इंदु सरकार : आपातकाल का रक्तरंजित चेहरा (फिल्म समीक्षा)
अरुण सिंह
आपातकाल सामान्य पाबन्दी नहीं थी, अपितु सत्ता की कुर्सी बचाने हेतु भारतीय अवाम पर निरंकुश शासन था। 2017 में इस विषय को केंद्र में रखते हुए मधुर भंडारकर ने एक फिल्म बनाई थी : इंदु सरकार। 25 जून 1975 को देश पर थोपा गया आपातकाल क्रूर, अमानवीय और वीभत्स दुर्दिन लेकर आया। प्रेस और सार्वजनिक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगा दिया गया।
जबरदस्ती नसबंदी की गई। लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया अथवा आतंकी घोषित कर मार दिया गया। गायक किशोर कुमार के सरकारी कार्यक्रम में गाने से मना कर दिए जाने पर उसके गीतों का प्रसारण रेडियो पर बंद कर दिया गया।
सत्ता बचाने के लिए प्रधानमंत्री और उसका बेटा किस हद तक गए, इसका रक्तरंजित चेहरा यहां प्रस्तुत किया गया है।इमरजेंसी में विरोध को रोकने लिए चीफ (प्रधानमंत्री का पुत्र) निरंकुश सत्ता चलाता है। पुलिस कहती है : “इस देश में गांधी के मायने बदल चुके हैं।” स्वार्थ और लालच में चूर नवीन सरकार आपातकाल को “ज्यादती नहीं, ज़रूरत” बताता है। “सुखी भारत अभियान” और “गौरव सभा” की आड़ में तुर्कमान गेट बस्ती को उखाड़ फेंक दिया जाता है। संघ स्वयंसेवकों पर डंडे बरसाए जाते हैं। मेखला अपने युवा बेटे को खो देती है, पर विरोध कायम रखती है। अनाथालय में बड़ी हुई इंदु यह सब समझने लगती है। उसे पता चलता है मंत्री ओमनाथ राय के लिए लिखी गई कि उसकी कविता इमरजेंसी के सताए लोगों के साथ धोखा है। पुलिस तानाशाही में मारे गए माता – पिता के बच्चों को शरण देना उसके लिए चुनौती बन जाता है। वह घर छोड़ देती है। अत्याचारी कुशासन से पीड़ित लोगों की रक्षार्थ वह नानाजी के संगठन में शामिल हो जाती है। नवीन उसे नहीं रोक पाता। अपनी हकलाहट को वह विरोध की आवाज़ में बुलंद करती है। आपातकाल के काले दिनों की छाया ने उसके व्यक्तिगत जीवन को ढंक लिया है, परन्तु इस सब के बीच वह उम्मीद की किरण खोज ही लेती है।