। भूलगढ़ी गांव में पीड़िता व आरोपी दोनों हिन्दू हैं।
उत्तरप्रदेश में हाथरस के गांव भूलगढ़ी की घटना के उदाहरण से इसे भली प्रकार समझा जा सकता है जिसमें चार युवकों पर एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म व हत्या के आरोप लगे हैं। इसमें अनेकों मीडियाकर्मियों, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं अन्य पार्टियों के नेता, भीमआर्मी जैसे संगठनों के नेता भी अपने सैंकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ पहुंचे। पुलिसकर्मियों व जिला मजिस्ट्रेट द्वारा रोके जाने के बावजूद ये नेता युवती के परिवारजनों से मिले। वहां प्रत्येक ने अपने–अपने तरीके से पूछताछ कर निष्कर्ष निकाले और समाचार–पत्रों व मीडिया के द्वारा इन निष्कर्षों के आधार पर अपना निर्णय सुना कर पुलिसकर्मियों व सरकार को दोषी घोषित कर दिया।
आपराधिक मामलों में पुलिस की प्रमुख व महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यद्यपि पुलिसकर्मियों पर यह आरोप लगते रहते हैं कि ये रिपोर्ट लिखते समय सही रिपोर्ट नहीं लिखते हैं, घटना की वास्तविक रिपोर्ट न लिख कर अपने मनमाफिक धाराओं में केस दर्ज कर देते हैं, परिवादियों पर रिपोर्ट नहीं लिखाने या राजीनामा करने का अनावश्यक दवाब डालते हैं, किसी दवाब या लोभ लालच के कारण भ्रष्ट आचरण कर अपराधी का पक्ष ले लेते हैं अथवा परिवादी के साथ मिल कर निर्दोष को फंसा देते हैं। जांच में देरी करते हैं, ठीक से जांच नहीं करते हैं। ऐसे अनेक प्रकार के आरोप पुलिसकर्मियों पर लगाये जाते हैं। लेकिन हम यह जानते हैं कि सारे पुलिसकर्मी ऐसे नहीं होते हैं, चन्द लोगों के कारण पूरे पुलिस विभाग को दोष नहीं दे सकते है।
खुफिया सूत्रों से सरकार और पुलिस को अनहोनी की आंशका की सूचना मिलने पर वहां सैंकड़ों पुलिसकर्मियों की व्यवस्था होने, सरकार व पुलिस द्वारा घटना की जांच के लिये एसआईटी गठित करने, सीबीआई द्वारा जांच कराने की सिफारिश करने, उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय को घटना की निष्पक्ष जांच कराने का आश्वासन देने के साथ–साथ न्यायालयों को यह भी कह दिया गया कि यदि न्यायालय चाहे तो अपनी निगरानी में जांच करवाले। इससे अधिक एक सरकार और क्या कर सकती थी। किन्तु इन सबके वाबजूद भी हंगामा करने वाले लोगों ने हंगामा नहीं रोका।
जिन परिस्थितियों में यह घटना घटी, पुलिस में प्रारंभिक रिपोर्ट पीड़िता के परिवार ने दर्ज कराई जिसमें एक व्यक्ति संदीप पर केवल मारपीट का आरोप लगाया गया, एक सप्ताह बाद उसमें संशोधन करके दुष्कर्म भी जोड़ा तथा 3 अन्य युवकों के नाम जोड़े गये। इसके बाद पीड़िता की मृत्यु के बाद जो हंगामा हुआ वह जग–जाहिर है। इस घटना में कई पेचीदगियां हैं। यह घटना किसी सूनी जगह पर नहीं घटी बल्कि दिन में ऐसे समय पर ऐसी जगह हुई जहां पीड़िता की माॅं व भाई का वहीं पास में होना बताया गया। पारिस्थितिक साक्ष्यों के अनुसार आरोपी तथा गांव के अन्य लोग पीड़िता के परिवार को ही दोषी बता रहे हैं। पीड़िता के भाई व मां के बयान भी संदेहास्पद होना बताया गया है। एक व्यक्ति ने तो प्रत्यक्षदर्शी होने का दावा करते हुए यहां तक कहा है कि घटना के समय पीड़िता का भाई वहां उपस्थित था जो घटना के बाद, पीड़िता को उसी हालत में छोड़ कर घर चला गया। पीड़िता के भाई के मोबाइल से आरोपी संदीप के साथ अक्टूबर, 2019 से मार्च, 2020 तक की अवधि में 104 बार बातें होना, आरोपियों द्वारा नार्को टैस्ट की सहमति देना जबकि पीड़िता के भाई द्वारा नार्को टैस्ट से इन्कार करना। किसी महिला का पीड़िता की कथित भाभी बन कर परिवार के साथ रहना फिर पोल खुलने पर वहां से लापता हो जाना आदि ऐसे बिन्दु हैं जो मामले में साजिश को इंगित करते हैं।
यह एक उदाहरण मात्र है। ऐसे अनेकों संदेहास्पद मामलों में न्याय दिलाने के नाम पर श्रेय लेने की होड़ में अपने निहित स्वार्थ साधने के लिये अनेक मीडियाकर्मी और नेताओं द्वारा अपने स्तर पर घटना की जांच व निष्कर्ष को प्रचारित व प्रसारित करने से पुलिस व न्यायिक जांच प्रभावित होती है जो अनुचित है। होना तो यह चाहिये कि जब तक पुलिस जांच पूरी न हो तब तक किसी भी बाहरी व्यक्ति को परिवादी पक्ष और आरोपी पक्ष दोनों से ही नहीं मिलने देना चाहिये। किसी भी आपराधिक घटना की मीडिया ट्रायल व राजनीतिक हस्तक्षेप पर प्रतिबंध लगना चाहिये। हां ! उन पक्षों की सहायता के लिये उनके द्वारा अधिकृत अधिवक्ता अथवा किसी अन्य व्यक्ति को साथ रहने की अनुमति अवश्य दी जानी चाहिये।
आलेख बहुत ही अच्छा व ज्ञानवर्धक है, समसामयिक । सचाई भी यही है , मीडिया ट्रायल की वजह से न्यूज़ चैनल अपनी वास्तविकता व मुख्य कार्य ही भूल गए हैं ।
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धन्यवाद ।