उन्नत खेती का अविष्कारक भारत
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प्रशांत पोळ
उन्नत खेती का अविष्कारक भारत
पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिम भाग में उस देश का सबसे बड़ा प्रदेश है, बलूचिस्तान। 14 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान का निर्माण हुआ, तब बलूचिस्तान, पाकिस्तान का हिस्सा नहीं था। वह एक स्वतंत्र राष्ट्र था। मार्च 1948 मे पाकिस्तान ने इस प्रांत पर कब्जा कर लिया। तब से पाकिस्तान के विरोध में बलूचिस्तान में निरंतर कुछ ना कुछ होता रहता है। आज के समय में बलूचिस्तान, पाकिस्तान का सबसे अधिक अशांत और विस्फोटक प्रांत है।
इस प्रांत में, सिंधु नदी की पश्चिम दिशा में, बोलन पास के निकट, क्वेटा, कलात और सीबी शहरों के बीच में, एक छोटा सा गांव है – मेहरगढ़। इस गांव में, सन् 1974 में, फ्रेंच खोजकर्ताओं का एक दल जा पहुंचा। उन्हें इस स्थान पर कुछ अति प्राचीन चीजें मिल सकती हैं, ऐसा लग रहा था। इसलिए उन्होंने वहां उत्खनन का कार्य प्रारंभ किया।
इस उत्खनन में उस फ्रेंच टीम को ऐतिहासिक खजाना मिला। उन्हें विश्व में सबसे प्राचीन खेती करने के ठोस और जबरदस्त प्रमाण मिले। वह भी कितने पुराने? ईसा पूर्व 7000 वर्ष के, अर्थात् आज से 9000 वर्ष पूर्व के। तत्कालीन अखंड भारत में खेती होती थी, यह निर्णायक रूप से सिद्ध हुआ। उसी के साथ विश्व की सबसे प्राचीन और सबसे उन्नत खेती करने की परंपरा भारत में थी, यह भी सिद्ध हुआ।
ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद में, खेती के संदर्भ में अनेक सूक्त हैं। इस ग्रंथ के दूसरे मंडल में वर्णन है कि, सर्वप्रथम ऋषि गृस्मद ने रुई (कपास) का बीज बोया और उससे उगे पौधे से रुई निकाली।
ऋग्वेद के चौथे मंडल में, 57वें सूक्त में सातवां श्लोक है-
_इंद्रः सीतां नि गृहणातु तां पूषानु यच्छतु_
_स नाः परिस्वती दुहामुत्तरा मुत्तरा समाम ll7ll_
यहां ‘सीता’ शब्द ‘भूमि’ के लिये उपयोग में लाया गया है। इंद्र शब्द वर्षा के लिए (पर्जन्य के लिए) है। इस श्लोक का भावार्थ है, ‘हे कृषक, हे किसान, खेती का काम करते समय इस क्षेत्र के विद्वतजनों का अनुकरण कीजिए और खेती की आय बढ़ाइये।
ऋग्वेद के चौथे मंडल के 57वें सूक्त में आठवां श्लोक है –
_शुन्य नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं की नाशां अभि यन्तु वाहैः l_
_शुनं पर्जन्यो मधुना पयौभिः शुनांसीरा शुनमस्मासुं धत्तम् ll8ll_
अर्थात, ‘कृषि कर्म (खेती) करने वाले व्यक्ति ने अच्छी गुणवत्ता के हल से जमीन को जोतना चाहिये। बारिश के पानी से या भूमिगत पानी से जमीन का सिंचन करके किसान और (खेती अच्छी हुई और अच्छा राजस्व मिला इसलिये) राजा को सुखी होना चाहिये’।
ऋग्वेद के कम से कम 24 सूक्तों में कृषि का वर्णन करने वाली ॠचाएं हैं। अथर्ववेद में एक सूक्त है–
_व्राहीमतं यव मत्त मथो, माषमथों विलम् l_
_एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय, दंतौ माहीसिष्टं पितरं मातरंच ll_
इसमें जौ, तीली, चावल और दाल ये प्राचीन भारत के प्रमुख अनाज थे, यह स्पष्ट हो रहा है।
अथर्ववेद के अन्य सूक्तों मे खाद के प्रकार, जमीन के प्रकार आदि का वर्णन है।
ध्यान रहे, आज से कम से कम पांच – छह हजार वर्ष पहले, अपने देश मे व्यवस्थित और उन्नत किस्म की खेती होती थी। अकूत अनाज मिलता था। इसलिये देश में समृद्धि थी, खुशहाली थी, संपन्नता थी। इसी के बल पर हम विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार करते थे और धन-संपत्ति भारत में लाते थे।
विशेष बात यह है कि, दुनिया में कहीं भी इस प्रकार की, वैज्ञानिक और शास्त्रीय आधार पर खेती करने की, इतनी प्राचीन जानकारी उपलब्ध नहीं है।
केवल ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद जैसे वैदिक साहित्य में ही खेती से संबंधित ‘शास्त्र’ की जानकारी मिलती है, ऐसा नही है। इनके बाद में उपलब्ध ग्रंथों में भी खेती संबंधित जानकारी मिलती है।
भारतीय किसान तंत्रशुद्ध पद्धति से खेती करते थे, यह जानकारी अगले सैकड़ों वर्षों में ऐसे ही मिलती गई है और उसमें भी अनेक सुधार हुए हैं।
इन सब ग्रंथों में हल के प्रकार, हल के फाल से होने वाला कोण, मिट्टी के प्रकार, कौन सी मिट्टी में कौन सा अनाज बो सकते हैं, पर्जन्य वृष्टि (वर्षा / बारिश) और खेती का अनन्य साधारण आपसी संबंध, पर्जन्य वृष्टि और नक्षत्र, किस प्रकार की बारिश में किस प्रकार का अनाज लेना है, खेती के लिए आवश्यक गोवंश कैसे संभालना चाहिये, खेती के लिये हल जोतने वाले बैल कैसे होने चाहिये, उन्हें कैसे संजोना चाहिये, सम्भालना चाहिये….यह सब पढकर हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
कम से कम, पांच – छह हजार वर्ष पहले की यह सब लिखित जानकारी है। भारत में उन्नत और प्रगत खेती थी, शायद उससे भी और पहले, कई हजार वर्षों से यह चलती आ रही होगी।
यह सब अद्भुत है। हमारे पुरखों ने कृषि के संबंध में जो ज्ञान प्राप्त किया, वैसा विश्व में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। उस ज्ञान से, वे इतने अनाज का उत्पादन करते थे, जिससे देश मे संपन्नता आई थी।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक जिला है एटा नाम का। गंगा जमुना के दोआब के बीचोंबीच स्थित अर्थात सभी प्रकार से उपजाऊ प्रदेश। पेशवाओं के जमाने में इस प्रदेश को ‘अंतर्वेद’ नाम से जाना जाता था। उपजाऊ क्षेत्र होने के कारण, एटा जिले में प्राचीन खेती के प्रमाण मिले हैं।
यमुना का दुसरा नाम है कालिंदी। इसी नाम से यह नदी एटा जिले से बहती है। श्रीकृष्ण भगवान ने अपने बाल रूप में इसी कालिंदी के गहरे पानी में कालिया नाग पर नृत्य किया था। इस कालिंदी नदी के तट पर, जखेडा नाम का एक गांव है। यहां जो उत्खनन हुआ, उसमें हल के दो लोहे के हिस्से मिले। यह छब्बीस सौ वर्ष प्राचीन है।
इस जखेडा से 16 किलोमीटर दूरी पर, एटा जिले मे ही ‘अतरंगी खेडा’ नाम का छोटा सा गांव है। अलेक्जेंडर कनिंगहम नाम के ब्रिटिश पुरातत्व विशेषज्ञ ने सन् 1871 मे यहां उत्खनन किया। इस उत्खनन में उसे भारत में प्राचीन खेती के अनेक प्रमाण मिले। कृषि हेतु बीज के लिए रखे गये चावल, गेंहू , उस जमाने के खेती के औजार, हल ऐसा बहुत कुछ… ये सब चीजें कार्बन डेटिंग के अनुसार, ईसा पूर्व बारह सौ वर्ष की हैं। इसका अर्थ, आज से 3200 वर्ष पहले अपने देश में, उस जमाने की अपेक्षा कहीं अधिक आधुनिक पद्धति से खेती हो रही थी। इसके ये सब प्रमाण हैं।
शुल्बसूत्र लिखने वाले ‘बोधायन’, उनतीस सौ वर्ष पूर्व के हैं। उन्होंने ‘कुदाली’ का उपयोग करके खेती करने वालों के लिए, ‘कौद्दालिक’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रख्यात व्याकरणकार ‘पाणिनी’ का कार्यकाल ईसा पूर्व पांचवीं सदी का है। अर्थात, ढाई हजार वर्ष पहले का। उन्होंने उनके ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ में हल और लोहे के फाल के लिए ‘अमी विकार कुशी’ इस शब्द का उपयोग किया है।
ईसा पूर्व तीसरी सदी में, चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री चाणक्य ने, ‘कौटिल्य’ नाम से ‘अर्थशास्त्र’ का प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा। अर्थतंत्र को गतिमानता देने के लिए खेती आवश्यक घटक / हिस्सा है, ऐसा प्रतिपादित करते हुए उन्होंने इस ग्रंथ में खेती की महत्ता का अनेकों बार उल्लेख किया है। इनमें से 2 से 14 अध्यायों के शीर्षक ही ‘सीता अध्यक्ष’ हैं। भूमि के लिये संस्कृत में ‘सीता’ शब्द का उपयोग किया जाता है, यह हमने देखा है अर्थात, यहां कौटिल्य को ‘कृषिशास्त्र के प्रमुख’ यह अर्थ अपेक्षित है। खेती और वर्षा का अनन्य साधारण संबंध होने के कारण, ‘वर्षा और वर्षा का भविष्य’ इस पर विस्तार से चर्चा की है। अच्छा बीज कैसे तैयार किया जाता है, उन्हें कैसे संकलित और संग्रहित किया जाता है। इन सब का शास्त्र शुद्ध ज्ञान भी इसी ग्रंथ में दिया है। सरकार ने कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए क्या, क्या योजनाएं बनानी चाहिये, इसका भी विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ में किया है।
कौटिल्य ने इस ग्रंथ के छठवें अध्याय में लिखा है कि, ‘कृषि योग्य जमीन, खदानों से अच्छी होती है। खदानों के कारण केवल राजकोष में वृद्धि होती है, परंतु खेती के कारण राजकोष और भंडार, दोनों में वृद्धि होती है।’
कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ ग्रंथ में तीन प्रकार के उर्वरकों का (खाद का) उल्लेख किया है –
01. गोस्थी
02. गोश कृद (गाय का गोबर)
03. अशुष्क कटू मत्स्य
_शाखिनां गर्तदाहो गोस्थीशकृदिभः काले दौहदंच l_
_प्रुरुढांश्चाशुष्ककटू मत्स्यांश्चस्नुहि क्षीरेण पायतेत ll_
(अर्थशास्त्र / 2.24 / 34)
दो – ढाई हजार वर्ष पहले, अच्छी खेती का कितना गंभीरता से और गहराई से हमारे पूर्वजों ने विचार किया था, यह अर्थशास्त्र ग्रंथ पढने से समझ मे आता है।
कौटिल्यने ‘सीताध्यक्ष’ के प्रमुख कर्तव्यों मे, अच्छे बीजों का जतन और संवर्धन प्रमुखता से बताया है। कौटिल्यने तीन प्रकार के जमीन का वर्णन किया है।
01. कृष्ट भूमी (जो जोती हुई है)
02. अकृष्ट भूमी (जो जोती नही हैं, पर जोती जा सकती है)
03. स्थलभूमी (बंजर जमीन)
खेती के लिए जो जमीन उपयुक्त नहीं है, वह जमीन गोचर भूमि (चारागार जमीन) अर्थात, गोवंश के चारे के लिए विकसित की जाती थी। कौटिल्य ने इस जमीन को ‘अदेवमातृक भूमि’ कहा है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में और (आगे चलकर लिखे गये) वराह मिहिर के ‘बृहत्संहिता’ में, अच्छी कृषि के लिए सिंचन की आवश्यकता और सिंचन के प्रकार, विस्तार से बताये गये हैं। कौटिल्य ने चार प्रकार के सिंचन पद्धति का वर्णन किया है।
1. हाथों की सहायता से सिंचन
2. कंधों पर पानी लाकर किया हुआ सिंचन
3. यंत्र द्वारा सिंचन
4. तालाब के पानी से किया हुआ सिंचन
प्रसिद्ध इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार ने, उनके ग्रंथ ‘प्राचीन भारत – प्रारंभ से 1200 इसवी तक’ में कौटिल्य की सिंचन पद्धति का और विस्तार किया है। इसमं उन्होंने पांचवीं पद्धति जोड़ दी है – बांध का निर्माण करके, उससे नहर निकाल के, उसके द्वारा सिंचन करना, यह पांचवीं पद्धति है। यंत्र द्वारा किये जाने वाले सिंचन में सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार, पवन चक्की से पानी लेकर सिंचन किया जाता था। इसके अलावा सिंचन के लिए मोठ (चरसा / पुर) का भी उपयोग होता था।
छठवीं सदी में, उज्जैन के वराहमिहीर ने पर्जन्य वृष्टि के संदर्भ में, अर्थात, वर्षा के पैटर्न के बारे में बहुत कुछ लिखा है। ‘बृहत्संहिता’ ग्रंथ के 21, 22 और 23 अध्यायों में उन्होंने अंतरिक्ष से आने वाले जल, अर्थात पर्जन्य के संदर्भ में विस्तार से लिखा है। बारिश और खेती का अनोन्य संबंध भी उन्होंने रेखांकित किया है। ‘अच्छी वर्षा हुई, तो अच्छा अनाज आयेगा’ की अपेक्षा, ‘वर्षा का अनुमान लगा के, उसके अनुसार अगर बीज बोयेंगे और अनाज निकालेंगे, तो अधिक उत्पादन होगा’, यह उनका सिद्धांत था। इसलिये ‘बृहत्संहिता’ ग्रंथ में बारिश की भविष्यवाणी से संबंधित अनेक संकेत दिये गए हैं।
(क्रमशः)
(आगामी प्रकाशित ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 2’ पुस्तक के अंश)