आपातकाल अर्थात निरंकुशता
प्रशांत पोळ
स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी की आपातकाल के दौरान कारावास में लिखी गई एक कविता है – ‘टूट सकते हैं हम, मगर झुक नहीं सकते…’ आपातकाल में यह कविता काफी प्रसारित हुई थी और इसने अनेक अनाम कार्यकर्ताओं को, इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरोध में भरपूर प्रेरणा दी थी। इस कविता की कुछ पंक्तियां हैं –
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लड़ता निरंकुशता से है।
अंधेरे ने दी चुनौती,
किरण अंतिम अस्त होती है।
इन पंक्तियों में ‘न्याय लड़ता निरंकुशता से है..’ यह उस समय की स्थिति का यथार्थ और सटीक वर्णन है। आज के हमारे युवक कल्पना भी नहीं कर सकेंगे कि आपातकाल के उन 21 महीनों में इंदिरा गांधी और उनकी मंडली ने किस निरंकुशता के साथ शासन चलाया।
इंदिरा गांधी की निरंकुशता कितनी..? 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आया कि ‘इंदिरा गांधी ने रायबरेली के चुनाव में भ्रष्ट आचरण किया है और इसलिए उनको छह वर्ष तक कोई भी चुनाव लड़ने पर पाबंदी है। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद उस दिन शासकीय दौरे पर श्रीनगर में थे। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय की पृष्ठभूमि में, दिल्ली आना चाहते थे। किन्तु इंदिरा गांधी ने उन्हें आने से मना किया। उनका कहना था, ‘लोग सोचेंगे, राष्ट्रपति इंदिरा गांधी का इस्तीफ़ा लेने दिल्ली आए हैं। राष्ट्रपति जी रोज बड़े दयनीय भाव से पूछते थे, ‘मैं आज दिल्ली आऊं क्या?’ और रोज उन्हें मनाही हो जाती थी। ऐसा तीन – चार दिन तक चला। बाद में कहीं जाकर राष्ट्रपति जी को दिल्ली लौटने की अनुमति मिली.!’
उन दिनों संजय गांधी विभिन्न प्रदेशों के दौरे पर जाते थे। संजय गांधी तो पार्षद भी नहीं थे और न ही पार्टी के पदाधिकारी। किन्तु फिर भी सर्वेसर्वा वही थे। इसलिए अलग हवाई जहाज से चलते थे। हवाई जहाज भी किसका.? भारतीय वायुसेना का सबसे अच्छा हवाई जहाज उनके लिए उपलब्ध रहता था। नियम के अनुसार संजय गांधी का वायुसेना के विमान से जाने का प्रश्न ही नहीं था। इसलिए वे किसी मंत्री के नाम वायुसेना का विमान एलॉट करवा लेते थे। अधिकतम समय गृहराज्य मंत्री ओम मेहता के नाम से रहता था। अब वायुसेना का विमान तो राज्यमंत्री (गृह) को नहीं मिल सकता। पर इतनी परवाह किसको थी? अनेकों बार तो ओम मेहता के नाम से एलॉट विमान में ओम मेहता ही नहीं रहते थे। संजय गांधी ही अपने मित्रों के साथ इस हवाई यात्रा का आनंद लेते थे।
गांधी परिवार बिलकुल निरंकुश सा हो गया था। उनके विरोध में लिखने / बोलने वाले सारे, कारावास कि सलाखों के पीछे थे। जयप्रकाश नारायण जैसे वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी को भी आधी रात, घर से उठाकर बंदीवान बनाया गया था। लगभग सत्तर हजार लोग जेल की सीखचों में बंद थे। बाद में इंदिरा गांधी की इस तानाशाही और आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह कर के एक लाख तीस हजार से भी ज्यादा लोगों ने गिरफ्तारियां दीं।
उन दिनों देश के दो ही राज्यों में काँग्रेस की विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों का शासन था। तामिलनाडु में डीएमके के करुणानिधि का और गुजरात में जनता पार्टी के बाबूभाई पटेल का। आपातकाल के मद में चूर इंदिरा गांधी ने, 31 जनवरी 1976 को तामिलनाडु और 12 मार्च 1976 को गुजरात की निर्वाचित सरकारें बर्खास्त कर दी थीं। कारण? कुछ भी नहीं। दोनों ही, काँग्रेस की विरोधी सरकारें थीं, इतना कम था क्या?
इंदिरा गांधी, संजय गांधी, उनकी चांडाल चौकड़ी और काँग्रेस के तमाम मंत्री – मुख्यमंत्री – कार्यकर्ता, इन सब की निरंकुशता का यह वीभत्स नृत्य लगभग 21 महीने चला। कन्नड़ सिनेमा की लोकप्रिय नायिका और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पुरजोर समर्थक स्नेहलता रेड्डी को यातनाएं दे – दे कर मारा। जॉर्ज फर्नांडीस के भाई लॉरेंस फर्नांडीस को इतनी यातनाएं दी गईं कि वे हमेशा के लिए अपाहिज हो गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 से ज्यादा कार्यकर्ताओं की मृत्यु कारागार में हुई, या पेरोल पर छूटते ही हुई। अनेक समाचार पत्र – साप्ताहिक – मासिक बंद हुए। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को सरकारी विज्ञापन देना बंद कर दिया गया। 200 से ज्यादा अधिकृत पत्रकार बंदी बनाए गए। कुछ भी प्रकाशित करना हो, तो उसकी अनुमति अनिवार्य हो गई।
डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने संविधान में जिन मूलभूत बातों का आग्रह से समावेश किया था, उन सभी को संविधान से हटा दिया गया। मात्र 8 महीनों में 5 प्रमुख संविधान संशोधन किए गए। लोगों के मूलभूत अधिकार छीन लिए गए। संविधान संशोधन 38 से लेकर 42 द्वारा डॉ. बाबासाहब अंबेडकर की मेहनत और मूलभूत अधिकारों के प्रति उनकी निष्ठा की धज्जियां उड़ाई गईं।
26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक, सारा देश एक बड़ा कारागार बन गया था। तानाशाह इंदिरा गांधी और उनके राजकुमार संजय की ही चलती थी। बाकी सारा देश खामोश था…
अजीब निजाम था,
हरेक मुंह पर ताला था।
खामोशियां दे रही थीं इस बात की गवाही,
कि तूफान आने वाला था…!
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